शुक्रवार, 27 जून 2014

'गर्व से कहो हम भारतीय हैं !'

'गर्व से कहो हम भारतीय हैं !' कहते थे, कहते हैं और आगे भी कहते ही रहेंगे. पर, अब ये कहने में वो पहले सा आत्मविश्वास नहीं रहा. बल्कि कई बार तो ग्लानि ही होती है ! हाँ, आज भी मन-मस्तिष्क में अनगिनत तरंगें उठती हैं, शरीर में फूरफ़ुरी-सी दौड़ जाती है. जब भी अपने राष्ट्र-गान की धुन सुनाई देती है ! हृदय भाव-विह्यल हो उठता है, जब विदेशी धरती पर भारतीय टीम विजय की पताका फहराती है. खुशी से आँखें नम हो उठती हैं जब ओलंपिक में हमारा देश मेडल जीतता है. सुष्मिता सेन के विश्व-सुंदरी बनते ही यूँ पगलाते हैं, जैसे हमें ही वो खिताब मिल गया हो ! अच्छा लगता है जब कोई भारत-वासी नोबल पुरस्कार, या ऑस्कर जीतता है ! यहाँ तक कि उसके भारतीय मूल का होना भी अपार प्रसन्नता दे जाता है और भी ऐसे कई पल अवश्य ही रहे हैं, जब माउंट-एवरेस्ट पर जाकर दुनिया को ठेंगा दिखाने का मन हुआ है ! लेकिन, आज़ादी से लेकर अब तक की खुशियों को गिनने बैठें, तो १०० से ज़्यादा ऐसी घटनाएँ शायद ही ढूँढ सकें !

अब आज का समाचार-पत्र उठाइए.... मात्र एक ही दिन में चोरी, आगज़नी, बलात्कार, लूटपाट, हत्या, अपहरण, यौन शोषण, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की न जाने कितनी खबरें आपको व्यथित कर देंगीं. रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएँ, अपने ही लोगों द्वारा अपनों पर अत्याचार, धर्म के नाम पर मारामारी और उस पर खेली जा रही गंदी राजनीति....कुछ इस अंदाज़ में कि अपने ही देश से घिन होने लगे ! अभी तो इसमें रोज होने वाली दुर्घटनाएँ और प्राकृतिक आपदाओं का ज़िक्र ही नहीं, जिससे समय रहते लोगों की जानें बचाई जा सकतीं थीं !! और बची-खुची क़सर बाकी लोग सब जगह गंदगी फैलाकर, पान की पीक, गुटके के गंदे बदबूदार निशान, सड़कों पर भटकते आवारा कुत्ते और गाय, और उन बेचारों के लिए हमारे ही द्वारा फेंका गया खाना और उस पर भिनकती मक्खियाँ पूरी कर देते हैं ! क्या इस पर गर्व किया जाए ????

किसी भी बात का निर्धारण अनुपात से ही होता है, न ? यदि वर्ष में १-२ अच्छी घटनाएँ और १०,००० से भी ज़्यादा बुरी हों,, तो क्या गौरवान्वित होना जायज़ है ? अफ़सोस नहीं होना चाहिए, कि इतनी अधिक आबादी वाले देश में दुष्कर्मों की संख्या ज़्यादा है ! चिंताजनक स्थिति ये भी है, कि इसके विरोध में बोलने वालों की संख्या बहुत कम है. ज़्यादातर लोग चुप बैठकर तमाशा देखना ही पसंद करते हैं, यही सोचकर कि कौन इन फालतू पचड़ों में पड़े ! कुछ लोग इसे बेमतलब का ज्ञान बाँटना कहकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं, कुछ यह कहकर बच निकलते हैं कि उन्हें ये सब बातें समझ ही नहीं आतीं और बचे-खुचों ने तो यह मान ही लिया है, कि इस देश का कुछ नहीं होने वाला ! ये वही लोग हैं, जो अपने ही राष्ट्र का मज़ाक तो उड़ाते हैं, पर उसे बदलने के लिए खुद कुछ भी नहीं करना चाहते ! पर क्या यह ज़रूरी है, कि वही व्यक्ति आवाज़ उठाए, जिस पर बीत रही हो ?? और हम सब अपनी बारी आने तक तमाशबीन बने रहें ??

सुना था, पढ़ा था और स्कूल की परीक्षाओं के दौरान हिन्दी निबंध में लिखा भी है. विषय होता था- 'अनेकता में एकता', और हम सभी इसमें वही बरसों से घोंट-घोंटकर याद की हुई बातें लिख आते थे...... "भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है, यहाँ सभी धर्मों को समान भाव से देखा जाता है. इतने धर्म, जाति, पहनावा, ख़ान-पान में विभिन्नता होते हुए भी हम सब एक हैं, वग़ैरा, वग़ैरा.." और अंत में यह लिखना कभी नहीं भूले कि....."इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारे यहाँ 'अनेकता में एकता' पाई जाती है." लो जी हो गये मार्क्स पक्के ! पर मन तब भी बहुत कचोटता था, शर्मिंदा होता था क्योंकि ये न तो तब सच था और न ही अब है ! रोज ही सुनाई दे जाते हैं, धर्मगुरुओं के दंभी स्वर....अपने-अपने धर्म के गुणगान के साथ, दूसरे को नीचा दिखाती हुई आवाज़ें ! साधु-संतों के बारे में हमेशा से यही जाना है, कि इनका सबसे प्रमुख गुण धैर्य और संयम है....पर जब इन्हें चीखते-चिल्लाते और अभद्र भाषा का प्रयोग करते देखा तो इनकी विश्वसनीयता पर और भी संदेह हुआ. अगर ये सही हैं, तो फिर इनकी परिभाषाएँ ग़लत हैं. धर्मांधता, आस्था और धर्म-भीरू होना बिल्कुल अलग हैं, पर क्या ये वैयक्तिक नहीं होना चाहिए ? गंदी सोच और घटिया मानसिकता वाले लोगों को इतना प्रचार-प्रसार देने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है ? 'प्रजातंत्र' का ये कैसा घिनौना रूप है ! लेकिन हम भारतीयों की भी एक खूबी है, हम ऐसे लोगों को पूजते बहुत हैं ! खुश भी तुरंत ही हो जाते हैं, कल तक जो १०० बुरी घटनाओं पर दहाड़ें मारकर रोते थे, कुछ अच्छा हुआ नहीं कि खिलखिला उठे !

जहाँ मुखपृष्ठ तमाम राजनीतिक और आपराधिक खबरों से पटा पड़ा है, वहीं अख़बार के किसी कोने में एक छोटा-सा समाचार दिखता है, किसी अच्छी घटना के होने का ! शीर्षक ज़्यादातर यही रहता है...... "इंसानियत आज भी ज़िंदा है !" कैसी विडंबना है, इंसानों के वेश में, इंसानों के देश में.... अपने ही होने का प्रमाणपत्र ढूँढना !
तभी अचानक पीछे से एक स्वर सुनाई देता है....... "गर्व से कहो, हम भारतीय हैं !' 
O' Yeah ! Proud Of It !! 
हमने भी तुरंत ही आंग्ल-भाषा में इसकी पुष्टि करके अपने भारतीय-बुद्धिजीवी होने का पुख़्ता सबूत दे डाला !

-प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

अनजानी सी पहचान

संभवत: दो वर्ष पूर्व की ही बात रही होगी ये ! मैं ट्रेन में सफ़र कर रही थी, दुर्भाग्य से ऊपर की बर्थ ही मिली थी मुझे. मैं उन लोगों में से हूँ, जो ट्रेन में सफ़र करते ही इसलिए हैं कि 'विंडो सीट' का भरपूर मज़ा ले सकें. बाहर के नज़ारे, रास्ते में पड़ते छोटे-छोटे गाँव, रेलवे लाइन के आसपास खेलते-कूदते बच्चे, भागते हुए पेड़, रेलवे-क्रॉसिंग के नीचे रुके लोग और जीभ दिखाते हुए खी-खी करके उन्हें चिढ़ाना मुझे अभी भी खूब भाता है. रात होते-होते ये अफ़सोस भी जाता रहा. ट्रेन में नींद अच्छे से आती नहीं कभी, अपनी और सामान दोनों की ही फ़िक्र. हालाँकि इस समय सामान की उतनी चिंता नहीं थी. ये भी अजीब ही आदत है मेरी, कि लगेज की परवाह जाते समय ही ज़्यादा रहती है, मुझे. लौटते वक़्त तो यही लगता है, कि चोरी हो भी गया तो क्या हुआ, घर ही तो जाना है, अब ! पर हाँ, सबकी गिफ्ट्स का बेग अपने सिरहाने ही रखती हूँ, अभी भी ! खैर...चलती ट्रेन में लिखाई-पढ़ाई मुझसे होती नहीं, पर कुछ विचार बुरी तरह उथल-पुथल मचा रहे थे, सो पर्स में से अपनी डायरी और पेन निकाल ही लिया. माहौल एकदम प्रतिकूल था. लिखते समय जो एकांत चाहिए उसकी उम्मीद रखना भी बेमानी था, मैं दरवाजा बंद करके और कभी-कभार तो पंखे को भी बंद करके लिखने वालों में से हूँ, ज़रा भी व्यवधान हुआ, कि किस्सा ख़त्म ! पर यहाँ ऐसा सोचना भी बेवकूफी थी !

ऐसे में उसकी आवाज़ मुझे बहुत इरिटेट कर रही थी, वो बोले ही चली जा रही थी, चुप न होने का तय करके ही बैठी हो जैसे. तभी मैंनें पूरी गर्दन ही लटका दी और ऊपर से नीचे झाँका, फिर बच्चों से पूछा..'सो गये ना ?' दोनों ने एक साथ मुस्कुराते हुए कहा, 'आपको क्या लगता है ? ' फिर आँखों-आँखों में ही हम तीनों हँस पड़े. तभी कहीं से आवाज़ आई, 'आंटी, मैं डिस्टर्ब तो नहीं कर रही ना ?' मैंनें झट से बोल दिया...'नहीं तो !' पर अचानक ही मैं एकदम असहज-सी हो गई.....आंटी ? हुहह..मेरे जानने वाले तो कहते हैं, कि मैं अभी भी कॉलेज गोइंग टाइप लगती हूँ, और इसने मुझे.......!! फिर खुद ही मन में आए विचार को झटक दिया मैंने, तो क्या हुआ, मेरे को क्या !!! पर सच तो यह है कि मैं मन में खिसिया-सी रही थी..कोई बच्चा आंटी बोले तो चलता है, पर एक शादीशुदा महिला ? यहाँ गौर करने वाली बात ये है, कि महिला शब्द का प्रयोग मैंनें जान-बूझकर ही किया है, वो एक शादीशुदा लड़की ही थी !

