सेवा, सुरक्षा और शांति; ये तीन शब्द हैं जिन्हें लेते ही यूनिफॉर्म में एक छवि उभर कर आती है, हमारी पुलिस की. वे लोग जो विपदा के समय में रक्षक बन किसी ईश्वरीय दूत की तरह हमें उबार ले जाते हैं. दुर्भाग्य यह कि ये रक्षक ही जब भक्षक बन जाते हैं. तब इनकी शिकायत किससे हो? कहाँ हो? कैसे हो? ये तमाम बातें प्रश्नचिह्न बन झूलती रहती हैं. कहते हैं जब सत्ता निरंकुश हो तो तंत्र- व्यवस्था भी बर्बर और पाशविक हो जाती है. हमारे देश में हर राज्य की परेशानी आम परेशानी अब तक नहीं बन पाई है. बात चाहे Seven Sisters की हो या South की, उनकी समस्या आम पब्लिक और मीडिया की नज़रों में जरा देर से ही आती है. तूतीकोरिन (Thoothukudi) की इस वीभत्स और अमानवीय घटना में भी ठीक यही हुआ. हैवानियत का ऐसा नंगा नाच कि रूह सिहर जाए.
मामला क्या था?
लॉकडाउन के दौरान पिता-पुत्र को, अपनी दुकान को खुला रखने के आरोप में सथानकुलम पुलिस 19 जून को गिरफ्तार करके ले गई थी. गिरफ़्तारी पूछताछ के नाम पर हुई थी. कहा जा रहा है कि दुकान बंद करने की कहते समय किसी ने पुलिस पर टिप्पणी की. बस यही उन्हें खल गया. उन्हें लगा कि टिप्पणी जयराज ने की. परिणामस्वरूप पहले जयराज को थाने ले जाया गया था. जब उनकी जानकारी लेने पुत्र वहाँ पहुँचा तो उसे भी इस हिंसक बर्बरता का शिकार होना पड़ा.
पुलिस की क्रूरता की घिनौनी कहानी-
पुलिसिया बर्बरता की ऐसी नृशंस घटना इस पीढ़ी ने कभी देखी-सुनी न होगी. उस घटना का संपूर्ण विवरण लिख पाना मेरे वश के बाहर की बात है, फिर भी कोशिश करती हूँ. आपको निर्भया याद है न? बस, उसी जघन्यता को दोहरा लीजिए. अंतर यही कि इस बार पीड़ित चेहरे दो पुरुषों के हैं. 'हैं' को 'थे' कर लीजिए क्योंकि भीषण शारीरिक यातना और गंभीर चोटों के चलते ये पिता-पुत्र दम तोड़ चुके हैं. उन्हें इस हद तक पीटा गया कि उनके शरीर का कोई भी हिस्सा सलामत न रहे.
पुलिस हिरासत में जयराज और उनके बेटे फीनिक्स को निर्वस्त्र कर उन पर लाठियों से ताबड़तोड़ वार किये गए. उनके चेहरों को दीवार पर मारा गया. उनके जननांगों को चीर दिया गया. अकथनीय यातनाओं के बाद रक्तस्त्राव इस हद तक था कि सात बार लुंगियां खून से भीगती रहीं. उसके बाद वहाँ कुछ शेष ही नहीं था. जयराज जी की बेटी और फीनिक्स की बहन इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं कह सकीं. पिता-पुत्र की मौत को लेकर तमिलनाडु में बहुत आक्रोश है. एक दिन पूरे राज्य में बंद का ऐलान भी हुआ. आरोपी पुलिसकर्मियों पर हत्या का मामला दर्ज किये जाने की मांग भी जोर पकड़ रही है.
न्याय कुछ यूँ हुआ -
सुनने में आया है कि इस घटना में शामिल कुछ पुलिसकर्मियों का ट्रांसफर हो गया है और जिन्होंने इस बर्बरता को अंजाम दिया वे बर्ख़ास्त किये जा चुके हैं.
माननीय मुख्यमंत्री जी ने मौतों पर शोक व्यक्त कर, प्रत्येक परिवार को 20 लाख रुपये और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा कर दी है. लेकिन भीषण यातना पर उनकी चुप्पी ही सब कुछ कह जाती है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने भी शारीरिक यंत्रणा की पुष्टि कर दी है. लेकिन सरकारें तो जाँच कमेटी बिठाकर ही सब जानने-समझने का ढोंग रचती आई हैं. वो क्या है न कि हम लोग तब तक भूल भी तो जाते हैं. आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि उन्होंने जांच का आदेश दे दिया है.
हम कब बोलेंगे?
पुलिस संरक्षण में हुई हत्या की या मानवाधिकारों के हनन की यह कोई पहली घटना नहीं है. हम कड़ी निंदा करते हुए वही पुराना राग भी अलापेंगे कि एक सभ्य समाज में ऐसी घटनाओं का कोई स्थान नहीं होता! इस समाज में कितनी सभ्यता शेष है, वह सेलेक्टिव चुप्पी ही ज़ाहिर कर रही है. क्या भविष्य होगा उस समाज का? जब राज्यों के नाम के आधार पर अपराध की जघन्यता की चर्चा होना तय होता है. चुप रह जाना सबसे सरल है, चादर तानकर ओढ़ लेना और भी आसान, लेकिन तब तक ही, जब तक कि पीड़ित के स्थान पर हम स्वयं या हमारा कोई अपना न खड़ा हो! क्या इस बार भी बोलने के पहले हम अपनी बारी की ही प्रतीक्षा करेंगे?
- प्रीति 'अज्ञात'
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अमानवीय. दोषियों को फाँसी की सज़ा मिलनी चाहिए.
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