राखी की भी अपनी विकास यात्रा है। आज की रेशमी धागे संग रुद्राक्ष वाली स्लिम-ट्रिम राखी, कभी बड़ी हट्टी-कट्टी हुआ करती थी। पूरे 3-Tier वाली समझिए। यूँ तो यह विविध रंगों और प्रकारों में तब भी मिलती थी। सुनहरी और चाँदी के रंग वाली भी दुकानों पर सजी होती, जो भले ही उतनी मुलायम न थी पर भाई शान से पहनते। लेकिन एक बड़ी ही प्यारी सी राखी हुआ करती थी। जिसे लेकर छोटे बच्चों में ग़ज़ब का उत्साह रहता। उसमें नीचे की परत दो सेंटीमीटर ऊँचाई लिए चटक गुलाबी चौकोर स्पंज लगी होती, उसके ऊपर हरे या पीले रंग की गोल वाली इससे कुछ और ऊँची होती। उसके बाद 'मेरे भैया' को तरह-तरह की डिजाइन में लिखकर लगाया जाता। प्लास्टिक, धातु या कुछ और भी होता पर यह प्रायः यह स्वर्णिम अक्षरों में ही लिखा होता था। गोटा, सितारे भी लगे होते।
रेशमी डोर से जुड़ी, चमचमाती मोहब्बत से भरी ये राखी और मिठाई से सजा थाल लिए, नन्हे भाई को टीका लगाया जाता। जब ये पसंदीदा राखी उनकी कलाई पर सजती तो उनका चेहरा ही चमक उठता। वज्रदंती मुस्कान लिए वे सारी दुनिया में फ़न्ने खाँ बने घूमते। घुमा-घुमाकर सबको डिजाइन दिखाते। उस पर एक राखी का रिवाज़ भी न था। शाम तक सारे मोहल्ले की बहिनों से मिल आते। जब तक हाथ, कोहनी तक न भर जाए, चुन्नू जी का जी नहीं भरता था। त्योहार की छनाछन पूड़ी, कचौड़ी, बूंदी रायता, सेंवई की खीर और तमाम व्यंजन उदरस्थ करके अगले दिन स्कूल जाते तो जनाब रात को तकिये के बगल में सहेजी राखी पहनना न भूलते। माता-पिता थोड़ा समझाते, फिर छोड़ देते। स्कूल में भी ज्यादा नियम-कानून नहीं चलते थे। सो, पहुँचते ही सब बच्चे पूरी लगन से एक-दूसरे की राखियों की गिनती करते। जिसकी सबसे अधिक, उसके चेहरे का नूर और चाल की ठसक देखते ही बनती। गर्व से जो पिद्दी सा सीना चौड़ाते, उसका तो कहना ही क्या!
अच्छा! इस रौब में बालकों को इस बात का तनिक भी दुख न रहता था कि रक्षाबंधन वाली सुबह ही बहिन की चोटी पकड़ उसे घसीट रहे थे और बदले में माँ ने पीठ पर पाँचों उंगलियों का लड्डू पिरसाद एक साथ धरा था। पापा ने भी बस चप्पल निकाल ही ली थी, वो तो निशाना लगने से एन पहले ही बहना रानी ने रोक लिया वरना त्योहार के कई अतिरिक्त प्रमाण पत्रों के साथ स्कूल पहुँचना तय ही था। दादी माँ ने भी याद दिलाया था कि त्योहारों पर लड़ाई-झगड़ा ठीक नहीं! इतने लच्छन तो सीख ही लो बच्चों!
अब बच्चे बड़े हो गए हैं और उनकी राखियाँ छोटी। त्योहार आता है, चला जाता है। जब सब साथ थे, तो उनके साथ रेडियो भी निरंतर बजता। जिसे सुनकर लगता कि संभवतः हमारी फ़िल्मों में बहिनों ने भाई पर अधिक लाड़ बरसाया है सो उनके गीत ज्यादा हैं। लेकिन 'मेरे भैया, मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन', 'भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना', 'बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है', गीत के बाद जैसे ही अपने खंडवा वाले किशोर का एक गीत आता 'फूलों का तारों का सबका कहना है', इसे सुन सारा मलाल दूर हो जाता। मन आत्ममुग्धता से लबालब हो उठता और लगता कि ये तो बस हमारे लिए ही लिखा गया है। हमारी इठलाहट भी कोई कम न थी तब।
आजकल समय और राखियों की डिजाइन दोनों बदल गए हैं। वो पुरानी राखियाँ अब नहीं लुभाती, शायद आती भी न हों। यूँ पारंपरिक राखियों में चंदन, मोती और रेशमी धागे वाली राखी सदाबहार है। सोने, चाँदी वाली भी आती हैं। एक देखने जाओ, हजार प्रकार मिल जाएंगे। लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य आज एक समाचार पढ़कर हुआ कि अब बुलडोज़र बाबा वाली राखियाँ भी बाज़ार में हैं। भई, कृपया हमारी राखियों को इस सबसे दूर रखिए। रिश्तों की सौम्यता में ये ऊबड़खाबड़ वस्तुएं ठीक नहीं लगतीं। आज बुलडोज़र आया, कल कोई बंदूक लगा देगा! त्योहार का कौन सा भाव इसमें निहित है भला? खैर! जो जी में आया सो कह दिया। बाकी तो इतनी विशाल दुनिया में हम क्या और हमारी बात की क़ीमत भी क्या!
आपके पास भी बहुत सी यादें होंगी न? उन्हीं यादों की पोटली संग आपको रक्षाबंधन की शुभकामनाएं और स्नेह। भाई-बहिन का प्यार सदा बना रहे।
- प्रीति अज्ञात 11 अगस्त 2022
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