न चाहते हुए भी उसकी बातें मेरे कानों में पड़ रहीं थीं. वो अपने आसपास बैठे लोगों से खूब घुल-मिलकर बातें कर रही थी. अपने स्कूल, कॉलेज और दोस्तों की, पसंद-नापसंदगी की और भी जाने क्या-क्या ! अचानक उसकी बातों में मेरे शहर का नाम आया, अरे तो ये भी यहीं की है क्या ? मैंनें पूछना चाहा, पर ऊपर से चिल्लाकर पूछना जँचा नहीं, सो चुप ही रही. थोड़ी देर बाद किसी ने उससे उसका गंतव्य जानना चाहा, अब मेरे भी कान खड़े हो गये थे, एक अजीब सी फ़िक्र होने लगी थी मुझे उसकी...अकेले सफ़र कर रही थी वो, जमाना भी खराब है और मेरे दिमाग़ में ढेरों ऊल-जलूल बातों ने पल भर में ही धरना दे दिया ! जैसे ही उसने फिर से मेरे वर्तमान शहर का नाम लिया, तो मैं उछल ही पड़ी ! बिना उसके पूछे ही मैंनें कह दिया, अरे हम भी वहीं जा रहे हैं. एक तसल्ली सी हुई, कि चलो अब ये खुद को अकेला नहीं समझेगी. हालाँकि उसे देखकर ऐसा बिल्कुल भी लगता नहीं था, कि वो ऐसी तसल्लियों की मोहताज़ भी है ! उसे नींद आने लगी थी शायद, प्यार से मेरी तरफ देखकर बोली..गुड नाइट आंटी ! पता नहीं क्यों, इस बार बुरा नहीं लगा मुझे, और जवाब में हंसते हुए मैंनें भी उसे गुड नाइट कह डाला ! 

हमेशा की तरह सुबह जल्दी ही नीचे उतर आई मैं, बाथरूम भी साफ मिलते हैं और फ्रेश होकर सबसे पहले चाय वाले से चाय लेने का सुख भी अमूल्य होता है. वो भी उठ गई थी, और बातों-बातों में ही उससे अच्छी दोस्ती भी हो गई. एक-दूसरे के नंबर भी लिए हमनें. फेसबुक पर अपने होने की जानकारी भी दी गई. मैं लिखती भी हूँ, इस बात से वो बेहद प्रभावित थी. मैंनें उसे कहा भी, कि मैं इस यात्रा पर ज़रूर लिखूँगी. पर जीवन की जद्दोजहद में कितनी ही प्लान की हुई बातें फेल हो जाती हैं, यहाँ भी यही हुआ ! इस बीच एक बार उससे तभी ही फोन पर बात हुई थी और दो बार कुछ संदेशों का आदान-प्रदान ! पर इतना तो जान ही गई, कि वो बहुत प्यारी इंसान हैं, पागलपन में ठीक मेरी ही तरह, और दूसरों पर तुरंत ही विश्वास कर लेने में भी मेरे ही जैसी ! बस यही दुआ है कि ईश्वर उसके विश्वास को हमेशा बरक़रार रखे. उसे जीवन की तमाम खुशियाँ हासिल हों ! शायद मैं आज भी उसे ये सब ना कह पाती, आज अचानक ही उसके जन्मदिवस का नोटिफिकेशन आया, तो सारी यादें ताज़ा हो गईं ! वैसे भी अब एक नया नियम बना लिया है मैंनें, कि जब जो भी महसूस करो, कह डालो.... बहुत कुछ इसलिए ही पीछे छूट जाता है, कि कह सकने की हिम्मत ही नहीं होती ! पर अब जीवन के उस मोड़ पर हूँ, जहाँ न कुछ पाने की ज़्यादा खुशी होती है और न ही खोने का अफ़सोस ! ये उदासीनता ज़िंदगी का हिस्सा खुद कभी नहीं होती, पर कब शामिल हो जाती है..पता ही नहीं चलता ! जीना इसी को ही तो कहते हैं ना ! खैर....ये बातें फिर कभी !

जन्मदिवस मुबारक हो, प्रिया ! देखो, मैंनें अपना वादा निभा दिया है आज ! :)

प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

'एकालाप'


जानती हूँ, अब यहाँ आने का कोई फायदा नहीं ..फिर भी आती हूँ रोज, उसी तयशुदा समय पर ! ये भी पता है कि अब मेरी हर दस्तक़ का जवाब नहीं मिलेगा या शायद, सुनकर भी अनसुनी कर दीं जाएँगी, कुछ रुंधीं-सिसकती आवाज़ें ! फिर भी खटखटाती हूँ..रोज वही दरवाज़ा ! कई बार ये भी अहसास हुआ है, कि है कोई वहाँ, शायद मुझसे भी ज़्यादा ज़रूरी ! फिर हँस पड़ती हूँ, अपनी ही इसी सोच पर कि मैं ज़रूरी थी ही कब. बिन बुलाए हर समय उपस्थित, मैंनें तुम्हें मुझे 'मिस' करने का मौका ही नहीं दिया न ! हा-हा-हा, तुम्हें भी पता ही है, कि इसका कोई और ठौर नहीं...नाराज़ होगी या खुश, आएगी तो इधर ही ! इसी निश्चिंतता ने तुम्हें, मुझसे दूर कर दिया है...हाँ, तुमने इसे व्यस्तता का सुखद नाम देने की कोशिश बहुत बार की है. यह एक लंबी चर्चा का विषय हो सकता है, पर मैं इस सबसे बचना चाहती हूँ. तुम्हें खो देने का वही पुराना डर आज भी रह-रहकर जेहन में उभरने लगा है. यहाँ आकर मेरी सारी समझदारी मेरा साथ छोड़ देती है, याद रह जाता है, तो बस तुम्हारा नाम, हमारा नाम, मैं और तुम, सिर्फ़ हम.....!

कहा है तुमने पहले भी, समझाया भी तो है..कई दफे, कि न आया करूँ मैं यहाँ..तुम्हें पता है, कि तुम्हें न पाकर मैं उदास हो जाती हूँ, टूट-सी जाती हूँ और कितनी ही बार अवसादग्रस्त भी हो चुकी हूँ. फिर भी मैं आती हूँ, तो बस यही सोचकर, कि क्या पता तुम आओ, कभी मेरी उम्मीद लिए और मैं न मिली, तो तुम भी तो उदास हो जाओगे न फिर ! नहीं चाहती, कि तुम्हारे इस साँवले-सुंदर से चेहरे पर चिंता की एक भी लकीर हो. हाँ, ये बात अलग है..कि मैं उन परेशानियों को कभी दूर न कर सकी..कभी करना चाहा भी, तो हमारे बीच और दूरियाँ बनती चली गईं....ये हम दोनों की ही बदक़िस्मती रही है शायद !

खैर......फिक़्र न करना कोई, मैं आऊँगी, आती रहूंगी....तो बस तुम्हारे लिए ! बाकी दुनिया और उससे जुड़े सारे अहसास अब सुन्न हो चुके हैं और मैं अब उन्हें जगाना भी नहीं चाहती ! जब तक तुम हो....मैं भी हूँ. पास रहो या यूँ दूर-दूर.....अब बस 'होना' ही काफ़ी है. 
सौदामिनी
'तुम्हारी' भी लिख दूं क्या ?

*एक और अंश, सौदामिनी के कई अंशों में से... .

प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

प्रेम डगर

Disclaimer :  यह एक अच्छे मूड में लिखे गये विचार हैं, जिसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं !

प्रेम' मात्र एक शब्द ही नहीं, जीवन है पूरा ! यह वो 'शै' है, जिसे हरेक ने किसी-न-किसी रूप में पाया है, सराहा है, महसूसा है या खोया है. पर इसके अस्तित्व से कोई भी अनजान नहीं. कुछ लोग इसे 'रोग' भी कहते हैं, यदि यह सच है..तो ये ऐसा रोग है; जिससे हर कोई ग्रसित होना चाहता है. वजह ठीक वैसी ही, जैसे कि किसी रेस्टोरेंट में खाना ऑर्डर करने के बाद बगल वाली टेबल पर नज़र जाते ही लगता है, उफ्फ..हमने ये क्यूँ नहीं मँगाया ! कहते हैं न, 'दूर के ढोल सुहावने लगते हैं'...पहली दृष्टि में ही सब कुछ खूबसूरत दिखाई देता है. आसपास के नज़ारे, फूल-पत्ती, ज़मीं-आसमां, यहाँ तक की खाने की थाली में भी वही एक चेहरा प्रतिबिंब बनकर उभरता रहता है. दिलो-दिमाग़, आँखों में वही बसा हुआ...अनायास ही होठों पर वो हल्की सी मुस्कुराहट बयाँ कर ही देती है, कि जनाब / मोहतरमा इश्क़ के मरीज बन चुके हैं. ये खुद ही खोदी गई ऐसी क़ब्र है, जिस पर फूल चढ़ाने भी हमें ही आना है. इसके सुखद होने तक सब आपके साथ होते हैं, और साइड इफेक्ट्स दिखते ही दुनियादारी की तमाम बातें कानों में पड़ने लगती हैं. फिर भी यह एक ऐसी डगर है, जिस पर सब चलना चाहते हैं, मंज़िल मिले न मिले पर रास्ता तो तय करना ही है !

मुझे लगता है, इसका दोषी 'बॉलीवुड' है. फिल्मों ने हम सबके दिमाग़ में कूट-कूटकर भर दिया है, कि प्रेम से बेहतर कुछ नहीं. यही है, जो सारे दुखों का अंत करता है. वरना 'प्रेम' के हर मूड के हिसाब से हम सबके दिमाग़ में गाने क्यूँ बजने लगते हैं ? गाने न होते तो, प्रेम में क्या रह जाता..बिना घी की रोटियों सा सूखा, बेस्वाद, कड़कड़ाता-सा ! दुख में क्या गाया जाता फिर ? अगर 'तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही...' न होता तो ! गीत-संगीत की धुन पर आँसू भी तो कैसे सुर में और सूपर-फास्ट बहते हैं ! पर उनका क्या जो फिल्में देखते ही नहीं......क्या उन्हें भी 'प्रेम' होता है ??????

जो भी है..होना चाहिए. पा लिया, तो जीवन खुशी से कटेगा और न पाया तो उम्मीद में ! नहीं कोसना चाहिए इस अहसास को, भ्रम ही क्यूँ न हो, इसका होना ही काफ़ी है !

MORAL :  सॉरी, पर 'इश्क़' में काहे का मोरल ! :P 

प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

'जान'

'जान' का अर्थ उसके लिए जीवन ही हुआ करता था. जब कभी आज के जमाने के लोगों को, या यूँ कहें कि प्रेमी-प्रेमिकाओं को एक दूसरे के लिए 'जान' शब्द का प्रयोग करते देखती-सुनती. तो बहुत कोफ़्त होती थी उसे ! छी ! ये भी कोई शब्द है, जान, बेबी..उफ्फ, ये आजकल के लोग, हाउ चीप ! क्या हुआ है, इन्हें !!

पर उस दिन जब प्रियम ने उसे प्यार से देखते हुए अपनी क़ातिलाना मुस्कान के साथ एकदम से कह दिया...." love u Jaan, can't live without u ! u r really sweet " तो जैसे रोम-रोम झनझना उठा था, उसका ! रग-रग में एक अजीब-सी खुशी की लहर दौड़ गई थी, पलकें नम और मन तरंगित था. धीमे स्वर में सौदामिनी भी बोल ही उठी, " love u too, jaan " और फिर सारे दिन पगलाती-सी घूमी थी. पहली बार किसी की 'जान' बनने का अहसास कितना खूबसूरत होता है, आज पता जो चला था उसे ! उफ्फ, कितना प्यारा है, ये अहसास ! फिर कागज़ पर कई बार लिखा, टाइप भी किया...पढ़कर देखा और खुद ही हँस दी, हाय ! कित्ता प्यारा शब्द है.....'जान' ! 

