फरवरी माह में जब लता जी ने इस दुनिया से विदाई ली तो सबकी जुबां पर सर्वप्रथम स्वर साम्राज्ञी का गीत ‘नाम गुम जाएगा’ ही आया। समाचारों ने भी इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया। उस समय लता जी से बिछोह का दुख इस हद तक रहा कि इस युगल गीत से जुड़ी दूसरी आवाज पर चर्चा ही न हो सकी! समय भी कहाँ उचित था! किसे पता था कि उसी वर्ष ही इस अमर गीत का साथी भी बिछड़ते हुए पुनः स्मरण करा जाएगा कि ‘मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे!’
और देखिए, भूपिंदर की वो खरज़ से भरी आवाज़ आज रह-रहकर याद आ रही है। कई बार यूँ भी लगता है कि हिन्दी फ़िल्म संगीत ने आम आदमी के हर भाव को कैसे और कितना भीतर तक उतार लिया है कि इनके बिना जीवन की कल्पना ही बेमानी सी लगने लगती है! हम गीतों को ही ओढ़ते, पहनते हैं। इन्हीं के सहारे जीते-मरते हैं। ऐसे में एक दिन यह मनहूस ख़बर आती है कि हमारे दर्द और प्रतीक्षा को स्वर देती शख्सियत ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया तो दिल यक़ीन करना ही नहीं चाहता! लोग उम्र बताने लगते हैं लेकिन विदाई की सही उम्र तो कोई भी नहीं होती, कभी भी नहीं होती! हाँ, किसी प्रिय का चले जाना हर बार यह अनुभव अवश्य दे जाता है कि अपनी व्यस्त दुनिया में हम न जाने कितने अपनों का शुक्रिया कहना भूल गए हैं!
भले भूपिंदर की आवाज़ हर नायक पर फ़िट नहीं बैठती थी और उनके गाए गीतों की संख्या, समकालीन गायकों से कम रही हो लेकिन गुणवत्ता के मामले में वे किसी से उन्नीस कभी न रहे। जो भी गाया, रूह से गाया और यूँ गाया जैसे हमारे अहसासों को घोलकर पी लिया हो!
उनकी आवाज़ तमाम प्रेमियों की प्रतीक्षा की आवाज़ है। जब वे कहते हैं कि ‘किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है’ तो लगता है कि यह दर्द अकेले सुरेश ओबेरॉय का नहीं, इसके राज़दार और भी हैं! कोई और भी है जो उदासी की गहरी खाई में से बार-बार पुकार रहा है कि ‘कहाँ हो तुम, ये दिल बेक़रार आज भी है!’
लेकिन यही आवाज़ जब शोखी में डूबती है और विशुद्ध शैतानी, छेड़खानी की नीयत भर निकलती है तब भी उसमें एक संस्कार और अनुशासन दिखाई देता है। याद कीजिए, ‘हुज़ूर इस क़दर भी न इतरा के चलिए!’ गीत को। सईद जाफ़री ने पूरी शिद्दत के साथ इसे अपने अभिनय से कुछ यूँ और इस क़दर सँवारा है कि आज भी जब यह बजता है तो स्त्रियाँ अपने स्त्रीत्व को ले एक ठसक भरी मुस्कान लिए पल्लू लहरा उठती हैं। कहते हैं, संगीत सम्राट तानसेन ने जब मेघ मल्हार राग गाया तो आसमान तक उसकी दस्तक़ जा पहुँची थी। भूपिंदर ने भी इस गीत में कुछ ऐसा ही जादू कर डाला है।
कभी किसी को यूँ पता देते सुना है? जैसा वे ‘मेरे घर आना ज़िंदगी’ में कहते हैं कि ‘मेरे घर का सीधा सा इतना पता है...!’ लेकिन इस अविश्वसनीय सी लगने वाली बात को भी दिल सच मानने लगता है। पक्का यक़ीन हो जाता है कि हाँ, यही तो हमारे घर का भी पता है। तब ही तो मन मचलकर साथ गुनगुनाने लगता है ‘न दस्तक जरूरी, न आवाज़ देना/ मेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है!’
