सोमवार, 11 दिसंबर 2017

संपादकीय - जनवरी 2017 ( हस्ताक्षर वेब पत्रिका) : क्या हम सचमुच समाधान ढूँढने में सक्षम नहीं?

ये कैसी होनी है, जिसे हम विधाता पर डाल निश्चिन्त हो जाते हैं! उन बच्चों ने तो अभी ठीक से दुनिया भी नहीं देखी थी। कितनों की अधूरी ड्रॉइंग उनकी कल्पनाओं के रंग भरे जाने की प्रतीक्षा कर रही होगी, किसी की माँ ने उसके स्कूल से लौटने के बाद उसकी पसंदीदा डिश बनाकर रखी होगी, किसी के पिता उसे सरप्राइज देने के लिए उसका वही खिलौना खरीदकर लाये होंगे, जिसके लिए उसने बीते सप्ताहांत पूरा घर सिर पर उठा रखा था, दादा-दादी ने आज उसे सुनाने के लिए परियों वाली कहानी सोच रखी होगी। कितना दर्दनाक होता है वो मंज़र, जहाँ बच्चे के इंतज़ार में बैठे माता-पिता को उसके कभी न आने की सूचना दी जाती है, जहाँ गूँजती किलकारियों की आवाज़ गहरे सन्नाटे में बदल जाती है, जहाँ पलंग पर पड़ा बेतरतीब सामान किसी की राहें तकता है, जहाँ प्रतीक्षा उम्रभर का दर्द बन घर की चौखट से लिपट जाती है। आह, कई बार शब्द ही नहीं होते, जो किसी का दर्द बयां कर सकें। वो शब्द भी कहाँ बने, जो किसी का दर्द बाँट सके हों कभी!

बस दुर्घटना, ट्रेन दुर्घटना, स्त्रियों के प्रति अपराध जब-जब होते हैं
हम दुःख जताते हैं, अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं। इसके अतिरिक्त अभिव्यक्ति का और कोई माध्यम भी नहीं! उधर अधिकारी मामले की पूरी जाँच का आश्वासन देते हैं। यदि घटना से कोई बड़ा नाम जुड़ा है, तो जाँच आयोग बैठा दिया जाएगा। हंगामा या आंदोलन हुआ, तो सरकार द्वारा मामले को जाँच के लिए सीबीआई को सौंप दिया जाएगा। पीड़ित को ढाँढस बंधाने के लिए कुछ रुपए दिए जाएँगे और इस तरह बात ख़त्म हो जाएगी। पर मेरा सवाल यह है कि समस्या कब ख़त्म होगी? क्या हम सचमुच समाधान ढूँढने में सक्षम नहीं? या कि हम सभ्यता के पाशविक काल में जीने के अभ्यस्त हो चुके हैं?

किसी इंसान की उसके ही घर में घुसकर हत्या कर दी जाती है लेकिन उसकी मृत्यु और उस परिवार के प्रति संवेदना के स्थान पर चर्चा इस बात की होती है कि फ्रिज़ में रखा माँस किसका था? 'मृत्यु' एक तमाशा भर बनकर रह जाती है!
लड़कियों को भरे बाज़ार परेशान किया जाता है तो कहीं उनका बलात्कार होता है, तलाश अपराधी की नहीं इस बात की होती है कि आख़िर वो घर से क्यों, किसके साथ और किन वस्त्रों को धारण करके निकली थी। यानी हम यह मानकर ही चलें कि पुरुषों की जन्मजात प्रवृत्ति तो ऐसी ही है और उनके सुधरने की तथा कुत्सित मानसिकता को त्यागने की कोई उम्मीद नहीं। इसलिए स्त्रियाँ ही स्वयं को क़ैद करके रखें? क्या इस सोच का कभी अंत होगा या कि हर मुद्दा, भुनाए जा सकने के लिए ही जीवित रखा जाता है?

जलीकटटू हुआ या कि चिंकारा या कोई भी अन्य जानवर। उनके प्रति हिंसा का विरोध होता है, होना भी चाहिए! उनके शिकार पर प्रतिबन्ध लगा है, लगना ही चाहिए। ऐसे मामलों में पूरा देश एक साथ खड़ा होता है, ये उससे भी अच्छी बात है कि हमारी संवेदनाएँ अब तक जीवित हैं। लेकिन जब किसी इंसान की लाश न्यूज़ बन सड़क पर पड़ी रहती है, किसी को दिन-दहाड़े गोली मार दी जाती है, किसी बच्चे को बुरी तरह पीटा जाता है तब मनुष्यता कहाँ चली जाती है? हर मौत के विरोध में आवाजें कहाँ ग़ुम हो जाती हैं? काश, मानवीय हिंसा पर प्रतिबन्ध हो!....हैवानियत पर प्रतिबन्ध हो! हर मृत्यु को गंभीरता से लिया जाए!