कुछ शब्द, सुनने-कहने में बड़े अजीब लगते हैं..पर वो हमेशा ही बुरे हों, ज़रूरी नहीं ! एक व्यक्ति, हर शब्द के मायने बदल सकता है....चाहे वो आपकी ज़िंदगी में ठिठककर ही चला गया हो !

* 'सौदामिनी'.......पूरा हुआ तो एक उपन्यास, वरना कुछ अधूरी कहानियों का संकलन मात्र !
प्रीति 'अज्ञात'

स्कूल की घंटी



स्कूल की घंटी से ज़्यादा मधुर ध्वनि किसी भी वाद्य-यंत्र से नहीं निकल सकती, इसके संगीत से रग-रग कैसे झूमने लगती है ! मन-मस्तिष्क में प्रसन्नता की लहरें हिलोरें मारती हैं ! वातावरण संगीतमय हो उठता है, मयूर बन नाचने को जी करता है ! वो भी क्या दिन थे ! आख़िरी पीरियड के वो आख़िरी 5-10 मिनट निकालने कितने दुष्कर हो जाया करते थे ! कोहनियाँ मार के या आँखों से ही अपनी बेचैनी सभी विद्यार्थी एक-दूसरे को बताया करते . कई बार यूँ भी लगता था, कि बजाने वाले भैया भूल तो नहीं गये ! नये जमाने वालों को बता दें, उस समय लोहे का एक मोटा सा तवा टाइप हुआ करता था, उस पर लकड़ी का मोटा, सोटा मारने से जो ध्वनि उत्पन्न होती थी, उसे ही घंटी कहा जाता था. शैतान बच्चे भी उस सोटे को छूते तक नहीं थे. :)

तो फिर, क्या पता बजी हो और हमने ही नहीं सुन पाई ! फिर खुद ही अपनी इस सोच को नकार दिया करते थे. नहीं-नहीं ये तो हो ही नहीं सकता, जो आवाज़ प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय है, वो सुनाई न दे ! ना रे ! फिर कोई बच्चा पानी पीने के बहाने चेक करने का सोचता. लेकिन तभी टीचर की गुस्से से लाल आँखें उसके इरादों पर तुरंत ही पानी फेर दिया करतीं ! " नहीं, अभी नहीं..छुट्टी होने ही वाली है " 
कुछ हमारे टाइप के स्मार्ट बच्चे तुरंत ही पूछ लेते, " कितनी देर है, मेडम "  :P

उनका जवाब सुनकर दिल को बड़ी तसल्ली मिलती थी, गोया वो न कहतीं तो जैसे उस दिन छुट्टी होती ही नहीं . उनके उत्तर के हिसाब से धीरे-धीरे चुपके से अपने सामान की पैकिंग शुरू कर देते, जिससे टन-टन सुनते ही एक सेकेंड भी वेस्ट ना हो और हम सब टनाटन सीढ़ियाँ उतर जाएँ ! :P :D
उफ्फ. काश वो घंटी की आवाज़ें फिर से सुनाई दें, फिर से पैकिंग का मौका मिले, फिर से वही खोयी चमक लौट आए और भाग जाएँ कहीं.........! 
जीवन के चार दशक पूरे करने के बाद, एक ब्रेक तो बनता है ! :D

MORAL : तंग आ चुके हैं, कशमेकशे ज़िंदगी से हम
               ठुकरा न दें, जहाँ को कहीं बेदिली से हम...... :P :D 
( इन २ पंक्तियों के लिए शुक्रिया साहिर   लुधियानवी जी, मो. रफ़ी साहब, सचिन दा और गुरुदत्त जी )

प्रीति 'अज्ञात'

लो, हम बड़े हो गये.. :P

आज किसी ने मुझे बड़े होने का अल्टीमेटम दे दिया है...उफ्फ, अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊं ? :(
हेलो, हाँ..जी आप से ही
ये समझदारी कौन सी दुकान में मिलती है ?
क्या ?? आगे जाके राइट टर्न लूँ ?
ओके, . ., भैया......पर मैं पहचानूँगी कैसे ? :/
अच्छा, वहाँ बहुत भीड़ है ! लंबी लाइन ?
कर लेंगे इंतज़ार.... हमें तो आदत है....!
मिल गई रे...राइट में ही तो थी, पहले क्यूँ नी दिखी ! :P
अपने हिसाब से भी राइट ही तो जा रहे थे, बस इस स्पीडब्रेकर पे आके लड़खड़ा गये
किसी महापुरुष ने कहा था कि , सड़क पे चलने से पहले रास्ते की पूरी जानकारी ले लेनी चाहिए
कोई नी.... भगवान के घर 'अंधेर' है, 'देर' नहीं ! ( ये उलटफेर हमने किया, नो टाइपिंग मिस्टेक ) :D
१ किलो समझदारी खरीद ही लूं
;) ग़लतियाँ तो और करूँगी ही.... अरे, सुनना दुकान वाले भैया... ज़्यादा लूँ, तो डिसकाउंट मिलेगा ? (कौन बार-बार आएगा)
कुछ लोग कित्ते दुष्ट होते हैं, न ! सुधरते ही नहीं ! :D

MORAL : उम्र ज़्यादा होने से समझदारी नहीं आ जाती... ! hey, look.. I m trying वो भी happily  :)

प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

आख़िरी ख़त (लघुकथा)

शनिवार को मैंने तुम्हें एक ख़ास बात कहने के लिए ही कॉल किया था. मन-ही-मन कितना खुश थी मैं, कि जो बोलूँगी सुनकर तुम्हें भी बहुत अच्छा लगेगा और फिर अपने exams की तैयारी और बेहतर तरीके से कर सकोगे. पर अपनी रूचि की बात सुनी तुमनें और फिर तुरंत ही व्यस्तता का कहकर फोन रख दिया, जो कि मैं वाकई समझ सकती हूँ. बुरा तब लगता है, जब तुम कहने के बाद भी कॉल रिटर्न नहीं करते. क्या हो जाएगा, यदि किसी दिन ५ मिनिट देर से चले जाओगे तो ? रोज भी तो शाम तक ही जाते हो न ? आज तो वैसे भी जल्दी ही जाना होता है. खैर.....इंतज़ार का नतीज़ा वही निकला ! रात में बात हुई, तब भी तुमने नहीं पूछा..फिर मैंने ही बेशर्म होके याद दिलाया..और वहाँ न कह पाने की विवशता भी जाहिर की ! फिर मुझे सोमवार का इंतज़ार था, तुम्हें तब भी फ़र्क नहीं था, कि मैं क्या कहना चाहती थी, इसलिए जानना भी नहीं चाहा. हारकर मैंने फिर फोन लगाया, जो निरुत्तरित रहा..दोपहर तुमने बताया कि तुम ३ दिन के लिए बाहर हो, अचानक से प्रोग्राम बन गया था. खुशी हुई मुझे, कि अच्छा वक़्त बीतेगा तुम्हारा !

पर एक बात कहीं चुभ-सी भी गई, क्योंकि यही वो तय वक़्त था..जबकि मैंने तुमसे वहाँ आकर मिलना चाहा था और तुमने छुट्टी न मिल पाने की असमर्थता जाहिर की थी. बात इतनी सी ही होती, तो भी बर्दाश्त थी..पर जब तुमने अपने मित्र को यह कहा, कि तुझे महीने भर पहले ही तो बताया था..तो सच में बहुत-बहुत बुरा लगा.....'झूठ' ??? नफ़रत हुआ करती थी न, इससे तो तुम्हें..और आज मेरे से ही...क्यों ??? महीनों पहले से ही तुम्हारा मुझे टालना, दूरी बनाना देखती आ रही हूँ, रोज मरी हूँ, अब भी मर ही रही हूँ..और मेरी फूटी क़िस्मत ने अब परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी हीं बना दीं.....कि अपने ही घर में नज़रबंद हूँ ! पर मैंनें हिम्मत नहीं हारी, तुम तक पहुँचने की हर कोशिश की और तुम ऐसे हर इरादे पर पानी फेरते चले गये. गुरुवार को फ्रस्ट्रेशन में आकर मैंने फिर एक ग़लती की..जिससे तुम मुझे कभी देख ही ना सको..खुश रहो,  हमेशा के लिए..पर तुरंत ही मुझे इसका अहसास हुआ..कि फिर मैं भी तुम्हें नहीं देख सकूँगी..कैसे रहूंगी फिर !! और फिर मेरा एक कॉल तुम तक गया....खुशी हुई कि तुमने दोस्ती स्वीकार करी !

अचानक तभी ही तुम्हें, मेरी वो बात भी याद आई..और तुमने जानना चाहा, मैंने मना किया क्योंकि अब उस बात की उपयोगिता ही नहीं रह गई थी..खैर, तुमने कहा कि तुम सुनना चाहते हो..पर मेरे यह कहते ही कि "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती" तुमने झट से फोन रख दिया, बाद मैं बात करते हैं, कहकर....वो बाद अब तक नहीं आया ! ये जानते हुए, कि अगले दिन छुट्टी है, तब भी तुमने घर जाते हुए मुझसे बात नहीं की, मैं रोती ही रही इधर....हाँ, उस दिन रात में तुम्हारी औपचारिक बात से मुझे अंदाज हो गया था, कि अब तुम्हारी दुनिया में मेरी जगह किसी और ने ले ली है ! क्योंकि तुमने तब भी नहीं बताया, कि मेरी बात पर तुम्हें क्या कहना है. लेकिन मेरी एक बात का यक़ीन ज़रूर करना कि मैंने तुम्हें कभी कुछ न भी  दिया हो पर तुम तक पहुँचने के लिए सब कुछ छोड़ा है...

मैं हमेशा से ही Giver रही हूँ, पर ऐसी तक़लीफ़ कभी नहीं हुई, पहली बार कुछ पाना चाहा था..ज़्यादा नहीं, बस थोड़ा ही ! ये अलग बात है, कि तुम्हें मेरा थोड़ा भी ज़्यादा लगा. यदि तुम्हारा झुकाव किसी की ओर बढ़ रहा है, तो कमी मेरे प्यार में ही रही होगी...पर इससे ज़्यादा करना या कहना मुझे आता ही नहीं. मैं तुम्हारे लायक भी नहीं, किसी के भी लायक नहीं..वरना इतनी उम्र बीत जाने पर भी कोई तो होता, जिसने मुझे चाहा होता..जो मेरे लिए यूँ ही व्याकुल होता, यूँ ही मुझसे मिलने को तड़पता..मैं सच में दिन में ख्वाब देखने लगी थी..दोष तुम्हारा नहीं, मेरी इन अधूरी आँखों का है.....पर अब कोई ग़म नहीं, वरना हमेशा यही सोचा करती थी कि मुझे कुछ हो गया, तो कैसे रहोगे तुम, कौन ख्याल रखेगा, कौन बेवजह समझाएगा..कि अपने खाने-पीने का ध्यान रखना, टाइम टेबल फॉलो करना, exercise करना, पढ़ने को भी वक़्त निकालो, पीठ-दर्द का इलाज कराओ, acidity की प्राब्लम बार-बार क्यूँ हो रही है..अच्छे डॉक्टर को दिखाओ.......पर अब मरी तो इस तरह की फ़िक्र न हो शायद..'शायद' इसलिए क्योंकि मुझे खुद मेरा भरोसा नहीं रहा, हो सकता है कभी ना सुधर सकूँ.......पर जहाँ हो, जैसे हो, जिसके साथ हो..स्वतंत्र हो तुम ! मैं अब तुम्हारा पीछा नहीं करूँगी, मुश्किल है, लगभग नामुमकिन सा ही.....तुमने कहा भी था एक बार कि 'उम्र ज़्यादा होने से समझदारी ज़्यादा नहीं आ जाती' सच है, मैं अब समझदार होना भी नहीं चाहती........पर उस दिन जब तुमने ही कह दिया....."पहले भी जी रही थी ना" सो जी ही लूँगी..अच्छी रहूं या बुरी...अब तो बस मेरा 'होना' ही काफ़ी है......!

