उसे कितना दर्द हो रहा था, इसका अनुमान लगा पाना भी बेहद मुश्किल था क्योंकि मूलतः कबूतर अत्यंत शांत स्वभाव के पक्षी होते हैं और जितना मुझे याद आता है उसके आधार पर मैंने इन्हें कभी भी चिल्लाते हुए नहीं देखा. बिल्ली को देखकर जहाँ सभी पक्षी चींचीं कर सारा घर सर पर उठा लेते हैं और उस दुष्ट बिल्ली को भगाने तुरंत आना ही पड़ता है, तब भी मैंने इन कबूतरों को बस सहमा हुआ ही पाया. सच कहूँ तो प्यारी गुटरगूं के अलावा मैंने इनकी कोई अन्य आवाज कभी सुनी ही नहीं अब तक. इनकी आँखों में बला की मासूमियत और चाल में एक विशेष अदा सदा ही मेरा मन लुभाती आई है. आज वही पिज्जू इतनी परेशानी में था.
तभी सामने एक महिला दिखाई दीं, वे मुझे ही आवाज देकर पूछ रहीं थीं कि "बेन, क्या हुआ?" मॉर्निंग वाक के लिए जाते समय ये अक्सर गायों को घुमाती हुई दिखती हैं. यूँ हम एक-दूसरे के नाम नहीं जानते पर हमारे बीच एक मुस्कुराहट का आदान-प्रदान हुआ करता है. बस, यही मुस्कान का रिश्ता आज पुकार बन सामने था.
मैं कुछ जवाब देती तब तक वे आकर वस्तुस्थिति समझ चुकी थीं. बिना डरे, उन्होंने मांज़े को झटका दिया और वो कबूतर उसी फँसी हुई अवस्था में मांज़े के साथ नीचे की ओर गिरने लगा जिसे उनके मजबूत हाथों ने बेहद सलीक़े से थाम लिया. तब तक बेटी घर से कैंची ले आई थी. पहले तो पिज्जू भयभीत था और फड़फड़ा रहा था पर बाद में समझ गया और एक-एक करके उसके पंखों, पैरों, गर्दन में लिपटी डोरियों को चुपचाप हटवाता रहा. गले में दो फंदे इतने टाइट थे कि हम तीनों में से कोई वहाँ कट कर ही नहीं पा रहा था. तभी दो बाइक सवार वहाँ से निकले और स्वतः ही रुक गये. उनकी सहायता से पिज्जू अब स्वतंत्र हो चुका था. कुछ सेकंड्स हथेली में रहने के बाद उसने पुनः अपनी उड़ान भरी.
लगभग 50 मिनट चले इस रेस्क्यू ऑपरेशन का सुखद अंत बेहद सुकून भरा अवश्य था पर ये भी जानती हूँ कि हर बार ऐसा नहीं होता!
- प्रीति 'अज्ञात'
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