दरअसल दोषी के सुधरने की उम्मीद तो तब हो....जब किसी को भय हो। यदि बलात्कार की सज़ा, तुरंत फाँसी हो और वो भी एक सप्ताह के भीतर ही तय कर दी जाए तो क्या मजाल किसी की हिम्मत भी हो, लड़की को छूने की। पर ऐसा होता नहीं और न ही होने वाला है क्योंकि आधे तो नेता ही इसमें लटक जाएँगे और बाक़ी उनकी छत्रछाया में जीने वाले।
नोटबंदी से कुछ अच्छा जरूर हुआ होगा, सहमत हूँ। पर अब बढ़ते अपराध और गंदगी को मिटाना आवश्यक है, ये भ्रष्टाचार से भी ज्यादा जहरीले हैं। देश के विकास के लिए नोटमुक्त से कहीं अधिक, भयमुक्त समाज की आवश्यकता है। जब आधी आबादी घर में बंद है, तो विकास पूर्ण रूप से होने की आशा करना बेमानी लगता है।

कितना हास्यास्पद है कि लोग शौचालय बनाने के लिए भी सरकार की मनुहार की प्रतीक्षा करते हैं। कचरे को कचरेदान में डालना भी अब दूसरों को सिखाना पड़ रहा है, वो भी इस उम्र में आकर! कोई सेलिब्रिटी समझाएगा, तो ही समझ पाएँगे। थूकना, पिचकारी मार सार्वजनिक स्थानों को दूषित करना बदस्तूर जारी है। पहले हम इस सब से उबरें, फिर बात बने!

नए वर्ष में आप साईकल चलाएँ, हाथ मिलाएँ या फूल खिलाएँ....बस घर से निकले को, शाम उसके घर तक सकुशल पहुँचाएँ।
फुटपाथ पर सोये, ठिठुरते बचपन को उसका मौलिक अधिकार शिक्षा दिलाएँ।
अपराध को पैसे नहीं, सजा के बल पर ख़त्म कराएँ।
वाहन चालन का लाइसेंस उन्हें मिले, जिन्हें सचमुच वाहन चलाना आता हो क्योंकि ये सिर्फ उनके ही नहीं, कई लोगों के जीवन का मामला है।
कंक्रीट होते शहरों में कहीं-कहीं मिट्टी छुड़वाएँ कि आने वाली पीढ़ियों का जीवन और साँस चलती रहे।
आओ, भारत को हम-आप, सुरक्षित सुंदर बनाएँ!
इन्हीं चली आ रही कभी सूखी-कभी हरी उम्मीदों के साथ-
नववर्ष मुबारक़!
गणतंत्र मुबारक़!

चलते-चलते: जब कुंभ मेला लगता है तो तमाम चित्रों से सबकी टाईमलाईन भरी रहती है। व्यापार मेला लगता है, तब भी यही दृश्य देखने को मिलता है। विश्वकप में तो भावुकता अपने चरम पर होती है लेकिन पुस्तक मेले के लगते ही एक विशिष्ट वर्ग को साँप सूंघ जाता है। क्यों, भई? एक अभिनेता हर चैनल में जाकर अपनी फिल्म का प्रचार करता है। खिलाड़ी भी विज्ञापन के माध्यम से अपना चेहरा जनता को याद दिलाते रहते हैं। संगीतकार और गायक भी अब पार्श्व में नहीं रहे। कंपनियों के विज्ञापन के जिंगल सब एक सुर में गाते हैं। नेता अपनी पार्टी के प्रचार और दूसरी के दुष्प्रचार का कोई मौका कभी नहीं छोड़ते। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री जी भी रेडियो पर अपनी बात सुनाने लगे हैं। तो फिर इस 'पुस्तक मेले' से ही किस बात की चिढ़? जिसे जाना है, जाए। जिसे नहीं जाना, वो न जाए! आप इतने कुंठित क्यों हैं?
दुःख इस बात का है कि पुस्तक मेले का सबसे ज्यादा सम्मान जिस वर्ग को करना चाहिए (करते भी हैं), वही इसका अपमान करने में भी पीछे नहीं रहता। यही हाल कुछ लोगों ने हिंदी का भी किया है। जिसकी घर में ही इज़्ज़त न हो तो गैरों से कैसी उम्मीदें? दुःखद है, बाक़ी उन्हें सोचना है जिनके कारण सवाल उठते हैं।
- प्रीति अज्ञात

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