प्रेम, रात के काले साए को अपनी रौशनी से जगमग कर देने वाला ऐसा अनोखा मनमोहक जादूगर है जिसकी अदृश्य टोपी में ख़ुशियों के सैकड़ों उत्साही ख़रगोश सरपट दौड़ते नज़र आते हैं. यह आसमां से झांकता वो दूधिया चाँद भी है जो बेहद प्यारा और सारे जहाँ से निराला है. भले ही यह कभी पूरा, कभी आधा और कभी टिमटिमाकर गायब हो जाता है लेकिन अपनी उपस्थिति का अहसास सदैव ही बनाए रखता है.
यह रमज़ान की ईद है, विवाहिताओं का करवा-चौथ है. प्रेमियों की स्वप्निल उड़ान है. रात की नदी में डूबकर इठलाता, झिलमिलाता दीया है. बच्चे की उमंगों भरी मुस्कान है. स्याह अँधेरे के आदी मुसाफ़िर की आँखों में अचानक भरी चमकीली, सुनहरी उम्मीद है. यह अहसास इतना लुभावना और आकर्षक है कि मन पूछ बैठता है, "चाँद, तुम 'प्रेम' हो या 'प्रेम' तुम चाँद हो?"
प्रेम, दो जोड़ी आँखों से झांकता एक अदद सपना भी है. कहते हैं, प्रेम पाने नहीं खोने का नाम है. प्रेम दो पावन दिलों के एक हो जाने का नाम है. प्रेम का हर रंग सच्चा, हर रूप अच्छा; पर प्रेम बेसबब कितनी ख़्वाहिशें जगाता है! प्रेम, उदास रातों में अनगिनत तारे गिनाता है.
प्रेम, यादें है, अहसास है, ख़ुशी के छलकते आँसू है, उदासी की घनघोर घटा है, दर्द का बहता दरिया है, फूल है, ख़ुश्बू है, मुट्ठी में भरा आसमान है, बेवज़ह उभरती मासूम मुस्कान है. प्रेम कभी किसी बच्चे की तरह शैतान लगता है तो कभी उसका ही मासूमियत भरा भोला चेहरा भी ओढ़ लेता है.
कैसे परिभाषित करें इसे? शायद यह चंद मख़मली शब्दों में लिपटी गुदगुदाती, नर्म कोमल अनुभूति है. स्पर्श के बीज से उगी उम्मीद की लहलहाती फसल है. आँखों के समंदर में डूबती कश्ती की गुनगुनाती पतवार है. प्रेम, अकेलेपन का साथी है, दर्द है तो दवा भी. इसके बिना जीवन कैसा? यह तो प्रकृति की रग-रग में बसा है. भूखे को रोटी से प्रेम होता है और अमीर को पैसे से. माँ का प्रेम उसका बच्चा और बच्चे का प्रेम इक खिलौना. प्रेम हर रूप, हर रंग में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करता आया है. हर विशेषण इसके साथ जुड़ा और इसके असर से कोई भी न बच पाया है.
तभी तो सभी के जीवन में कोई न कोई ऐसा इंसान अवश्य ही होता है जिससे अपार स्नेह हो जाता है, दिल उसे हमेशा प्रसन्न देखना चाहता है और हर दुआ में उसका नाम ख़ुद-ब-ख़ुद शामिल होता जाता है. यद्यपि यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि उस इंसान की भावनाएँ भी आपके प्रति ठीक ऐसी ही हों. ऐसा होना अपेक्षित भी नहीं होता है पर फिर भी कभी-कभी कुछ बातें गहरे बैठ जाती हैं. दुःख देती हैं लेकिन धड़कनें तब भी हर हाल में उसी लय पर थिरकती हैं. उसकी तस्वीर को घंटों निहार कभी ख़ुशी तो कभी उदासी के गहरे कुएँ की तलहटी तक उतर जाती हैं. न जाने यह बेवकूफ़ी है....पागलपन या इस शख़्स का नितांत एकाकीपन कि अब तक वो यादें साँसों से लिपटी रहती हैं जब उसने अपने जीवन का प्रथम और अंतिम स्नेहिल स्पर्श किसी का हाथ थाम महसूस किया था. क्या पल भर की मुलाक़ात, चंद अल्फ़ाज़ और एक प्यारी-सी हंसी भी प्रेम की परिभाषा हो सकती है? होती ही होगी...वरना कोई इतने बरस, किसी के नाम यूँ ही नहीं कर देता! तुम इसे इश्क़/ मोहब्बत /प्यार /प्रेम या कोई भी नाम क्यूँ न दे दो.. इसका अहसास वही सर्दियों की कोहरे भरी सुबह की तरह गुलाबी ही रहेगा. इसकी महक जीवन के तमाम झंझावातों, तनावों और दुखों के बीच भी जीने की वज़ह दे जाएगी.
