'रोटी, कपड़ा और मकान' जीवन की मूलभूत आवश्यकता है. मेहनत से रोटी और कपड़े की व्यवस्था तो हो जाती है पर दो दशक पहले तक मध्यमवर्गीय इंसान के लिए अपना मकान एक स्वप्न ही था. सारी कमाई खाने-पीने, बच्चों की स्कूल फ़ीस और घरेलू खर्चों में ही ख़त्म हो जाया करती थी. जैसे-तैसे करके कुछ धन जोड़ा भी जाता था, तो वह भी शादी-ब्याह में पल भर में स्वाहा हो जाया करता था. ऐसे में 'अपना घर' सोचना और मन-मसोसकर रह जाना ही इन परिवारों की नियति थी. भारतीय फिल्मों में भी इस इंसानी चाहत को ख़ूब भुनाया गया है और 'दो दीवाने शहर में......आशियाना ढूँढते हैं' हो या 'देखो मैंने देखा है ये इक सपना, फूलों के शहर में हो घर अपना' गीत दर्शकों की इसी आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते नज़र आते रहे हैं.
बदलते समय के साथ सुविधाओं में भी वृद्धि हुई. बैंकों से लोन मिलने लगे और अपने घर तक पहुँचने की नई राहें खुलने लगीं पर यह ऋण भी ब्याज सहित चुकाना होता है. इसे चुकाने के लिए न जाने कितनी बार अपनी इच्छाओं में कटौती करनी पड़ती है, मन-मारकर रह जाना पड़ता है पर अपने सपनों के पल्लवित होने की आशा लिए यह सब सह जाता है आदमी.
लेकिन वही सपनों का महल जब पल भर में धराशायी हो जाए तो उस इंसान के दिल पर क्या गुज़रती होगी यह समझना मुश्किल नहीं! मुश्किल ग़र कुछ है तो वो है भ्रष्टाचार से लड़ना, उस व्यवस्था से उम्र-भर जूझना जिसके आगे आप निरीह, लाचार नज़र आते हैं! ये कैसी नियति है कि वो घर जिस पर आपका मालिकाना हक था, उसका सुख भोगे बिना आप या तो मलबे के ढेर के नीचे दम तोड़ देते हैं या फिर आपके हिस्से आई वसीयत में न्याय की आस में अदालत-दर-अदालत चप्पलें घिसना लिखा होता है.
इमारतों का ढहना कंक्रीट और रेत की चादर का भरभराना भर नहीं है यह परिश्रमजनित उन स्वेद कणों की भी बड़ी निर्मम मौत है जिसके लिए किसी व्यक्ति ने अपना दिन-रात एक कर दिया था. ये लाशें उन उम्मीदों की अंतिम विदाई है जो एक हँसते-खेलते परिवार को कफ़न की श्वेत चादर ओढ़ा वहीं दम तोड़ देती हैं. जो शेष हैं उनके हिस्से वो कराहता, छटपटाता स्वप्न है जिसे देखने के लिए वे जीवन भर अपने-आप को कोसेंगे.
हम कड़ी निंदा, भर्त्सना करेंगे और प्रशासन आश्वासन देगा. उस मुआवजे की घोषणा भी अवश्य होगी जिसे पाने के लिए आपको तमाम कार्यालयों की देहरी पर वर्षों नाक रगडनी होगी. लेकिन तब भी मौत का यह खेल जारी रहेगा...इन कमजोर इमारतों, पुलों का बनना और गिर जाना कभी नहीं रुकेगा. क्यों रुके? कभी किसी बिल्डर को फांसी चढ़ते देखा है?लोकतंत्र की मोटी त्वचा में भ्रष्टाचार के नुकीले दांत इतना भीतर और गहरे धँसे हुए हैं कि जान लेकर ही बाहर आते हैं और फिर कहीं दूसरे शिकार को घोंपने चल पड़ते हैं.
चलो, सपनों का छोडो...इस दर्द की भरपाई कौन करेगा?
आम जनता की जान की क़ीमत क्या है?