तुम्हारी भी नहीं कह सकती...ये हक़ तो अब तुमने......लेकिन 'मैं' आज भी 'तुम्हारी' हूँ......रहूंगी, जब मिलो तो 'जान' कहकर ही पुकारना..जीवित होने का एक वही अहसास आज भी सलामत है, इस शब्द से जुड़ा हुआ...

सिर्फ़ सौदामिनी

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ULLU BANAAVING


१ अप्रैल, २०१४
'मूर्ख-दिवस' , ह्म्‍म्म्मम...... !  कित्ता बुरा लगता है न, जब कोई अपने को उल्लू बनाए ! थोड़ी सी शर्म भी आती है, कि हाए राम, हम तो खुद को इत्ता हुसियार समझते हैं और इसने कैसे ठग लिया ! फिर मन-ही-मन उससे बदला लेने का प्लान करते हैं, पर सेम टाइम होने की वजह से अपुन का प्लान तुरंत ही फेल हो जाता है ! और तब खिसियाते हुए अपनी बत्तीसी निपोरना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है ! :)

हुन्ह, हामी भरने की कोई ज़रूरत नहीं !  :/ बुरा लगता है, तो इतने सालों से इन भ्रष्ट, झूठे लोगों को ( सिर्फ़ नेता ही हों, ज़रूरी नहीं, झूठ तो हर तबके के लोग बोलते हैं, ये तो बस Expert हो गये हैं) बर्दाश्त क्यूँ कर रहे हो ?? ये सब बड़े खुश होंगे आज तो, कि हम बरसों से सब को कैसे ' ULLU BANAAVING ', वो भी बिना IDEA Network के !  :D

आज तो मातम का दिन है,  हिन्दी में बोले तो - "विश्वास टूटन दिवस" !    :P :D

प्रीति 'अज्ञात'

काश !

काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता, फिर न कुचले जाते ये इस तरह, हर बार, हर जन्म में ! एक जीवन में पलकों तले पलते हुए अनगिनत स्वप्न जोड़ लेते हैं, खुद ही उछलकर, उम्मीदों का ताना-बाना ! ये अक़्सर एकतरफ़ा ही हुआ करते हैं, फिर भी घसीट लाते हैं दूसरे पक्ष को जबरन अपने साथ कि पूरे न होने पर दोषारोपण के लिए कोई तो हो ! गुज़रते हैं जीवन के तमाम झंझावातों के बीच से और दो पल साँस लेने को ज्यों-ही ठहरते हैं कहीं, समय आकर बेरहमी से उनका गला घोंट दिया करता है; नोच लेता है बोटी-बोटी उनकी कि कराहने की ताक़त भी बाक़ी न रहे उनमें और वो ध्वस्त हो जाएँ हमेशा-हमेशा के लिए !
" काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता"
काश, हर सपना अपनी मौत मरता ! सुनिश्चित अवधि पूरी होने पर, कुछ पल और जी लेने के बाद ही !
* एक आधी-अधूरी कहानी के कुछ अंश ( Unedited )

प्रीति 'अज्ञात'

:(

सत्य अक़्सर ही कोने में छुपा अकेला सूबकता है, लोग झूठ की तलाश में व्यस्त जो रहते हैं ! सत्य कायर तो नहीं है ,ये ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही आशावादी हैं , तभी तो चुप हो बैठ जाता है, और झूठ की प्रतिरोधक-क्षमता इससे कहीं ज़्यादा दिखाई पड़ती है. जो दिखता है, उसे ही दुनिया भी सच मान लेती है, क्योंकि असली मज़ा तो उन्हें झूठ ही देता है. 
एक जीवन सरल सा.......ज़िंदगी बेहद मुश्किल !

प्रीति 'अज्ञात' —

शनिवार, 29 मार्च 2014

स्वप्न की दहलीज़ पर (लघु-कथा)



वो बरसों तक उसी दहलीज़ पर ही थी. भरे हुए नयनों से बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर शब्द गले तक आकर ही अपना दम घोंट लिया करते थे. कभी दो-चार अक्षर सकपकाकर बाहर आए भी, तो तिरस्कार ने तुरंत ही बेरहमी से उनका दमन किया. कहते हैं उसकी मुस्कान सबका दिल जीत लेती थी, लेकिन उसके दिल पर क्या बीत रही है, ये जानने की ज़हमत किसी ने कभी नहीं उठाई. सबकी अपनी एक दुनिया है और उससे जुड़ी ख्वाहिशें ! पलटकर देखने का वक़्त किसके पास होता है ?

पता नहीं क्यूँ और कैसे उस एक इंसान से उसने अपना जीवन जोड़ लिया, दहलीज़ के भीतर से ही ! उसका आना, हँसना-हंसाना अब खूब भाता था, इसे. दोनों घंटों बातें किया करते, सुख-दुख साझा करते, एक-दूसरे के आँसू पोंछते तो कभी साथ ठहाका लगाकर हंसते, जी लेते थे मिलती-जुलती सी अपनी ज़िंदगी में. क्या अपनी खुशी से जीना जुर्म था ? वो इंसान जो उम्र-भर दूसरों के लिए जिया, क्या अपने लिए कुछ अपने-से पल नहीं सहेज सकता ? 

शायद नहीं....समाज में रहकर तो बिल्कुल भी नहीं ! 'समाज' जो विडंबनाओं से पटा पड़ा है, जो अपने ही नियम-क़ानून की अपनी सुविधा से रोज धज्जियाँ उड़ाता है, जहाँ जुर्म की आँधियाँ हर गली-मोहल्ले में खुले-आम चलती हैं, जहाँ एक कुत्ते के भौंकने पर गोली मार देने का हुक़्म दिया जाता है और इंसानों के क़ातिल सीना-ताने घूमते हैं, जहाँ ज़मीन-जायदाद की रखवाली के लिए लोग सारी रात जगा करते हैं, और वहीं कहीं कोने में किसी की अस्मत तार-तार होती है, जिसकी चीखें-चिल्लाहटें कर्त्तव्यों का रुमाल ठूँसकर दबा दी जाती हैं ! हाँ, यही स्वार्थी समाज...जीते-जागते लोगों के मरे हुए वज़ूद की दुनिया ! ये कुछ कमजोर और डरपोक-से सपनों को पल में ही मसल देती है, चींटी की तरह !

वो समझदार था, दुनियादारी से वाक़िफ़ भी. उससे इसकी ये हालत देखी न गई....सो, चला गया; अपने विकल्प के साथ ! 
वो भी चली गई, डूबती साँसों और अपने इस छोटे और अधूरे स्वप्न के साथ ! आज घर की दहलीज़ पर लाश है,उसकी. खुली हुई आँखें इंतज़ार की गवाह हैं, पर पैर घर के भीतर की ही तरफ.....उस पार न तो जा सकी और न ही जाना चाहा था उसने ! दोषी भी वही थी, स्वीकार लिया था उसने बुझे मन से. और हाँ, आज अपना 'समाज' भी हितैषी की तरह मौज़ूद है वहाँ, चुपचाप नये किस्से-कहानियाँ बुनता हुआ. कोई मीडिया को देख उदासी का ढोंग रच रहा है, तो कोई अकेलेपन से उभरी इसकी मायूसी को लाचारी का नाम देने में लगा है. किसी ने इसे राष्ट्रीय क्षति बताकर जाते-जाते इज़्ज़त देने की कोशिश भी की. वहीं अंदर गहनों का हिसाब-किताब चालू है. कुछ बच्चे बेतरह रो रहे हैं, उन्हें ढाँढस बंधाने के लिए किसी ने उनकी खाने की थाली में एक चॉकलेट रखकर सरका दी है. सुना है, कोई वकील भी आया है, मृत्यु के प्रमाण-पत्र का काग़ज़ लेकर.....!
काश ! उसकी आँखें कभी कोई सपना न बुनतीं...काश! नींदों में ख़्वाब शामिल न होते...काश  सपनों और ख़्वाहिशों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता ! काश ! ये काश न होता !

प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 23 मार्च 2014

'एक राष्ट्र, एक सोच....एक दल'

राजनीति और इससे जुड़ी बातें मुझे आज तक समझ नहीं आईं. जितना ही समझने की कोशिश की और उलझती चली गई. एक तरफ तो सभी पार्टियाँ राष्ट्रीय-एकता और राष्ट्र-हित की भावनाओं का समर्थन करतीं हैं, वहीं दूसरी और उन्हें आपस में ही लड़ते और व्यक्तिगत हितों के लिए आम जनता को हर संभव तरीके से बेवकूफ़ बनाते हुए भी देखा जा सकता है.
न जाने कितने करोड़ रुपये तो चुनाव प्रचार के नाम पर ही पचा लिए जाते हैं. मीडिया और हम सबका समय व्यर्थ गया, सो अलग ! और परिणाम ???? वही चुने गये लोगों के प्रति आक्रोश जताती जनता !

कितना अच्छा हो, अगर इतने सारे दल ही न हों. हमारे नेता भी 'दल-बदलू' के ठप्पे से बच जाएँगे. बस एक ही पार्टी हो - 'राष्ट्र-हित पार्टी' ! हर राज्य में एक ही तरह की सकारात्मक सोच वाले लोगों की सत्ता ! इनमें गाँधी जी की सच्चाई हो, भगत सिंह सी देश-भक्ति और मंगल पांडे सा जुनून ! बहुत से उदाहरण हैं, गर लिखने बैठे तो ! पर आज के सन्दर्भ में एक ऐसी पार्टी की कल्पना नहीं की जा सकती क्या , जिसमें अटल जी जैसी संवेदनशीलता, अब्दुल कलाम जी जैसी दूरदर्शिता, मोदी जी सी कर्मठता, केजरीवाल जी की तरह परिवर्तन की ललक, राहुल गाँधी की युवा सोच और अन्ना जी की सहनशीलता वाली विचारधारा के लोग शामिल हों ! ये सभी लोग ही अपना-अपना राग, धर्म और आपसी द्वेष छोड़कर क्यूँ नहीं 'एक' हो सकते ??? अगर वाक़ई देश की फ़िक्र है, तो इस सन्दर्भ में सोचना ही होगा...... "एक राष्ट्र, एक सोच, एक दल" और इसका मक़सद - शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधाएँ सभी देशवासियों के लिए उपलब्ध कराना और भारत को एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार-मुक्त राष्ट्र बनाना ! ग़रीबी अपने आप ही दूर हो जाएगी !