'इश्क़' के लिए तो एक पल ही काफ़ी है, ज़नाब! उसके बाद जो होता है वो तो इसको संभालकर रखने की रवायतें हैं. यद्यपि सारे प्रेम सच्चे हैं पर स्त्री-पुरुष के मध्य हुए प्रेम को ओवररेटेड किया गया है. सामाजिक प्रतिष्ठा से इसे जोड़ना प्रेमी युगल के सहज रिश्ते में उलझन, तनाव उत्पन्न कर देता है. परिवार, मान-मर्यादा की दुहाई दो हँसते-खेलते इंसानों का जीवन तबाह भी कर देते हैं.
वैसे देखा जाए तो, 'प्रेम' दीये की फड़फड़ाती लौ की तरह प्रारम्भ में और अंतिम समय में तीव्रता से अपनी चमक के साथ महसूस होता है परन्तु बीच की सारी प्रक्रिया तो इस लौ को जीवित बनाए रखने की जद्दोज़हद में ही निकल जाती है. कभी भावनाओं का तेल ख़त्म होता दिखाई देता है तो कभी बाती समय की आँधियों से जूझती थकी-हारी, निढाल नज़र आती है. यदि दोनों समय रहते अपने स्नेह को साझा करते रहें तो क्या मज़ाल कि उनकी दुनिया रोशन न हो! पर होता यह है कि तेल और बाती दोनों ही शेष रह जाते हैं और जोत जलती ही नहीं! धीरे-धीरे यह घुप्प अँधेरा रिश्तों को लीलने लगता है. जब बात समझ आती है तब समेटने को मात्र अफ़सोस रह जाता है लेकिन यह उत्तरदायित्व दोनों का है कि लौ जलती रहे. अन्यथा बाती दीये की उसी परिधि पर मुँह बिसूरे टिकेगी, जलेगी, प्रतीक्षा करेगी और अचानक बुझ जाएगी!
'प्रेम' की सारी बातें बेहद अच्छी हैं पर एक उतनी ही बड़ी ख़राबी भी है इसमें कि यह आता तो सबके हिस्से है पर ठहरता कहीं-कहीं ही है.....!
आज जबकि सियासी चालों, स्वार्थ और नफ़रतों के दौर में प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह है, सुनो! प्रेम...तुम तब भी उम्मीद की तरह हम सबके साथ बने रहना!
- प्रीति 'अज्ञात'
यह रमज़ान की ईद है, विवाहिताओं का करवा-चौथ है. प्रेमियों की स्वप्निल उड़ान है. रात की नदी में डूबकर इठलाता, झिलमिलाता दीया है. बच्चे की उमंगों भरी मुस्कान है. स्याह अँधेरे के आदी मुसाफ़िर की आँखों में अचानक भरी चमकीली, सुनहरी उम्मीद है. यह अहसास इतना लुभावना और आकर्षक है कि मन पूछ बैठता है, "चाँद, तुम 'प्रेम' हो या 'प्रेम' तुम चाँद हो?"
प्रेम, दो जोड़ी आँखों से झांकता एक अदद सपना भी है. कहते हैं, प्रेम पाने नहीं खोने का नाम है. प्रेम दो पावन दिलों के एक हो जाने का नाम है. प्रेम का हर रंग सच्चा, हर रूप अच्छा; पर प्रेम बेसबब कितनी ख़्वाहिशें जगाता है! प्रेम, उदास रातों में अनगिनत तारे गिनाता है.
प्रेम, यादें है, अहसास है, ख़ुशी के छलकते आँसू है, उदासी की घनघोर घटा है, दर्द का बहता दरिया है, फूल है, ख़ुश्बू है, मुट्ठी में भरा आसमान है, बेवज़ह उभरती मासूम मुस्कान है. प्रेम कभी किसी बच्चे की तरह शैतान लगता है तो कभी उसका ही मासूमियत भरा भोला चेहरा भी ओढ़ लेता है.
कैसे परिभाषित करें इसे? शायद यह चंद मख़मली शब्दों में लिपटी गुदगुदाती, नर्म कोमल अनुभूति है. स्पर्श के बीज से उगी उम्मीद की लहलहाती फसल है. आँखों के समंदर में डूबती कश्ती की गुनगुनाती पतवार है. प्रेम, अकेलेपन का साथी है, दर्द है तो दवा भी. इसके बिना जीवन कैसा? यह तो प्रकृति की रग-रग में बसा है. भूखे को रोटी से प्रेम होता है और अमीर को पैसे से. माँ का प्रेम उसका बच्चा और बच्चे का प्रेम इक खिलौना. प्रेम हर रूप, हर रंग में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करता आया है. हर विशेषण इसके साथ जुड़ा और इसके असर से कोई भी न बच पाया है.
तभी तो सभी के जीवन में कोई न कोई ऐसा इंसान अवश्य ही होता है जिससे अपार स्नेह हो जाता है, दिल उसे हमेशा प्रसन्न देखना चाहता है और हर दुआ में उसका नाम ख़ुद-ब-ख़ुद शामिल होता जाता है. यद्यपि यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि उस इंसान की भावनाएँ भी आपके प्रति ठीक ऐसी ही हों. ऐसा होना अपेक्षित भी नहीं होता है पर फिर भी कभी-कभी कुछ बातें गहरे बैठ जाती हैं. दुःख देती हैं लेकिन धड़कनें तब भी हर हाल में उसी लय पर थिरकती हैं. उसकी तस्वीर को घंटों निहार कभी ख़ुशी तो कभी उदासी के गहरे कुएँ की तलहटी तक उतर जाती हैं. न जाने यह बेवकूफ़ी है....पागलपन या इस शख़्स का नितांत एकाकीपन कि अब तक वो यादें साँसों से लिपटी रहती हैं जब उसने अपने जीवन का प्रथम और अंतिम स्नेहिल स्पर्श किसी का हाथ थाम महसूस किया था. क्या पल भर की मुलाक़ात, चंद अल्फ़ाज़ और एक प्यारी-सी हंसी भी प्रेम की परिभाषा हो सकती है? होती ही होगी...वरना कोई इतने बरस, किसी के नाम यूँ ही नहीं कर देता! तुम इसे इश्क़/ मोहब्बत /प्यार /प्रेम या कोई भी नाम क्यूँ न दे दो.. इसका अहसास वही सर्दियों की कोहरे भरी सुबह की तरह गुलाबी ही रहेगा. इसकी महक जीवन के तमाम झंझावातों, तनावों और दुखों के बीच भी जीने की वज़ह दे जाएगी.
'इश्क़' के लिए तो एक पल ही काफ़ी है, ज़नाब! उसके बाद जो होता है वो तो इसको संभालकर रखने की रवायतें हैं. यद्यपि सारे प्रेम सच्चे हैं पर स्त्री-पुरुष के मध्य हुए प्रेम को ओवररेटेड किया गया है. सामाजिक प्रतिष्ठा से इसे जोड़ना प्रेमी युगल के सहज रिश्ते में उलझन, तनाव उत्पन्न कर देता है. परिवार, मान-मर्यादा की दुहाई दो हँसते-खेलते इंसानों का जीवन तबाह भी कर देते हैं.
वैसे देखा जाए तो, 'प्रेम' दीये की फड़फड़ाती लौ की तरह प्रारम्भ में और अंतिम समय में तीव्रता से अपनी चमक के साथ महसूस होता है परन्तु बीच की सारी प्रक्रिया तो इस लौ को जीवित बनाए रखने की जद्दोज़हद में ही निकल जाती है. कभी भावनाओं का तेल ख़त्म होता दिखाई देता है तो कभी बाती समय की आँधियों से जूझती थकी-हारी, निढाल नज़र आती है. यदि दोनों समय रहते अपने स्नेह को साझा करते रहें तो क्या मज़ाल कि उनकी दुनिया रोशन न हो! पर होता यह है कि तेल और बाती दोनों ही शेष रह जाते हैं और जोत जलती ही नहीं! धीरे-धीरे यह घुप्प अँधेरा रिश्तों को लीलने लगता है. जब बात समझ आती है तब समेटने को मात्र अफ़सोस रह जाता है लेकिन यह उत्तरदायित्व दोनों का है कि लौ जलती रहे. अन्यथा बाती दीये की उसी परिधि पर मुँह बिसूरे टिकेगी, जलेगी, प्रतीक्षा करेगी और अचानक बुझ जाएगी!
'प्रेम' की सारी बातें बेहद अच्छी हैं पर एक उतनी ही बड़ी ख़राबी भी है इसमें कि यह आता तो सबके हिस्से है पर ठहरता कहीं-कहीं ही है.....!
आज जबकि सियासी चालों, स्वार्थ और नफ़रतों के दौर में प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह है, सुनो! प्रेम...तुम तब भी उम्मीद की तरह हम सबके साथ बने रहना!
- प्रीति 'अज्ञात'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें