यह प्रश्न कि आप कहाँ की हो या कि आपका शहर कौन-सा है? सदैव ही असमंजस में छोड़ जाता है मुझे, अजीब लग सकता है पर मैं जब-जब होती हूँ जहाँ-जहाँ, तब-तब बस वहीं की ही होकर रह जाती हूँ.
प्रत्येक शहर में छूटता जाता है, कुछ-कुछ मेरा हिस्सा और कुछ मैं ही हो जाती हूँ ऋणी इसकी; क्योंकि ज्यूँ ही रखती हूँ क़दम उस धरती पर....ओढ़ लेती हूँ वहाँ की धूप, श्वांसों को मिलती है गति वहीं की वायु से, जीवित रखता है मुझे उसी शहर का जल और भोजन...तभी तो आज मेरी उपस्थिति कृतज्ञ है, हर बीते शहर की.
यूँ भी नहीं कि इतनी भाग्यवान हूँ और सुखद ही रही हों सारी स्मृतियाँ, किसी शहर, किसी यात्रा, किसी व्यक्ति से, कभी भी नहीं मिली हो पीड़ा.............मिली है, असहनीय मिली है, पर तब भी मैंने शहर को नहीं धिक्कारा और उन पलों को गिनती गई जिनमें सुख के तमाम जुगनू
चमचमा रहे थे उत्साह से, मेरी निराशा, मेरी उदासी, मेरा दुःख
खाना चाहता था मुझको पर मेरी आशा, मेरा विश्वास, मेरा साहस
सदैव निगलता रहा उसको.
मैं जानती हूँ हर शहर मेरा है तो जब तुम पूछते हो कहाँ की हो?
मैं पड़ जाती हूँ सोच में, किसे याद करूँ? वो घर जहाँ मैंने जन्म लिया, माता-पिता की गोदी में खेली, पढ़ाई की या कि छुट्टियों में दादा -दादी, नाना-नानी का घर, जहाँ स्नेह की छाँव में ऊँची कुलाँचें भरता रहा मेरा बचपन. मेरी सखियों के घर, रिश्तेदारों-परिचितों के घर जहाँ तमाम उत्सवों, शादी-ब्याह का उल्लास भरता रहा जीवन का इंद्रधनुष.
अहा! कितनी यात्राएँ, कितने शहरों में....अलग-अलग संस्कृतियों से जुड़ाव, एकदम अपना सा ही तो लगता है सब कुछ.
अब बताओ मैं कहाँ की हूँ?
मुझमें लखनवी सभ्यता है
तो चम्बल की गर्ज़ना भी
बनारसी मिठास है तो
दिल्ली का ठसका भी
मैं पंजाब का पनीर हूँ
यू पी की खीर हूँ
गुजरात की गांधीगिरी
राजस्थान की शमशीर हूँ
उत्तर में दर-बदर
तय किये कितने सफ़र
दक्षिण की बाँहों में भी
झूली हूँ कितने पहर
हर जगह मेरे अपने
वही मेरा जहान है
पूरब में सूरज चचा
पश्चिम में आसमान है
कैसे चुनूँ किसी एक को
जब दिल हुआ हिन्दुस्तान है
- प्रीति 'अज्ञात'
प्रत्येक शहर में छूटता जाता है, कुछ-कुछ मेरा हिस्सा और कुछ मैं ही हो जाती हूँ ऋणी इसकी; क्योंकि ज्यूँ ही रखती हूँ क़दम उस धरती पर....ओढ़ लेती हूँ वहाँ की धूप, श्वांसों को मिलती है गति वहीं की वायु से, जीवित रखता है मुझे उसी शहर का जल और भोजन...तभी तो आज मेरी उपस्थिति कृतज्ञ है, हर बीते शहर की.
यूँ भी नहीं कि इतनी भाग्यवान हूँ और सुखद ही रही हों सारी स्मृतियाँ, किसी शहर, किसी यात्रा, किसी व्यक्ति से, कभी भी नहीं मिली हो पीड़ा.............मिली है, असहनीय मिली है, पर तब भी मैंने शहर को नहीं धिक्कारा और उन पलों को गिनती गई जिनमें सुख के तमाम जुगनू
चमचमा रहे थे उत्साह से, मेरी निराशा, मेरी उदासी, मेरा दुःख
खाना चाहता था मुझको पर मेरी आशा, मेरा विश्वास, मेरा साहस
सदैव निगलता रहा उसको.
मैं जानती हूँ हर शहर मेरा है तो जब तुम पूछते हो कहाँ की हो?
मैं पड़ जाती हूँ सोच में, किसे याद करूँ? वो घर जहाँ मैंने जन्म लिया, माता-पिता की गोदी में खेली, पढ़ाई की या कि छुट्टियों में दादा -दादी, नाना-नानी का घर, जहाँ स्नेह की छाँव में ऊँची कुलाँचें भरता रहा मेरा बचपन. मेरी सखियों के घर, रिश्तेदारों-परिचितों के घर जहाँ तमाम उत्सवों, शादी-ब्याह का उल्लास भरता रहा जीवन का इंद्रधनुष.
अहा! कितनी यात्राएँ, कितने शहरों में....अलग-अलग संस्कृतियों से जुड़ाव, एकदम अपना सा ही तो लगता है सब कुछ.
अब बताओ मैं कहाँ की हूँ?
मुझमें लखनवी सभ्यता है
तो चम्बल की गर्ज़ना भी
बनारसी मिठास है तो
दिल्ली का ठसका भी
मैं पंजाब का पनीर हूँ
यू पी की खीर हूँ
गुजरात की गांधीगिरी
राजस्थान की शमशीर हूँ
उत्तर में दर-बदर
तय किये कितने सफ़र
दक्षिण की बाँहों में भी
झूली हूँ कितने पहर
हर जगह मेरे अपने
वही मेरा जहान है
पूरब में सूरज चचा
पश्चिम में आसमान है
कैसे चुनूँ किसी एक को
जब दिल हुआ हिन्दुस्तान है
- प्रीति 'अज्ञात'
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