यही भूपिंदर और सबके लाड़ले भूपी जब ‘बीती न बिताई रैना’ में बिरहा के किस्से सुनाते हैं तो ‘चाँद की बिंदी वाली रतिया’ से शिकायतें थोड़ी कम होने लगतीं हैं और मन उस आवाज़ में अधिक भीगने लगता है।
स्मृतियों के पन्ने पलट, हर कोई बीते दिनों के फुरसत भरे लम्हों में लौट जाना चाहता है लेकिन मौसम को इतनी बेक़रारी और खूबसूरत अंदाज़ से भला कौन याद करता है! पर भूपी हैं न! वे हमारा हाथ थाम हमें उस गुजरे वक़्त के पास फिर बिठा आते हैं।
ज़िंदगी की ज़द्दोजहद में फंसा आदमी याद करता है- ‘जाड़ों की नरम धूप और आँगन में लेटकर/ आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को/ औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए’ या ‘गर्मियों की रात जो पुरवाइयाँ चलें/ ठंडी सफेद चादरों पे जागें देर तक/ तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए’ और इसी के साथ ही कुछ दशक पहले की तमाम रातें एलबम का रूप धर लेती हैं।
जब प्रेम में डूबे जोड़े की आँखों में उनके अपने घर के स्वप्न झिलमिलाते हैं या कि प्रेमी जोड़े के सपनों की दुनिया साकार होने लगती है तो भूपिंदर हौले से आकर उस मोहब्बत में अपने रंग कुछ यूँ उड़ेल जाते हैं कि कभी इश्क़ के दो दीवाने शहरी मुसाफ़िर ‘असमानी रंग की आँखों में मिलने के बहाने ढूंढने लगते हैं’ तो कभी उनके लिए ‘तारे जमीं पर चलते हैं।’ लेकिन यही गीत जब दर्द में भर अपने शब्दों को पुनः ढालता है तो जीवन संघर्ष से जूझता हर आदमी कराह उठता है। उसके दर्द की सारी दास्तान, गहरी टीस लिए उसके सामने से गुजरने लगती है। उसके निराशा में डूबे मन और टूटती आस को जैसे भूपी अपने भीतर समाहित कर लेते हैं। गुलज़ार के अल्फ़ाज़ का दुख भूपी के दिल में घर कर लेता है और बेबसी में डूबती आवाज़ बाहर आती है – ‘एक अकेला इस शहर में।’
ये आवाज़ हर अकेले इंसान को जैसे गले लगा लेती है। उसका दिल कुछ और भर आता है। गला रुँधने लगता है, जब भूपिंदर उसका हाल-ए-दिल परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। ‘दिन खाली खाली बर्तन है/ और रात है जैसे अंधा कुआँ/ इन सूनी अँधेरी आँखों में/ आँसू की जगह आता हैं धुँआ/ जीने की वज़ह तो कोई नहीं/ मरने का बहाना ढूँढता है।’ आदमी इस सच्चाई से अवाक है। चुप रहता है पर उसकी आँखें झरना बन चुकी हैं।
संगीत के पुजारियों से चाहे-अनचाहे एक भावनात्मक रिश्ता बन जाता है। विडंबना यह है कि उनके जाने के बाद ही हम याद करने बैठते हैं कि जीवन के जाने कितने मोड़ों पर वे हमारे साथ चले हैं।
जुदाई के स्याह बादल अब और भी जोरों से बरसने लगे हैं। आसमां अब दिखता नहीं। बस पानी ही पानी है हर तरफ। एक आवाज़ साये के रूप में यह कहते हुए अब भी साथ दे रही है -
‘बरसता भीगता मौसम धुआं-धुआं होगा/ पिघलती शम’अ पे दिल का मेरे गुमाँ होगा/ हथेलियों की हिना, याद कुछ दिलाएगी/ करोगे याद तो, हर बात याद आएगी!
यक़ीनन यही हो रहा है! विदा प्रिय गायक!
- प्रीति अज्ञात 22 जुलाई 2022 के स्वदेश में प्रकाशित
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