उन दिनों अच्छे स्कूलों का एक ही मतलब हुआ करता था....न्यूनतम छुट्टियाँ, जमकर पढ़ाई और जबरदस्त अनुशासन (+ कुटाई किसी inbuilt app की तरह). आजकल की तरह नहीं कि जितनी अधिक फ़ीस, उतना बढ़िया स्कूल! और हाँ, ये कुटाई भी आवश्यकता पड़ने पर पर्याप्त समय लेकर पूरी तसल्ली से ऐसे की जाती थी कि क़ब्र में उतरते समय तक के लिए उसका कलर्ड नक़्शा बालक के ज़हन में छप जाए! मज़ेदार (ही,ही अब लग रही) बात ये थी कि बच्चों को अपने लक्षणों और बदलते मौसम को देख पहले से ही ज्ञात होता था कि आज किसका खेला जोरदार होगा!
बड़े सर के आते ही वातावरण में गंभीर हवाएँ चलने लगती थीं. उड़े हुए चेहरों को देख किसी नए उत्सुक बच्चे को उनके बारे में मुँह पर हाथ रख जानकारी कुछ यूँ दी जाती थी कि जैसे कोई कह रहा हो, "मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने? उसके नाम से शहर की पुलिस भी काँपती है और पब्लिक भी." या फिर वही गब्बरी आवाज़ गूँजती थी, "यहाँ से पचास-पचास कोस दूर......" कुल मिलाकर स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में नज़र आती थी. यद्यपि एक करारे थप्पड़ की मासूम ध्वनि के पश्चात बुहहाआआ, बुहहाआआ की दर्दीली चीत्कार इसी नीरवता को पल भर में तहस-नहस कर कक्षा का इतिहास और भूगोल एक साथ बदल देती थी. उन बच्चों में से दस प्रतिशत के भविष्य का ख़ाक़ा तो बस एक थप्पड़ ही तत्काल खींच देता था लेकिन शेष नब्बे प्रतिशत के लिए यह क्रम किसी धारावाहिक (डेली सोप) की तरह चला करता था, जहाँ बीस-पच्चीस एपिसोड तक तो स्टोरी लाइन आगे बढ़ती ही नहीं थी लेकिन हर एपिसोड के अंतिम दृश्य में सबका मुँह खुला का खुला रह जाता था. क्या?क्या?क्या? (आज फिर पिटा?) की साइलेंट ध्वनि के साथ.
मुख़्तार सिंह के जाने के बाद किसी परंपरागत रस्म की तरह बाक़ी बच्चे उस कुटे-पिटे बच्चे को पुचकारते हुए, अपनी दर्दभरी कहानियाँ जमकर साझा करते कि उसका ग़म कुछ हल्क़ा हो सके. भाईचारे और वातावरण को सौहार्द्रपूर्ण बनाये रखने में क्षणिक एकता बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी. प्रायः ये घटनायें भीतर-ही- भीतर दबा ली जातीं थीं और घरों तक इस प्रकार के ऐतिहासिक किस्से तब ही पहुँचते थे जबकि उनके साक्ष्य लाख बार धो लेने के बाद भी चेहरे पर टिके रहते या फिर अंक सूची में से अंक नदारद होते और बस सूजे मुँह के साथ सन्नाटा लिए ख़ाली 'सूची' ही घर पहुँचती.
इधर माँ सूजी का हलवा लिए इंतज़ार कर रही होती थी. परीक्षा परिणाम हाथ में आते ही वो हलवे में काजू-बादाम-किशमिश का गद्दा बनाना भूल जातीं. बेचारा बच्चा उस दिन चुपचाप ही बिना मेवे वाला हलवा गटक अपना गुजारा कर लेता.
- प्रीति 'अज्ञात'
#बाल_दिवस पे बड़े हो गए बच्चों को और क्या याद आएगा!
#बाल_दिवस
ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 14/11/2018 की बुलेटिन, " काहे का बाल दिवस ?? “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !