कृष्णा कल्पित जी ने जो लिखा, स्त्री के लिए ऐसी निकृष्ट भाषा का प्रयोग लगातार हो रहा है जिसमें प्रयुक्त शब्दों का व्याकरण में भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता पर इसको भी पसंद किया जा रहा है। इस दरबार में मत्था टेकने वालों का अपने घर की स्त्रियों के प्रति व्यवहार कैसा होगा एवं ये उन्हें किस दृष्टि से देखते होंगे, इसका भी अनुमान स्वत: ही लग सकता है।
ये न सिर्फ़ यौन कुंठित और घृणित सोच से ग्रस्त लोग हैं बल्कि अपनी पितृ-सत्तात्मक सोच पर चौतरफा हमले से भी बौखलाए हुए हैं। यदि समवेत स्वर में इनका विरोध नहीं किया गया तो कल ये अनामिका जी के लिए बोले थे, फिर गीताश्री के लिए.....अगला नंबर किसी का भी हो सकता है। इन दिनों हम सोशल मीडिया के उस दौर के गवाह हैं जहाँ विवादों की आड़ में व्यक्तिगत खुन्नस भरपूर निकाली जाती है। स्त्री को चुप करने का सबसे सुलभ तरीका है कि आप उसके चरित्र पर हमला कर दें, सौभाग्य है कि ऐसे पुरुष, कुत्सित मानसिकता के इतने गहरे कुँए में जा गिरे हैं कि इनका तो चरित्र भी ढूंढे नहीं मिलता। इनके समर्थकों का कहना है कि कृष्णा कल्पित जी ने तो विरोध देखते ही अनामिका जी के लिए लिखी गई अपनी पोस्ट हटा ली थी पर इन अंधभक्तों को ये नहीं दिखा कि फिर उन्होंने गीताश्री के लिए भी वही विष वमन किया। यानी इन्हें अपने कृत्य को लेकर न तो कोई शर्मिंदगी है और न ही दुःख! और ये सिलसिला इन शब्दों के लिखने तक जारी है।
कविता का विरोध होना गलत कभी नहीं रहा पर व्यक्तिगत आक्षेप आपकी सड़ी सोच का उदाहरण देते हैं। ऐसे लोगों के स्तर तक तो नहीं उतरा जा सकता पर उन्हें निकास का द्वार तो दिखाया ही जा सकता है। गुटबाजी और स्वार्थ से बाहर निकल सत्य का साथ दें तो ही आपका लेखन सार्थक है। पुरस्कार न मिल पाने की या चयन समिति में जगह न बना पाने की कुंठा और उससे उपजा लावा कई 'बुद्धिजीवियों' की पोस्ट पर पढ़ती आई हूँ। दुःखी होना या निराशा भी चलो, स्वाभाविक है! पर जनाब, असहमति का भी एक सलीक़ा होता है।
विरोध अपनी जगह है पर मर्यादित भाषा की उम्मीद यदि एक साहित्यकार से भी न की जा सके तो जरा सोचिए वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को आप क्या देकर जा रहे हैं?
वरिष्ठता मान पाती है और उसके मार्गदर्शन का आशीष पा युवा निहाल हो उठता है। पर समय के साथ मानवीय मूल्यों में भारी गिरावट आती जा रही है। दुःख होता है यह देखकर कि घृणा और कुंठा से भरा ह्रदय, भाषा को किस तरह विकृत कर देता है।
वो समय बीत चुका जब हम साहित्यकार को उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही जान पाते थे अब सोशल मीडिया में उनकी भाषा और व्यवहार भी दिखाई देता है। सभ्यता और असभ्यता का अंतर करना इतना कठिन भी नहीं, शेष जो कविता-शविता हैं, सब बाद की बातें हैं।
-प्रीति 'अज्ञात'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " 'बंगाल का निर्माता' की ९२ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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