* शायद आप सभी को यह एक सपना ही लगे, पर जो सोचा जा सकता है....उसे पूरा भी किया जा सकता है ! वर्षों पहले कौन इस बात पर यक़ीन करता, कि घर बैठे-बैठे ही हम दूसरे शहर, देश में रहने वाले प्रियजनों को देख सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं ! बात सिर्फ़ 'सोचने' की ही है, संभव सब है !

प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 16 मार्च 2014

'ज़िंदगी'....जीने के लिए ही तो बनी है !

'आत्महत्या' एक प्रकार की हत्या ही है. फ़र्क बस इतना ही है, कि इसमें इंसान अपने मरने के तरीके खुद चुनता है; माहौल तो दूसरे या उसके अपने ही तैयार कर देते हैं. 'हत्या' में, हत्यारे को उस व्यक्ति की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं; इसलिए वो उसे मार डालता है. 'आत्महत्या' में, ख़ुद ही पता होता है; कि उपस्थिति के कोई मायने ही नहीं ! एक नज़र से, यही ज़्यादा समझदार सा लगता है या फिर कोई बहुत ही बड़ा बेवकूफ़ !

मैं हमेशा से ही 'आत्महत्या' करने वालों से नफ़रत करने वाली और इस कृत्य की घोर विरोधी रही हूँ, क्योंकि मुझे लगता आया है; कि उन्हें उन अपनों की परवाह ही नहीं, इसीलिए ये कायरता भरा कदम उठाते हैं. लेकिन कभी-कभी एक अप्रत्याशित सी सहानुभूति भी होती है, उनसे ! हो सकता है, उन्हें भी यही महसूस होता हो; कि अपनों को ही उनकी फिक़्र नहीं ! अगर मरने से पहले, कोई उन्हें ये अहसास करा देता कि उनकी मौजूदगी कितनी अहं है..तो वो शायद कभी ऐसा करते ही नहीं ! काश, कोई किसी को कभी ऐसा करने को मजबूर न करे ! दिल से न सही, एक 'भ्रम' की तरह भी कोई, किसी का हमेशा के लिए हो सके....तो कुछ ज़िंदगियाँ, कुछ वर्ष और जी सकें ! अकेलापन भी मार ही देता है, इंसान को ! ये 'मौत' भीतर ही होती है, हर रोज ! कभी समाज का भय, तो कभी व्यक्ति-विशेष से बिछोह का. कभी किसी की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाना बुरा लगता है, तो कभी अपने ही उत्तरदायित्वों के निर्वाह में कमी सी लगती है. 'अपेक्षा' और 'उपेक्षा' दोनों ही हर रूप में घातक हैं. इनसे बच गये, तो भाग्यशाली हैं. वैसे ऐसा हो पाना भी मुश्किल सा ही है.

'एकला चलो रे.....' सुनने में अच्छा ज़रूर लगता है, पर कौन, कब तक, कितनी दूर तक अकेला चल पाया है..इसका हिसाब-किताब कहीं नहीं ! हाँ, जिसने भी इस मंत्र को समझ लिया, वही जी गया.... ! कतरा-कतरा ज़िंदगी तो रोज ही बिखरती है, और रोज ही उसे समेटना भी ज़रूरी है. बहुत रहस्यवादी है, ये दुनिया और इसमें बसे सभी लोग. क़िस्मत वाले हैं, वो .......जो इसमें खुलकर हँस लेते हैं ! कौन जाने, उस हँसी की तहों में, कितने दर्द दफ़न हैं !
खैर....ख़ुदा करे, आपके सभी अपने, आपके करीब और हमेशा सलामत रहें ! 'ज़िंदगी'....जीने के लिए ही तो बनी है! इससे कैसी नाराज़गी !


प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 10 मार्च 2014

लत लग गई...... :P

लोग कहते हैं, कि लड़के हमेशा लड़कियों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाया करते हैं. पर मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि ये प्रथा तो हमारी पृथ्वी जी ने शुरू की है. :P देखो तो ज़रा, बरसों से सूरज के चारों तरफ चक्कर लगाए ही जा रही है और अब तक हार नहीं मानी. लेकिन इस दुष्ट 'सूरज' को आजतक ये बात समझ नहीं आई दिखती है, जब देखो तब लाल-पीला हुए आएगा और जाते समय भी वही अकड़! दिन में भी तमतमाया ही घूमता है! :/ हद है, इत्ती ऐंठ किस बात की ? कभी तो 'Down To Earth' हो जाओ रे! :) तेरा कित्ता इलाज करवाया, गॉगल्स (बादल) भी लगवाए. पर तेरा कुछ नहीं हो सकता, दूर रहकर जलाया ही कर बस! ध्यान रख, मेरे बिना तू भी बहुत बोर होगा, क्या करेगा वहाँ अकेला आसमान में टॅंगकर! खैर, जा अभी तो; शाम के ७ बजने को हैं, अब कहीं जाके डूब ही मर ! हाँ, नहीं तो.....! :P :D

Moral : ओये, आ जइयो कल फिर से... Same time, Same satellite. , उफ्फ्फतेरी आदत जो पड़ गई है. :)

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

होता है, जी....

कई बार ऐसा होता है न, कि कोई इन्सान हमें अपने-आप से भी ज़्यादा ज़रूरी लगने लगता है, हर-वक़्त जेहन में वही एक नाम घूमता रहता है और जो कहीं वो नाम लिखा भी दिख जाए, तो दिल की धड़कनें अचानक बढ़ जाती हैं, चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान छा जाती है और फिर हम अचानक सामान्य दिखने की भरसक कोशिश भी करते हैं. डर जो लगता है कि कोई हाल-ए-दिल पढ़ न ले. उफ्फ...ऐसे FATTU बनने की क्या ज़रूरत है? जिस प्रेम को पाने में लोगों की उमर बीत जाती है, आप उसके बेहद करीब हैं, बस उस एक शख़्स से कहना ही तो शेष है.....जाओ, कह दो आज ही जाकर उसे; "मुख्तसर सी बात है......." और हाँ, फिर थामे रखना उस हाथ को, विश्वास कभी टूटने न देना !
Trust Me , करूण रस के कवि बनने से बेहतर विकल्प है ये ! बाकी आपकी क़िस्मत, खुल गई तो हमारी दुआएँ आपके साथ और न खुली तो बद्दुआएँ क़बूल हैं हमें, पर कोशिश करने में क्या हर्ज़ है ! 
"एक जीवन: आधा बीत चुका दुनिया के हिसाब से.... अब तो जी लो बचा-खुचा, अपनी ख़्वाबों की किताब से"
प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

लौट आओ तुम (लघु-कथा)

नहीं मालूम, कि आज मैं ये सब क्यों लिख रही हूँ. मैं चाहती भी हूँ, कि तुम इसे पढ़ो और डर भी है..कहीं पढ़ न लो ! इसीलिए पत्र नहीं लिखा, सब कुछ किस्मत पे ही छोड़ दिया है. जीवन की इस भागा-दौड़ी ने हमें एक-दूसरे से बहुत दूर कर दिया है. न बातें होती हैं, न मिलना ही, पत्र लिखने की आदत तुम्हारी कभी थी ही नहीं...और जवाब न मिलने से निराश होकर अब तो मुझे भी बरसों हुए, चिट्ठी लिखे ! शायद 'जवाब न मिलना' ही मेरी नियति बन चुकी है. सब आकर हज़ारों प्रश्न करते हैं, मैं सहज भाव से उत्तर देने की कोशिश करती हूँ. पर फिर भी न जाने क्यों मेरे सवालों के आते ही वो उकताकर चले जाते हैं.

बचपन में तुम सही कहा करते थे, कि कम बकबक किया कर. मैं बोलती थी, कि सिर्फ़ तुम्हें ही तो कहती हूँ. कई बार इस फालतू सी बात पर ही हमारी मारा-पीटी हो जाया करती थी. मैं पर्दे के पीछे छिपकर या कई बार बेड के नीचे जाकर रोया करती थी. तुम मनाने नहीं आते थे, हंसते थे.. ये कहकर ' गईं फुल्लो रानी, कोप-भवन में'. न जाने कितने अजीब-अजीब से नाम रखे थे, तुमने मेरे. मुझे तो याद ही नहीं आता, कि तुमने मुझे मेरे नाम से कब बुलाया था !
हम कितनी ही चीज़ें शेअर किया करते थे. पढ़ाई की मेज़ भी हमने स्केल से बाँट रखी थी. और मेरा एक सेंटीमीटर भी तुम्हारे क्षेत्र में आना भयानक युद्ध का विषय हुआ करता था. कभी चोटी खींचना, कभी मेरा सामान गायब कर देना, मुझसे पहले बाथरूम में घुसके मुझे लेट कर देना और फिर जोकर की तरह हँसाना-रुलाना भी तुम्हें खूब भाता था. मुझमें हर वक़्त ऐब ही निकाला करते थे, लेकिन अपने दोस्तों के बीच बड़े गर्व से मेरी पेंटिंग दिखाते,कक्षा में सर्वोच्च अंक आने की शान मारते, और प्रतियोगिताओं में मेरे जीतने पर फूले नहीं समाते थे. लेकिन मुझे देखते ही झट से विषय बदल लेते, ये कहकर ' तू यहाँ क्या कर रही है ? जा अंदर जा, अपनी कुर्सी पे बैठ, किताबें इंतज़ार कर रहीं होंगी बेचारी', कुछ आता तो है नहीं, तेरे को. मैं खिसियाकर चली जाती थी, और गुस्सा भी होती थी, मन-ही-मन. लेकिन कुछ देर बाद तुम आकर ऐसे बात किया करते थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. मैं और चिढ़ जाती, फिर ठान लेती थी, कि अब कभी बात ही नहीं करूँगी. पर अगले दिन ही बेशरम बनके फिर बात शुरू. तुम कुछ भी कहते-करते, पर मैं मौका पड़ने पर हमेशा तुम्हारा साथ दिया करती थी. अब तो ये बात तुम भी मानते होगे न !

इतने बरस बीत गये हैं. दोस्त भी मिले-बिछुड़े, रिश्ते बने-टूटे, किसी से लड़ती ही नहीं, अब मैं ! जिन्हें दिल से अपना मानकर कभी नाराज़गी जाहिर की भीतो उन्होंने मुझे दिल से ही निकाल दिया ! किसपे गुस्सा करूँ, हक़ जमाऊं ? सब अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त हैं. किसी को किसी की ज़रूरत ही नहीं होती आजकल ! कोई नहीं पूछता, कि ये तरबूजे सा मुँह क्यूँ लटका है ! जा मोटी और खा ले ! 

