शनिवार, 15 अप्रैल 2017

पूर्णा.... A COMPLETE FILM!


'पूर्णा' छोटे गाँव के बड़े हौसलों को सलाम करती, ईमानदारी से बनाई गई एक अत्यंत ही ख़ूबसूरत फिल्म है जो सच्चाई को बिना किसी तड़के के परदे पर सलीक़े से उतारने में पूरी तरह सफ़ल रही है। दो चचेरी बहनों की दिल को छू लेने वाली दोस्ती, परस्पर स्नेह और उनकी संवेदनशीलता  भीतर तक झकझोर के रख देती है। यहाँ दर्शकों की आँखें यह देख हैराँ भी होती हैं कि एक टूटता हुआ इंसान कैसे किसी को ज़बरदस्त हौसला दे सकता है! पर जब दिल साफ़ हो तो क्या नहीं हो सकता! आज जबकि इंसान एक-दूसरे को काटने और जलने-भुनने में व्यस्त है, ऐसे में स्वयं के हारते हुए किसी की आँखों में जीत का स्वप्न थमा जाना; उम्मीद की जानदार मरहम का काम करता है। दोनों युवा कलाकारों के अभिनय की निश्छलता देखते ही बनती है।

यह फिल्म एक छोटी लड़की द्वारा माउंट एवरेस्ट को फ़तह कर लेने की ही कहानी नहीं बल्कि इसके साथ-साथ यह कम उम्र में विवाह और उसके दुष्परिणामों को गंभीरता से सामने भी रखती है। यह स्कूलों और संस्थाओं में चल रही धाँधली, कागज़ी रिपोर्टों और मिड-डे मील की असलियत पर तीख़ा प्रहार करने से भी नहीं चूकती। निर्देशन इतना बेहतरीन है कि रोचकता एक पल को भी कम नहीं होती और अंत तक आप अपनी सीट से बँधे रहते हैं। 'पूर्णा' में जहाँ एक पिता के, समाज के नियमों के बीच रहने और बँधे होने की बेबसी भावुक कर देती है। वहीँ उसका अपनी बेटी के प्रति अगाध स्नेह और दृढ़ विश्वास दर्शकों को तालियाँ पीटने पर मजबूर कर देता है।

यह फिल्म इस सोच को भी पुख़्ता करती चलती है कि एक उत्कृष्ट फिल्म बनाने के लिए बड़े सितारों और नामों की नहीं बल्कि अच्छी स्क्रिप्ट, उम्दा अभिनय और समर्पित निर्देशन की आवश्यकता होती है। राहुल बोस की उपस्थिति और सहज अभिनय कौशल के तो हम सभी कायल हैं पर कभी-कभी अफ़सोस भी होता है कि खानों और घरानों की भीड़ में राहुल बोस, मनोज बाजपेई, इरफ़ान ख़ान और नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी जैसे बेहतरीन कलाकारों को उनके हिस्से की उतनी ज़मीं नहीं मिलती जिसके ये सदैव हक़दार रहे हैं। ख़ैर, हीरा कहीं भी रहे...इससे उसकी श्रेष्ठता पर असर नहीं पड़ता।
बहरहाल, राहुल बोस और पूर्णा की टीम को इस फिल्म के लिए हार्दिक बधाई और इसी ज़ज़्बे के साथ जुटे रहने के लिए अशेष शुभकामनाएँ! 
फिल्म की tagline से सहमत हूँ.....YES, COURAGE HAS NO LIMIT! :) 
- प्रीति 'अज्ञात'


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