जीवन भर खटने के बाद उसके हिस्से में क्या आया?
कोई बाढ़ में बह गया तो कोई आँसुओं की नदी में....
बात यहाँ आकर भी ख़त्म नहीं होती.
अभी तो मुआवज़े की बंदरबाँट होना शेष है.
- प्रीति 'अज्ञात'
#टूटती_इमारतें #भ्रष्टाचार
Image Credit: Google
बदलते समय के साथ सुविधाओं में भी वृद्धि हुई. बैंकों से लोन मिलने लगे और अपने घर तक पहुँचने की नई राहें खुलने लगीं पर यह ऋण भी ब्याज सहित चुकाना होता है. इसे चुकाने के लिए न जाने कितनी बार अपनी इच्छाओं में कटौती करनी पड़ती है, मन-मारकर रह जाना पड़ता है पर अपने सपनों के पल्लवित होने की आशा लिए यह सब सह जाता है आदमी.
लेकिन वही सपनों का महल जब पल भर में धराशायी हो जाए तो उस इंसान के दिल पर क्या गुज़रती होगी यह समझना मुश्किल नहीं! मुश्किल ग़र कुछ है तो वो है भ्रष्टाचार से लड़ना, उस व्यवस्था से उम्र-भर जूझना जिसके आगे आप निरीह, लाचार नज़र आते हैं! ये कैसी नियति है कि वो घर जिस पर आपका मालिकाना हक था, उसका सुख भोगे बिना आप या तो मलबे के ढेर के नीचे दम तोड़ देते हैं या फिर आपके हिस्से आई वसीयत में न्याय की आस में अदालत-दर-अदालत चप्पलें घिसना लिखा होता है.
इमारतों का ढहना कंक्रीट और रेत की चादर का भरभराना भर नहीं है यह परिश्रमजनित उन स्वेद कणों की भी बड़ी निर्मम मौत है जिसके लिए किसी व्यक्ति ने अपना दिन-रात एक कर दिया था. ये लाशें उन उम्मीदों की अंतिम विदाई है जो एक हँसते-खेलते परिवार को कफ़न की श्वेत चादर ओढ़ा वहीं दम तोड़ देती हैं. जो शेष हैं उनके हिस्से वो कराहता, छटपटाता स्वप्न है जिसे देखने के लिए वे जीवन भर अपने-आप को कोसेंगे.
हम कड़ी निंदा, भर्त्सना करेंगे और प्रशासन आश्वासन देगा. उस मुआवजे की घोषणा भी अवश्य होगी जिसे पाने के लिए आपको तमाम कार्यालयों की देहरी पर वर्षों नाक रगडनी होगी. लेकिन तब भी मौत का यह खेल जारी रहेगा...इन कमजोर इमारतों, पुलों का बनना और गिर जाना कभी नहीं रुकेगा. क्यों रुके? कभी किसी बिल्डर को फांसी चढ़ते देखा है?लोकतंत्र की मोटी त्वचा में भ्रष्टाचार के नुकीले दांत इतना भीतर और गहरे धँसे हुए हैं कि जान लेकर ही बाहर आते हैं और फिर कहीं दूसरे शिकार को घोंपने चल पड़ते हैं.
चलो, सपनों का छोडो...इस दर्द की भरपाई कौन करेगा?
आम जनता की जान की क़ीमत क्या है?
जीवन भर खटने के बाद उसके हिस्से में क्या आया?
कोई बाढ़ में बह गया तो कोई आँसुओं की नदी में....
बात यहाँ आकर भी ख़त्म नहीं होती.
अभी तो मुआवज़े की बंदरबाँट होना शेष है.
- प्रीति 'अज्ञात'
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संवेदनशील आलेख
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19.7.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3037 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २३ जुलाई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
निमंत्रण
विशेष : 'सोमवार' २३ जुलाई २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीया निशा नंदिनी भारतीय जी से करवाने जा रहा है। जिसमें ३४० ब्लॉगों से ग्यारह श्रेष्ठ रचनाएं भी शामिल हैं। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
लिखना जरूरी है।
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