बहुत मिस कर रही हूँ आज तुझे भाई ! वक़्त निकल जाने से पहले ही जान लो, हम सब बहुत प्यार करते हैं तुम्हें. आ जाओ अब तुम परदेश से, लड़ाई कर लेना मुझसे, जो चाहो कह देना, वैसे अब मैं बकबक भी कम ही करती हूँ, कोई मनाने वाला ही नहीं सो ,कोप-भवन में जाना भी छोड़ दिया है. चुप ही रहूंगी अब, पर तुम आँखों के सामने रहो. दो बरस में एक बार की बजाय अब एक बरस में दो बार मिलो. मेरे हिस्से की सारी मिठाइयाँ भी तुम्हारी, मैंने मीठा खाना ही छोड़ दिया है. और हाँ, मुझे चिढ़ाने के लिए बगीचे से एक-दो फूल भी तोड़ सकते हो, बस पौधा न उखाड़ना ! तुम्हें याद है, बचपन में एक बार जब मैंने तुमसे कहा था, कि भैया गुलाब में पहला फूल खिला है, तोड़ना मत ! तो तुमने पौधे को जड़ समेत उखाडकर मुझे तुरंत कहा, ओहो मतलब पूरा पौधा तो ले सकते हैं, ना ! फिर मैंने भी रो-रोकर कैसा कोहराम मचा दिया था. खैर..मैं और मेरी नौटंकी तो जग-जाहिर है. अब सुधरने की कोशिश कर रही हूँ, जानती हूँ तुम कहोगे, 'जिस दिन तू सुधर गई, देश सुधर जाएगा. मदर टेरेसा न बन' ! नहीं बन रही अब मैं कुछ भी. एक अच्छा इंसान बनने की जद्दोजहद ने बहुत कुछ सिखा दिया है....सिर्फ़ दोषी ही बन पाई हूँ, अब तक..सबकी नज़रों में !

ये कैसा सच है जीवन का, भाई-बहिन हमेशा साथ क्यों नहीं रह सकते ? सिर्फ़ कहने की बातें हैं, दूर रहकर भी सब साथ होते हैं. नहीं होते हैं, बिल्कुल नहीं होते, कभी नहीं होते..........! मिलना ज़रूरी है.....हर रिश्ते में !

प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

'इकतरफ़ा दोस्ती' कहानी का एक अंश

खुशक़िस्मत हो, जो इतने दोस्त हैं तुम्हारे ! जब जी चाहा, हाथ थामे घूमने निकल गये, घंटों फोन पर बातें कीं, या फिर यूँ ही जंगल में भटकते फिरे. उदासी के पलों में उनके काँधे पे सर रख चार आँसू भी गिरा सकते हो. या गले लग फूट-फूटकर रो भी सकते हो ! पर उसका क्या, जिसका कोई दोस्त ही नहीं ? वो तो सबको अपना मान बैठ उन्हें दिलासा दिया करती है, उनकी मायूसी तक भाँप लेती है, हर संभव कोशिश भी करती है: कि सबके होंठों पर मुस्कान रहे !
पर आज जब उसे तुम्हारी ज़रूरत है, तो कहाँ हो तुम ? क्या उसने तुम्हें परेशानी के पलों में एक बार भी अकेला छोड़ा ? तुम्हारी लाख नाराज़गी पर भी सब कुछ भुलाकर हर बार ही बावली सी दौड़ी चली आती थी. तुम्हारी हँसी में अपने हर ग़म को भूलकर कैसे खिलखिलाती थी वो, और तुम्हारे माथे पर चिंता की लकीरें देख कैसे मुँह बना बैठ जाती थी. कभी भगवान को कोसा करती, तो कभी उस इंसान को..जिसकी वजह से तुम चिंतित दिखते थे. चुपके से तुम्हारे लिए प्रार्थना भी किया करती थी, ताकि तुम हमेशा खुश, स्वस्थ, निश्चिंत रहो.
कहते हैं, 'प्यार एकतरफ़ा भी होता है' और 'दोस्ती' ? क्या वो भी एकतरफ़ा ? वो तुम्हारी दोस्त है, पर तुम उसके नहीं ? जानते हो ना, कि उसकी ज़िंदगी में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं ! रोएगी कुछ दिन कोने में अकेले बैठ, फिर आँसू पोंछ आ जाएगी वही फीकी सी हँसी लेके ! पता है उसे, कि तुम अफ़सोस भी नहीं जताओगे ; इसलिए तुम्हारे कुछ कहने के पहले ही सारी ग़लती अपने सर मढ़ लेगी और मुस्कुराते हुए वही चिर-परिचित शब्द कह देगी..'कोई बात नहीं' ! पर बात है, बहुत बड़ी बात है..समझो उसे ! टूट चुकी है वो बेतरह, हार गई है खुद से ! इस बार संभालना ही होगा तुम्हें उसे, क्योंकि अब बिखरी तो नहीं समेट सकेगी खुद को, जुदा हो जाएगी उम्र-भर के लिए ! बोलो...'खोना चाहते हो उसे' ?  आदत हो गई है न तुम्हें उसकी दोस्ती की ! लेकिन अकड़ भी है कि लौटकर खुद ही आएगी. इस बार नहीं आ सकी तो ? रह पाओगे उसके बिना ? फिर न कहना कि तुम्हें उसकी पीड़ा का अंदाज़ा नहीं था !किस बात से डरते हो तुम इतना ? कुछ नहीं चाहती वो तुमसेबस साथ रहो एक सुंदर अहसास की तरह न रखो ईर्ष्या, द्वेष या, प्रतिस्पर्धा का भाव उससे...उसकी कोमल भावनाओं को समझो ! आज भी उसे उम्मीद हैपर  मर रही है वो रोज, अब भी राहें ताका करती है उसकी; हाँ तुम्हारी ही.....अब कौन से सबूत का इंतज़ार है तुम्हें ?

'इकतरफ़ा दोस्ती' कहानी का एक अंश
प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

:)

कितने छुटकु से तो वाक्य हैं, 'कैसे हो?', "अपना ध्यान रखना". अँग्रेज़ी में बोले तो How are you ?, Take Care. पर इन शब्दों का एहसास कितना बड़ा होता है, यह सिर्फ़ सुनने वाला ही महसूस कर सकता है. एक अजीब सी खुशी दे जाते हैं, जीवन के ये सामान्य-से दिखने वाले, पर अदभुत पल. लगने लगता है, कि हमारे अलावा भी कोई और है; जिसके कारण ज़िंदा रहना ज़रूरी है. एक अजीब सी खुशी मिलती है और खुद पर इतराने को जी चाहता है. कुछ इस तरह की बातों को पागलपन भी समझते हैं, हुन्ह समझा करें, अपने को क्या ! :P

लेकिन ये भी सच है, कि जीवन की भागदौड़ी में हरेक के पास इतना पूछने का भी वक़्त कहाँ ! सुनते हैं, आजकल महँगाई बहुत है, सबके भाव बढ़ गये हैं. शायद शब्दों के भी.....या फिर....... ?
लोगों के ???? :/  :P  मैनें तो ऐसा नहीं कहा, वैसे कभी-कभी इल्ज़ाम लगाने में भी बड़ा मज़ा आता है. :D

बुधवार, 15 जनवरी 2014

कैसा ये इश्क़ है

'प्यार' बड़ा ही अनमोल सा शब्द लगता है, सिर्फ़ तभी तक; जब तक हुआ न हो. कुछ फिल्मों का प्रभाव और कुछ कल्पनाओं की उड़ान जब एक साथ परवान चढ़ते हैं. तो होशो-हवास ही गुम हो उठते हँ. मन अपने प्रिय के विचारों में खोया रहता है. चाहे . उम्र के किसी भी दौर में हो, पर असर वही रहता है. सोते-जागते, खाते-पीते, पढ़ते-लिखते कमोबेश हर वक़्त एक वही चेहरा जेहन में छाया रहता है. दुनिया उसी के आसपास ही सिमट आई हो जैसे, समझ ही नहीं आता कि इसे उस शख़्स को कैसे बयाँ किया जाए. कभी आसमाँ से भी ज़्यादा, कभी ज़िंदगी से भी ज़्यादा, तो कभी खुदा की बंदगी सा लगने लगता है इश्क़. पर इस मोहब्बत को अगर कायम रखना है, तो यहीं पर रुक जाना चाहिए......
एक बार इज़हार-ए-मोहब्बत कर दिया, बस उसी पल से हक़ीक़त की मुश्किल ज़मीं से सामना होना शुरू हो जाता है. अपेक्षाएँ जुड़ने लगती हैं और उन्हीं सही-ग़लत सी अपेक्षाओं के पूरा न होने पर दर्द पनपता है, जो कभी ईर्ष्या तो कभी अवसाद के रूप में आँखों से रिसा करता है. खुशकिस्मत हैं वो लोग, जिनके प्यार को उनके हर दर्द का अहसास हुआ करता है और वो उसकी खुशी के लिए अपने व्यस्त लम्हों में से कुछ पल चुरा लिया करते हैं.
वरना उम्र-भर का वादा निभाने का दावा करने वालों को भी प्राप्य के बाद कोफ़्त होने लगती है, उसी इंसान की बातों से; जिसके साथ घंटों वक़्त का पता तक न चलता था. घुटन देने लगता है उन्हें वही साथ; जो कभी सुकून हुआ करता था.जिन शब्दों और भावों की तारीफ़ में वो कसीदे पढ़ते नहीं थकते थेअचानक वही बेहद बचकाने और अपरिपक्व लगने लगते हैंउन्हें एक ही झटके में अनदेखाअनसुना कर दिया जाता है. कहते हैं, प्यार का दर्द बड़ा मीठा हुआ करता है, लेकिन ये भी तो सच है कि इस मिठास को सहन करने की भी एक सीमा होती है. वरना अंत में अक़्सर ही लोग ये क्यूँ कहा करते हैं...इश्क़ वही है, जो मैंने उससे किया और उसने किसी और से, और रह गया ये सिर्फ़ एकतरफ़ा जुनून बनकर, हाँ, जुनून ! जिसकी अगली सीढ़ी पर पागलपन आपका इंतज़ार कर रहा होता है...जाइएअगर हालातों ने यहाँ तक पहुँचा ही दिया हैतो मिल लीजिए इससे भीख़ुदाआप सभी को सलामत रखे और किसी के इश्क़ में गिरफ्तार भीजीने की यह एक खूबसूरत वजह भी तो है !
."कैसा ये इश्क़ है, 
 ग़ज़ब का रिस्क़ है".

 प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

हम नहीं सुधरेंगे..

