साप्ताहिक महायज्ञ - जैसा कि आप सबको विदित ही है कि आज की पावन बेला में वैलेंटाइन महायज्ञ का सुंदर शुभारम्भ हो चुका है. आइये पवित्र पंडाल की ओर प्रस्थान करें-
प्रथम चरण: इसका प्रारम्भ हम, इस मंत्र जाप से करेंगे -
अल्लाह रोज़ दे, रोज दे, रोज दे दे, मालिक रोज़ दे
रोज ही हम पौधे को लाते, प्यार से ख़ूब लगाते
फूटी कुछ क़िस्मत ही ऐसी, पौधे सब मर जाते
चाय की पत्ती, खाद भी डाली मिनरल वाटर डाला
पर फिर भी हिस्से में आता सूखा-सूखा जाला
आँखें भीग रहीं अब मेरी, दिखता सब कुछ काला
इतनी भीषण पीड़ा में अब कैसे खाऊँ निवाला
अल्लाह रोज़ दे, रोज दे, रोज दे दे, मालिक रोज़ दे
संदर्भित दंत कथा - हे ईश्वर! हमने इस एकमुश्त ज़िन्दग़ी में बस एक ही दफ़ा, एक बन्दे का रोज़ क़बूल नहीं किया था क्योंकि उस दुष्ट ने वह हमाए ही बग़ीचे के, हमाए ही गमले और उसमें हमाए ही द्वारा लगाए गए पौधे में से तोड़कर दिया था. बताओ, यह प्रेम था या ख़ालिस बदतमीज़ी? हम तो मारे गुस्सा के आगबबूला हो गए और नथुने सिगड़ी के धधकते कोयले की तरह लाल अंगारे बन गए थे कि मेरी ही आँखों के सामने तुमाई हिम्मत कैसे हुई फूल तोड़ने की!
तब हम पिरेम समझते ही नहीं थे और ये बात तो क़तई गले नहीं उतरती थी कि गुलाब देने से यह सन्देश पहुँचाने को जो इतना फड़फड़ा रहा है, उसके गले में ऐसी कौन-सी पिरोब्लम आ गई कि ससुरा बोल ही न फूट रहे!
कह तो रहे न कि हमको उस बात को समझ न पाने की भारी पीड़ा हुई थी जब बाद में पता चला कि वो मुआ गुलबवा तो हमरे ही लिए था. ये पीड़ा उस बन्दे को हुई परेशानी के कारण ही थी. पियार-वियार तो हमें बस क़िताबों, पेड़-पौधों से ही हुआ करता था बाक़ी कुछ समझने का न भेजा था न इच्छा! ख़ैर, इस अनावश्यक भूमिका का कोई औचित्य तो नहीं था पर अब लिख दिए तो लिख दिए. हाँ, उसका श्राप जरूर ऐसा लगा कि तब से लेकर आज तक किसी ने हमें गुलाब दिया ही नहीं और अब तो बग़ीचे में भी सब कुछ उगता है सिवाय गुलाब के!
सार: परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी प्रतिकूल/ अनुकूल क्यों न हों...हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक रहना चाहिए.
प्रसाद: कृपया यू ट्यूब पर जाकर आदरणीय मोहम्मद अज़ीज़ जी के द्वारा स्वरबद्ध किया हुआ यह गीत स्वयं को समर्पित कर धन्य महसूस करें .."फूल गुलाब काआआ, लाखों में हजारों में, इक चेहरा ज़नाब का आआआ"
पर उसके तुरंत बाद यह गाना अवश्य सुन लीजिएगा.. "हमसे का भूल हुई जो ई सज़ा हमका मिली!"
#ये_रोज_रोज़_के _दुखड़े #Roseday
- प्रीति 'अज्ञात'
प्रथम चरण: इसका प्रारम्भ हम, इस मंत्र जाप से करेंगे -
अल्लाह रोज़ दे, रोज दे, रोज दे दे, मालिक रोज़ दे
रोज ही हम पौधे को लाते, प्यार से ख़ूब लगाते
फूटी कुछ क़िस्मत ही ऐसी, पौधे सब मर जाते
चाय की पत्ती, खाद भी डाली मिनरल वाटर डाला
पर फिर भी हिस्से में आता सूखा-सूखा जाला
आँखें भीग रहीं अब मेरी, दिखता सब कुछ काला
इतनी भीषण पीड़ा में अब कैसे खाऊँ निवाला
अल्लाह रोज़ दे, रोज दे, रोज दे दे, मालिक रोज़ दे
संदर्भित दंत कथा - हे ईश्वर! हमने इस एकमुश्त ज़िन्दग़ी में बस एक ही दफ़ा, एक बन्दे का रोज़ क़बूल नहीं किया था क्योंकि उस दुष्ट ने वह हमाए ही बग़ीचे के, हमाए ही गमले और उसमें हमाए ही द्वारा लगाए गए पौधे में से तोड़कर दिया था. बताओ, यह प्रेम था या ख़ालिस बदतमीज़ी? हम तो मारे गुस्सा के आगबबूला हो गए और नथुने सिगड़ी के धधकते कोयले की तरह लाल अंगारे बन गए थे कि मेरी ही आँखों के सामने तुमाई हिम्मत कैसे हुई फूल तोड़ने की!
तब हम पिरेम समझते ही नहीं थे और ये बात तो क़तई गले नहीं उतरती थी कि गुलाब देने से यह सन्देश पहुँचाने को जो इतना फड़फड़ा रहा है, उसके गले में ऐसी कौन-सी पिरोब्लम आ गई कि ससुरा बोल ही न फूट रहे!
कह तो रहे न कि हमको उस बात को समझ न पाने की भारी पीड़ा हुई थी जब बाद में पता चला कि वो मुआ गुलबवा तो हमरे ही लिए था. ये पीड़ा उस बन्दे को हुई परेशानी के कारण ही थी. पियार-वियार तो हमें बस क़िताबों, पेड़-पौधों से ही हुआ करता था बाक़ी कुछ समझने का न भेजा था न इच्छा! ख़ैर, इस अनावश्यक भूमिका का कोई औचित्य तो नहीं था पर अब लिख दिए तो लिख दिए. हाँ, उसका श्राप जरूर ऐसा लगा कि तब से लेकर आज तक किसी ने हमें गुलाब दिया ही नहीं और अब तो बग़ीचे में भी सब कुछ उगता है सिवाय गुलाब के!
सार: परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी प्रतिकूल/ अनुकूल क्यों न हों...हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक रहना चाहिए.
प्रसाद: कृपया यू ट्यूब पर जाकर आदरणीय मोहम्मद अज़ीज़ जी के द्वारा स्वरबद्ध किया हुआ यह गीत स्वयं को समर्पित कर धन्य महसूस करें .."फूल गुलाब काआआ, लाखों में हजारों में, इक चेहरा ज़नाब का आआआ"
पर उसके तुरंत बाद यह गाना अवश्य सुन लीजिएगा.. "हमसे का भूल हुई जो ई सज़ा हमका मिली!"
#ये_रोज_रोज़_के _दुखड़े #Roseday
- प्रीति 'अज्ञात'
इज़हारे प्यार का एक दिन
जवाब देंहटाएंबहुत खूब