दुःख बाँटने से कम हो जाता है, ऐसा मैं बिल्कुल नहीं मानती। बल्कि किसी से साझा करने के बाद हम अपने साथ-साथ उसके भी पुराने ज़ख्मों को अनजाने में बेतरह छेड़ देते हैं और फिर उदासी के घनेरे बादल, ह्रदय से निकली हर आह की तरह दोनों को ही पुन: घेर लेते हैं। नतीजतन अपने-अपने हिस्से की नमी की परतें कुछ और बढ़ जाती है और मन की दीवारों पर दर्द की सीलन पाँव जमाकर बैठ जाती है।
परिस्थिति तब भी नहीं बदलती ..जीवन तब भी नहीं बदलता और सब कुछ पूर्ववत ही चलायमान रहता है। कोई और विकल्प भी कहाँ शेष होता है!
....पर खुशियाँ बाँट लेने और संग-साथ हँस लेने से जिस भव्य और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, दर्द के हिस्से इसका ठीक विपरीत आता है। इसमें समय की गति मद्धम पड़ने लगती है और मन सायं-सायं करने लगता है। वस्तुत: हमारा दुःख हमें ही मारता है, मानसिक और शारीरिक रूप दोनों से ही। इसे चीरकर बाहर निकल आने में ही समझदारी है।
अतएव हे राजपुत्र /पुत्री...Just chill, chill..just chill
MORAL: भेजे की सुनेगा तो मरेगा कल्लू
- प्रीति 'अज्ञात'
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