 क्या किया जाए, ऐसे प्राणी का...
* गीला तौलिया पलंग पर (कब तक बर्दाश्त किया जा सकता है..)
* गंदे कपड़े, बास्केट के कदमों तले ( निशान छोड़ना ज़रूरी है, न..कि देखो..हमारे पास वाली टोकरी में ही हमें रखना है)
* मोजे, जूते के अंदर न होकर हर असंभव जगह..और जूता? उसे शेल्फ को पार करते हुए सोफ़े के नीचे खिसका देना इनका परम धर्म है (वहाँ रखने से जूते अदृश्य हो जाते हैं क्या?)
* खाने की थाली सिंक के ठीक बाजू में कुछ इस तरह रखी जाती है, मानो थाली ने ही मना कर दिया हो,,कि "आप रहने दो जी, मैं खुद ही अंदर कूद जाऊंगी".
* सुबह उठते से ही चाय के लिए हंगामा, और जब बन जाए तो आधे घंटे बाद ऐसे पधारना, गोया कोई मजबूरी में दवाई पीनी पड़ रही हो.
* खुद के किसी कार्यक्रम में जाना हो, तो सुबह-शाम वक़्त पर तैयार होने का बुलेटिन जारी रहता है और हमारे साथ कहीं जाना हो, तो पूरे घर के तैयार होने के और समय पर पहुँचने की अपनी आदत की हज़ार दुहाईयाँ देने के बाद भी यूँ देखते हैं...."अच्छा, आज ही जाना था, मैं तो २ मिनट में तैयार हो जाता हूँ. तुम्हें ही वक़्त लगता है"! (सीधा-सीधा ताना है, जी)
* जब उनकी पसंद की कोई ख़ास डिश बनाओ, तो एन-डिनर के वक़्त फोन आता है...."मेरा आज बाहर खाना है"
  पर तुमने पहले क्यूँ नहीं बताया कि बाहर खाने वाले हो ?
  उत्तर- तुमने भी तो नहीं बताया, कि ये बनाने वाली हो!
  पर मैंने सोचा सरप्राइज़ दूँगी.
  उत्तर- हो गया ? कोई नहीं, कल खा लूँगा. फ्रिज किसलिए होता है! (हाँ, इसलिए होता है.कि आज बनाओ, रात भर सड़ाओ और अगले दिन खाओ...इससे विटामिन बढ़ जाते हैं न)
* शॉपिंग-मॉल में खुद की ड्रेस लेनी हो तो घंटों रिसर्च (जबकि लेना उन्हीं ४ गिने-चुने रंगों में से तय रहता है, और हमारी राय पर यूँ हिक़ारत से देखा जाता है, कि इसे रंगों की समझ न जाने कब आएगी). पर हमें कुछ लेना हो तो तुरंत ही जवाब.."सुनो, तब तक मैं दूसरे सेक्शन में होकर आता हूँ". दूसरा सेक्शन मतलब वही बोरिंग गेजेट्स वाला! जबकि अब तो सरकार ने भी घर को एक मिनी-इलेक्ट्रॉनिक स्टोर घोषित कर दिया है.
               उफफफ्फ़ ! सात जन्मों का वादा ? एक ही जन्म में दिमाग़ का दही हो गया! और सबसे ख़ास बात...ये लोग नियमित रूप से अनियमित होते हैं, बोले तो....'Regularly Irregular'
अब क्या ये भी बताने की ज़रूरत रह गई है, कि यहाँ किस प्रजाति की बात हो रही है !! 
जो हैं, वो इस वक़्त मुस्कुरा रहे हैं.
जिन पर बीत रही है, उन्हें भी थोड़ी तसल्ली हुई.....कि उनके अलावा भी बहुत से लोग हैं यहाँ !
और जिनकी समझ में ये बात आई ही नहीं..उनके भारतीय होने पर धिक्कार है, जी !

प्रीति 'अज्ञात'

PROUD TO BE AN INDIAN !

India is a SECULAR country ! Oh, yeah..We all know that ! How ?? Coz it is written in our constitution. The Bitter Truth....It's only on paper ! We all have seen it, again n again that whenever a person does something wrong or any kind of crime, the so called intellectual people start blaming on his/her religion. Sometimes, they also give examples, that...look, last time the other person did the same crime, but did not get any punishment, coz; he/she belong to a perticular religion. How mean n shameful !!

Why don't we understand this simple thing, that NO RELIGION TEACHES OR SUGGESTS US TO BECOME A CRIMINAL OR SUPPORT TO INDULGE IN ANY KIND OF SUCH ACTIVITY. IT'S THE PEOPLE, WHO ARE BAD, NOT THE RELIGION !

Come on INDIA, WAKE UP ! Few people (Read Politicians) of our society are spreading rumours and taking full advantage of innocent Janta's Mind. They are doing it for their own good. In true hindi."Rajneetik rotiyan seki jaa rahi hain". Identify them. Do not believe in whatever they say.Negative thoughts from such people are only destroying India, Our Own Country, The Motherland !

Let India Shine, in it's original form. Spread positiveness in your area. Come together, unite !
PROUD TO BE AN INDIAN !
JAI HIND !
Preeti 'Agyaat'

ऐसा भी होता है...The Frustrated One !

ये पोस्ट किसी व्यक्ति विशेष के बारे में ना होकर, एक समुदाय के बारे में है. एक ऐसा वर्ग जिसने इस समाज को बुरी तरह से निराशावाद के गर्त में धकेल दिया है. ये लोग हमारे-आपके जैसे ही दिखते हैं. सर्व-व्याप्त हैं, और हमारे अपने घर, गली- मोहल्ले में पर्याप्त मात्रा में पाए भी जाते हैं. क्षमा चाहूँगी, पर आज मैं 'कुंठाग्रस्त लोगों' की बात कर रही हूँ, The Frustrated One !  
इनका गुस्से में धधकता चेहरा, आँखों में छलकता रोष, और मुस्कान तो ढूँढे से भी ना मिले, यही इनके पहचान-चिह्न हैं. मुझे इन लोगों से कोई भी परेशानी तब तक नहीं, जब तक ये अपने गुस्से का और उससे निकलने वाली ऊर्जा का प्रयोग किसी सकारात्मक कार्य में करें. जैसे घर की सफाई, बगीचे का काम या फिर कार्यालय के कामों को शीघ्र ही निबटा देना. अपनी परेशानी किसी अपने से ही साझा करें. इस ग़रीब जनता ने आपका क्या बिगाड़ा है, जो इस तरह बरसते हैं.
 
'बॉस' घर से नाराज़ होकर आया है, और बरसेगा अपने जूनियर्स पर, और वे बेचारे सर झुकाए सुनते रहेंगे, कि कहीं नौकरी पर ना बन आए. फिर ये लोग खुद भी बिल्कुल वही करेंगे अपने पति या पत्नी के साथ ( हाँ, जी..जमाना बदल गया है. पत्नियाँ भी बराबर टक्कर देती हैं :P ) उसके बाद बारी आती है, निरीह, अबोध बच्चों की. माँ-बाप उनके हाथों से रिमोट छीनकर तुरंत टी. वी. बंद कर देते हैं, और साथ में प्रवचन तो जाहिर तौर पर जारी रहता ही है. ये बच्चे भी कम नहीं, भाई-बहिन एक दूसरे पर मारामारी या खिलोनों की तोड़ाफोड़ी से तुरंत ही बदला लेना शुरू कर देते हैं. अंतत: भुगता किसने ???और शुरुआत कहाँ से हुई थी ??? और ये प्रक्रिया अनवरत चलती ही रहती है. फिर हम एक सुर में गाते हैं, हो रहा 'भारत-निर्माण'.हो गया जी, बस 'स्वर्ण युग' आने ही वाला है. हुह्ह्ह्ह.... इस माहौल में पले-बढ़े बच्चे भी भविष्य में यही सब करेंगे. रुकना बड़ों को ही होगा. अपने अंतर्मन में झाँकिए, टटोलिए अपनी ग़लतियों को, फिर किसी और को दोषी ठहराने की ज़हमत उठाइए !
 
बचपन की स्कूल की कुछ घटनाएँ आज भी झकझोर के रख देती हैं. हमारे यहाँ एक 'बड़े सर' हुआ करते थे. (नाम भी याद है मुझे उनका, पर वो अब इस दुनिया में नहीं, सो जाने दीजिए) उनका बड़ा ख़ौफ़ हुआ करता था. वो कभी-कभार ही कक्षा में आया करते थे. पर उनकी छवि बच्चों के बीच एक आतंकवादी से कम नहीं थी. आते ही तीन-चार बच्चों को मुर्गा / मुर्गी बना देना उनका सामान्य शिष्टाचार हुआ करता था. फिर अतिरिक्त सम्मान हेतु वो कुछ लड़कों को छड़ी से भी मार दिया करते थे, ये कतई ज़रूरी नहीं था, क़ि उन लड़कों ने कोई शैतानी की ही हो, बस उन बेचारों की इमेज खराब थी और सर का मूड. एक लड़के को तो हर बार उल्टा लटकाकर डराया करते थे, और पूरी क्लास सहम जाया करती थी. किसी में हिम्मत नहीं थी, क़ि उनके खिलाफ एक शब्द भी कह सके. वैसे भी ये तब आम बातें ही हुआ करती थीं.
 
कुछ मुझ जैसे प्राणी भी थे वहाँ, जो केवल पढ़ाई से ही मतलब रखा करते थे. पर हम पर भी उनकी कृपादृष्टि अक़सर हो ही जाया करती थी. वो हमारी जगह बदल दिया करते थे. यानी अपने दोस्तों के पास से उठकर दूसरी जगह बैठने का निर्देश. हम उदास मन से बस्ता उठाए चले तो जाते थे, पर फिर दूर से ही सब अपने-अपने दोस्तों को टुकूर-टुकूर देखा करते. दिल करता था, चीख-चीखकर कह दें...' क्यूँ बदली मेरी जगह ?? मुझे मेरा वही स्थान चाहिए, मैने आख़िर किया ही क्या है ? मेरा कोई भी दोष नहीं, नाराज़ आप हो, किसी और ही बात से, पर बदला मुझसे ले रहे हो !" पर टीचर की कड़कती आँख और 'बड़े सर' द्वारा पुन: अपमान के डर से चुप ही रहते. आखों में आँसू ज़ज़्ब किए, वहीं ज़मीन पर उंगलियों से चित्र उकेरा करते. बुरा तो तब भी लगता है, जब अभी भी वही सब कुछ होते हुए देखती हूँ.....प्रगति सिर्फ़ इतनी सी हुई है, कि अब शब्दों में ढाल लिया करती हूँ. पर उससे क्या होता है, अगर फ़र्क ही ना पड़े तो........ :( 
बाकी तो क्या...सब कुशल-मंगल है !
 
प्रीति 'अज्ञात' 

मैं पागल..मेरा मनवा पागल

ये मन बड़ा अज़ीब सा होता है. जब कोई दुख आए, तो हमेशा यही सोचा करता है,कि हाय ! मेरी तो किस्मत ही खराब है. सिर्फ़ मेरे ही साथ ऐसा क्यूँ होता है. बस यही दिन और देखना बाकी रह गया था, मुझे आज ही उठा ले, इस दुनिया से ! और भी ना जाने, क्या-क्या ऊलजलूल सी बातें ! मैं तो भगवान के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने से भी नहीं झिझकती. मान ही लेती हूँ, कि वो हैं ही नहीं ! लेकिन उससे भी ज़्यादा आश्चर्य की बात ये है कि, जब हमारा कोई अपना बेहद परेशान, दुखित, व्यथित होता है. उस वक़्त हम खुद ही ये दुआ कर रहे होते हैं, कि उसकी परेशानी हमें मिल जाए, क्योंकि हम तो कुछ भी झेल सकते हैं. इतने मजबूत हृदय वाले हैं, काश, वो दर्द हम बाँट पाते ,पर उसके चेहरे की उदासी देखी नहीं जाती ! मतलब यही हुआ ना, कि हम सभी बड़े-से-बड़े तूफ़ानों से भी टकरा जाने की हिम्मत रखते हैं, गर हमारे साथ कोई हो और उसे भी इस बात पर इतना ही यकीन हो. दुनिया के किसी भी कोने में , कहीं भी कुछ भी ग़लत हो, उसपे सबसे पहले बैठ के मैं रोया करती थी, ये उदासी बेमतलब की तो कतई नहीं थी. अभी भी हुआ करती है. पर जो हमारे बस के बाहर है, उस पर रोने से क्या फायदा ?? बेहतर यही है, हम एकजुट होकर उससे लड़ने के उपाय तलाशें. बस यही सोचकर, आज से मैने भी बेवक़्त की उदासी को उछालकर बाहर फेंक दिया है. सूबक रही है, वो खुद एक कोने में खड़ी, मातम मना रही है अपने अकेलेपन का ! मालूम हो गया अब उसे भी, कि पास आई तो धज्जियाँ बिखेर दूँगी उसकी ! और तुम तक तो पहुँचने ही नहीं दूँगी उसे !!  
* उम्मीद है, मेरे अपने भी यही करेंगे !  
* तुम्हें भी धन्यवाद ! 
 एक गीत की हत्या की है, अभी-अभी ----- 
"जब भी मिलती है, अजनबी लगती क्यूँ है ! 
ओये, ज़िंदगी !! तू इतनी ओवर-एक्टिंग करती क्यूँ है !" 
 
