शनिवार, 16 सितंबर 2017

सफ़रनामा

ट्रेन से जब- जब भी यात्रा करती हूँ तो सफ़र का अधिकांश हिस्सा साथ दौड़ते वृक्षों, खेतों, उसमें काम करते लोगों और बादलों की विविध आकृतियों को निहारते हुए ही निकल जाता है। काँच की खिड़की से बाहर झांकते समय, कूदते नन्हे बच्चों का चिल्ला-चिल्लाकर टाटा बोलना भी बड़ा मनोहारी लगता है। यूँ इन खिड़कियों से अक़्सर ही बाहर की आवाजें टकराकर वहीं ढेर हो जाती हैं पर उनके मासूम चेहरे का उल्लास मेरी इस धारणा को बेहद संतुष्टि देता है कि अभिव्यक्ति को सदैव शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, वो तो चेहरे और आंखों से भी ख़ूब बयां होती है।
बहुत बार यूँ भी हुआ कि ठुड्डी को हाथों पे धरे हुए ही रास्ता कटता गया और बीते जीवन के पृष्ठ फड़फड़ाते रहे। यात्रा आपको केवल गंतव्य तक ही नहीं पहुंचाती, बीच राह बहुधा खुद को खुद से मिलाते हुए एकालाप भी करती है।
ख़ैर... एक सेमिनार में बीकानेर जाना हुआ। आधा सफ़र, उन 8..9 प्यारी दोस्तों के साथ गुज़रा, जिनसे यह पहली ही मुलाक़ात थी। हम सभी उसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे थे। दिल से कहती हूँ यह अब तक की ट्रेन यात्राओं में, सबसे अलग और बेहद शानदार अनुभव था। हाँ, रात भर चटर-पटर के ईनाम में सहयात्रियों की बददुआएँ जरूर मिली होंगी। पर एक खिलखिलाते सफ़र के लिहाज से यह सौदा कुछ बुरा नहीं!
हर यात्रा एक नया अनुभव देती है। कितने किस्से होते हैं पर सब कहाँ लिखे जा पाते हैं।
#सफ़रनामा

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कुछ देर पहले ही माउंट आबू से एक सुंदर जोड़ा ट्रेन में चढ़ा। बैठते ही मेम साब ने साब को हुकुम दिया, " जल्दी से लस्सी ले आओ।"
साब, जो अभी बैठने की पोज़िशन लेने का मूड बना ही रहे थे, तुरंत अटेंशन मुद्रा में आ गए। लाड़ से अपने प्यारे से बेटे को निहारते बोले, "लाओ, इसे भी ले जाता हूँ।"
बीवी जी ने तुरंत ही मुंडी घुमाते हुए कहा, "नहीं, फिर दोनों ही छूट जाओगे।" :D
मेरी तो हँसी ही न रुकी तब :P
बहरहाल अंतिम सेकंड पर साब जी सफल हुए। विजेता की मुस्कान उनके चेहरे पे। :)
इधर मेमसाब ने फरमाइशों की अगली सूची जारी कर दी है।
पिलीज़, इस धमकाते अंदाज़ को 'स्त्री सशक्तिकरण' मत कहियो। 😢 :D
#सफ़रनामा

- प्रीति 'अज्ञात'

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