मेरा मानना है कि रतलामी सेव और पोहे की जोड़ी ईश्वरीय देन है. इंदौर के लोग पोहे पर जितना इतराते हैं उतना ही रतलाम वाले अपने सेव पर. एक इंदौरी और रतलामी के बीच में स्वादिष्ट स्नेह का जो पुल बनता है न, वो पोहे की नमकीन वादियों से होकर ही गुजरता है. अब किसने किसको प्रसिद्ध किया, इस पर विवादित चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि ये दोनों शहर और यहाँ के लोग बहुत अच्छे और मिलनसार होते हैं. आग नहीं लगानी हमको!
ख़ैर! पोहे संग सेव ने राष्ट्र भर की रसोई में पैठ कब बना ली, इसका कोई प्रामाणिक तथ्य तो हमारे पास है नहीं. बस, ऐसा मानना है कि जबसे शरीर के ENT डिपार्टमेंट ने काम करना शुरू किया है तबसे इनकी जोड़ी अजर-अमर है. एक बार बैंगलोर एयरपोर्ट पर चटनी के साथ भी पोहा खाया था. ये कॉम्बिनेशन पहली बार ही देखा था पर स्वाद अच्छा था. वैसे भी जब भूख उग्र आंदोलन पर हो, मसाला चाय साथ हो तो हर बात हसीन लगती है और उस समय प्राप्त नाश्ता स्वादिष्ट होने की उच्चतम सीमा को प्राप्त कर मनुष्य के मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है.
वैसे इस बात को बताते हुए हमें भीषण दुःख और शर्मिंदगी का अनुभव हो रहा कि पोहा हमें उतना पसंद नहीं है जी. लेकिन अब हम ख़ुद ही अपनी स्वाद कलिकाओं को सॉरी बोलते-बोलते थक चुके हैं क्योंकि इधर घर में भी सबको संडे स्पेशल के रूप में यही पसंद. बच्चे हों या उनके पिताजी, सब मानकर ही चलते हैं कि आज तो ये देवी (हमहि) पोहा ही बनाएंगी. अब उनको कैसे बताएँ कि इस पोहे ने ही हमारे बचपन के हर संडे का नाश्ता ख़राब करने में अहम भूमिका निभाई है. मम्मी से पूछते, "नाश्ते में क्या है?" और उत्तर में पोहा सुनते ही हमारा चेहरा मुरझाये बैंगन सरीख़ा हो जाता. दिल ऐसा भिचभिचा जाता, मानो किसी ने अदरक समझकर कूट दिया हो. फिर अदरक, मिर्च, नींबू और आलू भुजिया मिलाकर जीवन एडजस्ट कर लेते थे. कई बार पापा चम्पू के समोसे, कचौड़ी भी ले आते थे, साथ में जलेबी भी. उसकी कहानी फिर कभी. अभी पोहे पर फोकस करते हैं.
हाँ, तो मैं कह रही थी कि पोहा, मनुष्य से कई गुना बेहतर सामाजिक प्राणी है. ये लड़ता नहीं किसी से. बल्कि इसके जैसा एडजस्टमेंट तो हमने किसी को भी न करते देखा. आलू, मटर, टमाटर, प्याज डालिए तो ख़ुश! मटर न हो तो मूँगफली के साथ मटरग़श्ती कर लेता है. करी पत्ता न हो तो धनिया को गले लगा लेता है. राई डालो या सौंफ़, सबको बराबर प्यार देता है. रतलामी सेव ख़त्म तो बीकानेरी भुजिया से दोस्ती निभा लेगा बच्चू. कुछ भी न हो तो नींबू के साथ ज़िंदाबाद के युगल गीत रचता है. इसके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर मैं इसे 'राष्ट्रीय नाश्ता' घोषित करने की माँग करती हूँ. हमें ही पोहे के अधिकारों के लिए खड़ा होना पड़ेगा! अब हर रविवार पूरा देश 'पोहा' ही खाएगा, इस डॉक्यूमेंट को लीगल कराने का समय आ चुका है.
अच्छा! हम एक अर्जेंट बात बताना तो भूल ही गए. वो ये है भिया कि आपको पोहा पसंद हो या नापसंद, ये आपकी मर्ज़ी! लेकिन किसी इंदौरी के सामने ग़लती से भी इसकी बुराई न कर दीजिएगा. सच्ची! वरना उधर ही आपकी झमाझम बेइज़्ज़ती की स्वर्ण रथयात्रा निकल जाएगी. लोग कटोरा भर-भर इतनी लानतें फेंकेंगे न कि आपकी आगे वाली सात पीढ़ियाँ 'पोहा' सुनते ही नमन कह उठेंगी. अपनी एक मिश्टेक की सज़ा पीढ़ियों को न देना बाबू!
- प्रीति 'अज्ञात'
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बहुत रोचक् लेख है प्रीति जी 👌👌👌👌🙏🙏🌹🌹
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