प्रीति 'अज्ञात' 

Planet Facebook

फ़ेसबुक की माया 

आज हम यादों की वादियों में भटक रहे हैं और स्मृति-पटल पर अंकित हो रहा है,वह दिन; जब इस नीलगगन के तले (मतलब फ़ेसबुक) हमारी एक नई दुनिया बसी थी! बड़ी ही अनोखी है ये दुनिया, जो यहाँ चैन से रह लिया वह विश्व के किसी भी कोने में आसानी से, शांतिपूर्वक जीवन बिता सकता है. हाँ-हाँ, ऊटॅकमॅंड, झुमरीतलैया और गंजटिनबारा में भी( ये विविध-भारती वाली याददाश्त जाती ही नहीं). 
 अब हम आपको बताते हैं, कि इस ग्रह पर किस-किस तरह के प्राणियों से सामना हो सकता है. हमने उन्हें कुछ श्रेणियों में विभाजित कर दिया है, जिससे नये विद्धयार्थियों को समझने में थोड़ी सुविधा हो!
  
1. नशेड़ी टाइप - ये फ़ेसबुक को पूरी तरह समर्पित लोग हैं. इसकी वज़ह से ये अपना खाना-पीना, दीन-दुनिया सब भुला देते हैं. होशो-हवास भी बस इसी क्षेत्र तक ही सीमित रहते हैं. कोई इंसान दिन में या रात में चाहे जितने भी बजे, जो भी स्टेटस डाले उसे सर्वप्रथम लाइक करने का गौरव इन्हें ही प्राप्त होता है. हर चार घंटे में प्रोफाइल फोटो बदलना इनका प्रमुख शौक होता है ( गोया किसी ने कह दिया हो कि, हर चार घंटे बाद आपके चेहरे पर एक अलग सा नूर छाता है). इन्हें दोस्त अवश्य ही बनाइए.
 
2. दीवाने टाइप - इसमें बहुत ही खास वर्ग और सोच वाले प्राणी शामिल किए गये हैं. ये काफ़ी अलर्ट रहते हैं, ज्यों ही किसी खूबसूरत लड़की ने 'हेलो' लिखा..एक सेकेंड के अंदर उसके अपडेट पर लाशें बिछ जाया करती हैं ,जी! 'मिस यू', 'लव यू', 'कब मिलोगी' जैसी भावनाएँ उमड़-उमड़ के आती हैं. ये बड़े ही दिलदार टाइप के होते हैं, पर कुछ अपनी असली पहचान छुपा के रखते हैं! अरे, माँ-पापा के डर से नहीं, बाकी गर्लफ्रेंड्स के डर से! हे-हे-हे !
 
3. दुखेड़ी टाइप - इन्हें हम प्यार से दुखी आत्माएँ भी कहते हैं.अपने हर ग़म में सबको शामिल करने की प्रथा इस समाज में वर्षों से चली आ रही है. काँटेदार पेड़, सूखे फूल, मुरझाया गुलाब, टूटा दिल जैसे प्रोफाइल चित्र देखकर इनकी पहचान आसानी से की जा सकती है. इनको 'आरक्षण' देना बनता है जी !! हम इस वर्ग को इसका हक़ दिलाकर रहेंगे. कृपया, इन्हें भूलकर भी इग्नोर ना करें!
 
4. शहंशाह टाइप - ये उच्च वर्ग के लोग हैं. इनकी हर छोटी-बड़ी, उल्टी-सीधी, घटिया-बेहतरीन बात को लाइक करना, शेअर करना और सकारात्मक कॅमेंट करना हम सभी का परम कर्तव्य है. शायद कभी इनकी नज़रें आप पर पड़ जाएँ और आपके भाग्य का ढक्कन खुल जाए. इसलिए ये अगर आपको धन्यवाद  भी ना दें , तो बुरा मत मानिए. व्यस्त लोग अपनी तारीफें पढ़ सकते हैं, पर जवाब का समय
उनके पास नहीं होता रे!
 
5. लवेरिया टाइप - फ़ेसबुक की असली रौनक, शानोशौक़त सब इन्हीं से है. ये बेहद भोले-भाले, निरीह जीव हैं, क्या करें...इनका खुद पर बस ही नहीं चलता! इन बेचारों को हर हफ़्ते एक नया प्यार होता है, ऐसा-वैसा नहीं, एकदम सच्चा वाला !!!! ये स्वभाव से बेहद मेहनती होते हैं. और नहीं तो क्या...पहले लड़की को फॉलो करो, फिर उसके सारे रिश्तेदारों, दोस्तों के कमेंट लाइक करके इंप्रेशन जमाओ. बड़ा ही मेहनत-मशक्कत वाला काम है जी ! क्या करें 'प्यार' चीज़ ही ऐसी है. वैसे इस सच्चे वाले प्यार की न्यूनतम अवधि एक सप्ताह, और अधिकतम ??? हा-हा-हा...आप तो सीरीयस ही हो गये !
 
6. महान आत्माएँ - ये दुखेड़ी समाज के ठीक विपरीत कार्य करते हैं. ये अपने अलावा सभी को बेहद तुच्छ नज़रों से देखते हैं. ये कभी किसी का कोई भी स्टेटस लाइक नहीं करते. वर्ष में एक-दो बार किसी को कमेंट देकर  धन्य महसूस करा देना इनकी प्रमुख विशेषता है. बड़े लोगों की बड़ी बातें, समझा कीजिए, जनाब! अब अगर आपको अपनी सहनशक्ति की परीक्षा लेनी हो, तो इन्हें दोस्त अवश्य बनाएँ. वैसे, हमने चेतावनी दे दी है!
 
7. बंद दरवाजे - इन पर बड़ा तरस आता है,हमें! ये 'ब्लॉक्ड वर्ग' है. ये इस श्रेणी में कब और कैसे आए, इस पर गहन अनुसंधान चल रहा है. पर, ये बेचारे किसी को भी 'फ्रेंड रिक्वेस्ट' भेज पाने में असमर्थ पाए जाते हैं. इनकी मदद ज़रूर कीजिए! भगवान, आपका भला करेंगे !
 
8. चिपकू लोग - यह वर्ग समाज के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है. हरेक की वॉल पर अपने प्रॉडक्ट या कंपनी की जानकारी चेप देना इनकी दिनचर्या का एक प्रमुख अंग है. कई बार ये दूसरे तरीके भी अपनाते हैं. जैसे कि...'शेअर कीजिए, भला होगा', 'एक लाइक तो बनता है' अजी, हम तो दो बार भी क्लिक कर दें..पर डिसलाइक हो गये तो हमें दोष मत दीजिएगा !! इन पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि समस्या को जड़ से उखाड़ा जा सके !
 
9. सन्यासी टाइप - इस समाज के लोग फ़ेसबुक पर होते हुए भी लुप्तप्राय: लगते हैं. ये अपने शहर की हर लड़की / लड़का (एक ही क़ौम को क्यूँ दोष दिया जाए) को फॉलो करते हैं, दोस्त बनाते हैं, बातें भी करते हैं. पर ये लोगों की दृष्टि में आने से बचते हैं. कई लोगों को तो पता भी नहीं , कि ये बंदा / बंदी इस साइट पर अक़सर आया करते हैं. इनकी इस प्रवृत्ति को समझने के लिए शोध-कार्य जारी है. तब तक आप, ज़रा संभल के......!
 
10. नन्हे-मुन्ने राही - ये सबसे प्यारा और खूबसूरत वर्ग है. इसमें बच्चे आते हैं. 'बुक' भले ही ना 'फेस' की हो कभी, पर ये 'फ़ेसबुक' पर बहुतायत में पाए जाते हैं. इन्हें सिर्फ़ अपने लाइक्स की संख्या बढ़ाने में रूचि होती है. कृपया, इनका उत्साहवर्धन करें और इन पर पूरा ध्यान भी दें.

11.नौटंकी वर्ग - ये वर्ग बाद में जोड़ा गया हैइसके सभी सदस्यों का मुख्य कार्य उल्टे-सीधे स्टेटस डालकर सबका ध्यान आकर्षित करना होता हैये अपनी हँसीखुशीबीमारी और अपने पास-पड़ोस की खबरें देते हुए सक्रिय बने रहते हैं चाहते हुए भी एक बार तो आपकी नज़र इन पर पड़ेगी हीयही इनकी दिली-तमन्ना भी होती हैकृपया इन्हें पूरी तवज़्ज़ो दें.
  
मेरा भारत सरकार से निवेदन है, कि बच्चों को 'नेट-शिक्षा' में पारंगत करने के लिए शीघ्र ही एक विधेयक बनाए, वरना हम 'भूख-हड़ताल' कर देंगे. साथ ही 'मार्क्स फॉर नेट' भी हमारी लड़ाई का एक अहम मुद्दा रहेगा! :))) 
ये तो सिर्फ़ एक झलक भर है, इस दुनिया की ! पर, सच्ची बोलूं ना!! हमारा तो जी ही भर गया, इस दोगली दुनिया से ! 'झूठे लोग-झूठी पसंद' .....हमने तो इसका यही नाम रखा है! 'जो तेरा है, वो मेरा है' सुना है ना आपने भी...सब झूठ !! सबको सिर्फ़ अपनी ही फ़िक्र है यहाँ पर! स्वार्थ से भरे हुए, गरूर से दबे हुए..लोगों का शहर बन गया है !! 
सब 'फ़ेसबुक' वालों की चाल है, बेवकूफ़ बना रहे हैं..वो हमें और हम खुद को ! खैर..हमारा फ़र्ज़ था आपको समझाना! आगे आपकी मर्ज़ी!  
सब मोह-माया है , जी का ज़ंजाल है ! इसके झाँसे में मत आओ ! इस दुनिया का त्याग करो, या इसे अपना लो! हमने तो सिर्फ़ आपके भले की ही बात की है! खुदा, आपको हमेशा सलामत रखे !
  
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हा-हा-हा-हा-हा :)))))))))))) 
प्रीति 'अज्ञात'