मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

हत्या का कारण ‘लिव इन रिलेशन’ पर थोप, कहीं हम अपना पल्ला तो नहीं झाड़ रहे?

'आउटलुक' हिन्दी के 12 दिसम्बर 2022 अंक में प्रकाशित -

आफ़ताब ने जो जघन्य अपराध किया, वह अक्षम्य है। हैवानियत की ऐसी तस्वीर कि इंसान भीतर तक सिहर जाए। इंसानियत से भरोसा उठ जाए! ऐसे अपराधी के लिए फ़ांसी की सजा भी कम ही लगती है। श्रद्धा की नृशंस हत्या के साथ- साथ यह उस विश्वास की भी हत्या है जिसे वह प्रेम के नाम पर जीती रही। लेकिन सोचिए कि वह लड़का किस हद तक शातिर और पाशविक प्रकृति का होगा जो अत्यंत क्रूरता और निर्ममता से इसी प्रेम और विश्वास के पैंतीस टुकड़े कर उन्हें फ्रिज़ में रख, धीरे-धीरे जंगल में ठिकाने लगाता रहा।

स्पष्ट है कि एक रिश्ता जिसका अंत इतना बर्बर हुआ हो, वहाँ सब कुछ रहा होगा सिवाय प्रेम के। प्रेम आपको सभ्य और सुंदर बनाता है हत्यारा नहीं! लेकिन वो लड़की उसके व्यक्तित्व को न समझ सकी, या फिर समझते हुए भी इस उम्मीद से रिश्ते में बंधी रही कि सब ठीक हो जाएगा। लड़कियां संकेत समझते हुए भी रिश्ते से बाहर निकल नहीं पाती हैं क्योंकि समाज की सीख उनका पीछा करतीं हैं।

दुख इस बात का ही नहीं कि एक लड़की इस बेरहम दुनिया से चली गई, अफ़सोस उसके बाद आई प्रतिक्रियाओं का भी उतना ही है। हिन्दू-मुस्लिम करने वालों को तो नया मसाला ही मिल गया। उधर अरैन्ज मेरिज के पक्ष में भी क़सीदे काढ़े जाने लगे हैं। जिस तरह से लिव इन और प्रेम को कोसा जा रहा है वह हैरान करने वाला है। मैं लिव इन के पक्ष में पूरी तरह से नहीं हूँ पर यह जरूर मानती हूँ कि दो वयस्कों को अपनी मर्ज़ी से रिश्ते में बंधने का पूरा अधिकार है।

श्रद्धा की हत्या के बाद यह कहा जाना कि 'उसके साथ तो यही होना चाहिए!' भी कहने वाले को हत्यारे के पक्ष में ही खड़ा कर देता है। यह ठीक उसी तरह की मानसिकता से निकली सोच है जिसमें दुष्कर्म पीड़िता पर ही छोटे कपड़े पहन, अपराधी को उकसाने का आरोप मढ़ दिया जाता है।

आखिर क्या हो गया है हमारी सोच को?

हमारी मानवीयता और संवेदनाओं को क्या होता जा रहा है? यदि कोई लड़की अपने माता-पिता की बात न मानकर अपने प्रेमी के साथ रहना तय कर लेती है तो क्या यह अपराध है? इतनी बड़ी भूल है कि उसकी हत्या होने पर आप नाक-मुँह सिकोड़ संवेदनशून्य हो जाएं? अपराधी के कृत्य को न्याय संगत बताने लगें? या यूँ कहने लगें कि 'सही सबक मिला उसे।' जो बच्चे अपने माँ-बाप के अनुभव, सीख को न सुनें-समझें,  क्या वे मृत्यु के हक़दार हैं?

बच्चे बड़े हो गए तो क्या परवाह चली जाती है?

माना कि किसी लड़की ने अपने माता-पिता की नहीं सुनी और अपने प्रेमी के साथ चली गई। चलो, उसने यह भी कह दिया कि 'वो मर गई परिवार के लिए', तो उसे सचमुच मरा मान उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ लें?

क्या परिवार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि अपने जिगर के टुकड़े का अपडेट लेते रहें? यदि अहंकार आड़े आता है तो कम-से-कम उसके दोस्तों के तो संपर्क में रहें। हम उस समाज में रहते है जहाँ बचपन में बच्चों को मारते-पीटते हुए कितनी ही बार माता-पिता गुस्से में कह जाते हैं कि 'मरते भी नहीं! परेशान कर रखा है। जीवन नरक कर दिया, इन बच्चों ने!' बच्चा फ़ेल हो जाए तो उसकी हड्डी-पसली एक कर देते हैं कि 'नाक कटा दी बदतमीज़ ने!' पर उसके बाद वही माँ बच्चों से लिपट खूब रोती है, वही पिता उनके सिर पर दुलार का हाथ रख कहता है कि 'कोई बात नहीं! अगली बार खूब मेहनत करना!' बच्चे, बड़े हो गए तो क्या परवाह चली जाती है?

लोग यहाँ तक कह रहे कि ‘ऐसी लड़कियों से क्या सहानुभूति रखना!’ कैसी लड़कियाँ भई?

क्या एक प्रेम भरे जीवन की कामना करना गलत है? लड़कियों की कंडीशनिंग ही ऐसी हुई है जहाँ वे कहने को तो सशक्त हो गईं हैं पर उम्र के हर दौर में अकेले रहने से आज भी डरती हैं। उन्हें हमेशा एक साथी की तलाश रहती है जिसके गले लग वे अपने सुख-दुख बाँट सकें। जिसके साथ हँसी के पल गुज़ार सकें। जिसकी उपस्थिति उन्हें इस एक तसल्ली से भर दे कि इतनी बड़ी दुनिया में एक व्यक्ति तो ऐसा है जो मेरा अपना है, जो मेरे लिए जीता है, जिसे इंतज़ार है मेरा। यह किसी एक श्रद्धा की ही नहीं बल्कि हर लड़की की कहानी है। स्वार्थ से भरी दुनिया में एक निश्छल मन की तलाश। एक कंधे की तलाश, जिस पर सिर रख वे अपने भविष्य के तमाम सुनहरे ख्वाब सँजोती हैं। वे भाग्यशाली लड़कियाँ जिनके भाई, मित्र या पिता उन्हें इस तरह का भावनात्मक सहारा दे पाते हैं, वे कभी लाश बनकर घर नहीं लाई जातीं। मरती वहीं हैं जिन्हें यह अहसास कराया जाता है कि चूँकि उन्होंने अपनी पसंद से जीवनसाथी चुन लिया है तो वे पलटकर मायके का मुँह कभी न देखें।

हद है!

आप लिव इन या प्रेम विवाह के विरोधी हो सकते हैं पर इनके नाम पर माँ-बाप की मर्ज़ी से हुई सभी शादियों को सही नहीं ठहरा सकते। वे रिश्तों की प्रगाढ़ता का अंतिम सत्य नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं तय की हुई शादियों में अनगिनत लड़कियाँ अचानक स्टोव में आग लगने की कहानी गढ़कर' ज़िंदा ही फूँक दी गईं, पिताओं की पगड़ी सड़क पर उछाली गई, कितनों ने स्वयं मृत्यु को गले लगा लिया कि उनके गरीब माता-पिता भेड़ियों को दहेज़ कब तक दे पाएंगे! कितनों ने इसलिए जीवन लीला समाप्त कर ली क्योंकि विदाई के वक़्त उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया गया कि 'लड़की की डोली मायके से उठती है और अर्थी ससुराल से!' उसके बाद गलती से लड़की घर आ भी गई तो समझा-बुझाकर लौटा दिया जाता है कि 'अब वही तुम्हारा घर है। थोड़े-बहुत झगड़े कहाँ नहीं होते!" 'पराया धन' का चाबुक दिन-रात उसे पड़ता है। क्षमा मांगते हुए संकोच के साथ कह रही हूँ कि 'यदि आपके लिए लिवइन या प्रेम विवाह गारंटी के साथ का रिश्ता नहीं है तो अरैन्ज मैरिज भी बिका हुआ माल वापिस नहीं होगा' जैसा ही है।

अब इस घटना का राजनीतिकरण होगा, हिन्दू-मुस्लिम ज़हर बोया जाएगा, विदेशी कनेक्शन, लव ज़िहाद और सौ बातें कह दी  जाएंगी लेकिन लड़कियों को ज्ञान बाँटता समाज अपनी जिम्मेदारी शायद ही कभी समझेगा। माना कि हम अपराधी को नहीं समझा सकते लेकिन सामाजिक, व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर नई पीढ़ी तक हमारी बात पहुँचाने और इन विषयों को समझाने की बहुत अधिक आवश्यकता है।

पर अपराध को धर्म से तौलने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के बीच, हमारे बच्चों को सामाजिक  व्यवहार, रिश्ते संभालने और उन्हें जीने का पाठ अब भी नहीं सिखाया जाएगा। जबकि हमें उनकी किशोरावस्था में यह बता देना चाहिए कि आँख मूँदकर साथी न चुनो, धोखा भी हो सकता है। उन्हें यह भरोसा भी देना चाहिए कि 'मेरे बच्चे, रिश्तों में खतरे का संकेत मिलते ही घर लौट आना। हमारा प्यार और आशीष सदा तुम्हारे साथ है।' जब तक हम अपनी इज़्ज़त और बच्चों में से ‘इज़्ज़त’ को बचाने पर आमादा रहेंगे, अपराधों में कमी का सोचना भी निरर्थक है।

-प्रीति अज्ञात

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