विदा! एक भावुक कथा
सर्दियों के नर्म मौसम में एक थकेहारे भारी-भरकम दिन के बाद, रात के ग्यारह बजे बड़े जतन से बनाई गई चाय का ढुलक जाना, उन अरमानों का भी अनायास लुढ़क जाना है, जो अदरक कूटते समय बस अभी मात्र तीन मिनट पहले ही दिमाग़ में बल्लियों उछल रहे थे. लगा जैसे तुषारापात हो गया, मस्तिष्क में घनघोर सूनामी जोर पकड़ने लगी. हर दिशा से बस एक ही सवाल गूँजने लगा, "अरे! ये कैसे हो गया?"
ये अकेली जां और क्या करती, क़ातर नज़रों से ज़मीं के आग़ोश से लिपटी उस चाय को देख बेबस आह भर मरघिल्ली आवाज़ में बच्चों को पुकारा, "कोई है!" "अरे! कोई है!" पर हमसा न तो कोई दीवाना पैदा हुआ और न ही इस भीषण दुःख की घड़ी में साथ देने कोई रजाई से बाहर ही आया. ये सर्दियाँ अच्छे-ख़ासे शख़्स को बेवफ़ा कैसे बना देती हैं, इसका बोध भी अनायास इन्हीं लम्हों में हुआ.
ख़ैर! हमारा दरद हमें ही झेलना है, इस सत्य को मन स्वीकार ही रहा था कि टूटते दिल की चारों खिड़कियों में से दर्द वाली खिड़की ने पुनश्च मुंडी घुमाकर हँसते हुए बोला,
"अब किसी से क्या बैर और कैसी रखें उम्मीद...
जिसे हमने बनाया जब 'वो' ही हमारे न हुए"
असाहित्यिक लोगों को बताते चलें कि यहाँ 'वो' से तात्पर्य बेवफ़ा चाय के लिए है.
रोना तो बहुत जोर वाला आ रिया था पर हमने दिल को ढाँढस बँधाते हुए, ख़ाली कप पर दृष्टिपात करते हुए भरे गले से अपनी लाचारी की सुन्दर व्याख्या की -
"एक तरफ़ टूटा कप है
दूसरी तरफ़ ज़ालिम ज़माना
गिर जाने के बाद आसां नहीं
उसी मदहोश चाय को बनाना"
ताने धिन तन्नाना, ताने धिन तन्नाना...विपदा के समय rhyming वाली पंक्तियाँ मुझे अक़्सर याद आती हैं, हाय राम! अब इतने टेलेंट का मैं क्या करूँ? किधर जाऊँ?
अंत में गुरुश्रेष्ठ से बस इतना ही कह माफ़ी चाहूँगी -
"माफ़ कर देना मुझे अब ए ग़ालिब
तुझे याद कर लेनी थी जो महक़ती ग़र्म चुस्कियाँ
वो डिज़ाइनर धारा बन इधर-उधर बहती रहीं
इधर हम पोंछा थाम बस ठंडी सिसकियाँ भरते रहे"
उफ़्फ़्फ़.....अब और न कुछ कह पायेंगे!
विदा!
Moral: जलने, कारपेट ख़राब होने, कप के टूटने से कहीं ज्यादा painful है, चाय का फ़ैल जाना.
- प्रीति 'अज्ञात'
सर्दियों के नर्म मौसम में एक थकेहारे भारी-भरकम दिन के बाद, रात के ग्यारह बजे बड़े जतन से बनाई गई चाय का ढुलक जाना, उन अरमानों का भी अनायास लुढ़क जाना है, जो अदरक कूटते समय बस अभी मात्र तीन मिनट पहले ही दिमाग़ में बल्लियों उछल रहे थे. लगा जैसे तुषारापात हो गया, मस्तिष्क में घनघोर सूनामी जोर पकड़ने लगी. हर दिशा से बस एक ही सवाल गूँजने लगा, "अरे! ये कैसे हो गया?"
ये अकेली जां और क्या करती, क़ातर नज़रों से ज़मीं के आग़ोश से लिपटी उस चाय को देख बेबस आह भर मरघिल्ली आवाज़ में बच्चों को पुकारा, "कोई है!" "अरे! कोई है!" पर हमसा न तो कोई दीवाना पैदा हुआ और न ही इस भीषण दुःख की घड़ी में साथ देने कोई रजाई से बाहर ही आया. ये सर्दियाँ अच्छे-ख़ासे शख़्स को बेवफ़ा कैसे बना देती हैं, इसका बोध भी अनायास इन्हीं लम्हों में हुआ.
ख़ैर! हमारा दरद हमें ही झेलना है, इस सत्य को मन स्वीकार ही रहा था कि टूटते दिल की चारों खिड़कियों में से दर्द वाली खिड़की ने पुनश्च मुंडी घुमाकर हँसते हुए बोला,
"अब किसी से क्या बैर और कैसी रखें उम्मीद...
जिसे हमने बनाया जब 'वो' ही हमारे न हुए"
असाहित्यिक लोगों को बताते चलें कि यहाँ 'वो' से तात्पर्य बेवफ़ा चाय के लिए है.
रोना तो बहुत जोर वाला आ रिया था पर हमने दिल को ढाँढस बँधाते हुए, ख़ाली कप पर दृष्टिपात करते हुए भरे गले से अपनी लाचारी की सुन्दर व्याख्या की -
"एक तरफ़ टूटा कप है
दूसरी तरफ़ ज़ालिम ज़माना
गिर जाने के बाद आसां नहीं
उसी मदहोश चाय को बनाना"
ताने धिन तन्नाना, ताने धिन तन्नाना...विपदा के समय rhyming वाली पंक्तियाँ मुझे अक़्सर याद आती हैं, हाय राम! अब इतने टेलेंट का मैं क्या करूँ? किधर जाऊँ?
अंत में गुरुश्रेष्ठ से बस इतना ही कह माफ़ी चाहूँगी -
"माफ़ कर देना मुझे अब ए ग़ालिब
तुझे याद कर लेनी थी जो महक़ती ग़र्म चुस्कियाँ
वो डिज़ाइनर धारा बन इधर-उधर बहती रहीं
इधर हम पोंछा थाम बस ठंडी सिसकियाँ भरते रहे"
उफ़्फ़्फ़.....अब और न कुछ कह पायेंगे!
विदा!
Moral: जलने, कारपेट ख़राब होने, कप के टूटने से कहीं ज्यादा painful है, चाय का फ़ैल जाना.
- प्रीति 'अज्ञात'
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना रविवार १३ जनवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत शुक्रिया
हटाएंबहुत खूब .......प्रीति जी सादर नमन
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशुक्रिया :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति। चाय की दीवानगी काबिले तारीफ हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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