'संजू' फ़िल्म प्रारम्भ में ही यह लिखकर अपनी सारी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ स्वयं को सुरक्षित कर लेती है कि "यह आत्मकथा नहीं है।" तो फ़िर टीज़र में इसे संजय दत्त की आत्मकथा कहकर क्यों प्रमोट किया जा रहा है? और रणबीर को संजू के अवतार में ढालने और इतने बवाल की क्या तुक थी? यहाँ तक कि कई इंटरव्यू में भी इस बात को स्वीकारा जा चुका है।
संजय दत्त के जीवन पर आधारित यह फ़िल्म मूलतः दो बातों के लिए याद रखी जायेगी, पहली रणबीर की शानदार परफॉरमेंस और दूसरी मीडिया की सच्ची तस्वीर खींचने के लिए। ख़बरों को मसालेदार, चटपटा बनाने के लिए उसे कैसे तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है और एक प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर क़ानूनी अड़चनों से कैसे बचा जाता है, इस तथ्य को यहाँ सटीकता के साथ उकेरा गया है। टी.आर.पी की अंधी दौड़ से तो हम सब वाक़िफ़ हैं ही।
संजू का ड्रग्स की लत को छोड़ने और सुनील दत्त के सामने रोने का दृश्य निस्संदेह भावुक कर जाता है पर कुछ अन्य दृश्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बुरी आदतों का ठीकरा दत्त साब पर फोड़ते हुए वे रत्ती भर भी संवेदना नहीं बटोर पाते। अरे, लड़का नालायक़ निकलेगा, बुरी संगत में पड़ेगा तो पिता टोकेगा नहीं? उनके समय में तो थप्पड़ ही मिलता था। वे चाहते तो दत्त साब से सेवाभाव सीख सकते थे, जैसा उनकी बहनों ने सीखा पर उन्होंने अपनी परेशानियों का हल ड्रग्स में ढूंढ निकाला तो पिता क्या करे? माँ मौत के मुंह में और बेटे को लड़कियों के साथ की और ड्रग्स की तलब उठ रही! कभी सुना, देखा किसी ने ऐसा!!
ग़लतियों पर सुपर रिन की चमकार मारते समय फ़िल्म में एक स्थान पर बताया गया है कि सुनील दत्त सिगरेट पीते थे और उन्हें ऐसा करते देख ही संजू बाबा ने बचपन में इसका क़श लगाना प्रारम्भ कर दिया था। उनकी इन्हीं बिगड़ती आदतों के कारण उन्हें बोर्डिंग स्कूल में भेजना पड़ा। चलो, ये बात मानी जा सकती है। लेकिन फ़िर अंतिम दृश्य के लिए कोई माफ़ी नहीं, जहाँ सिगरेट सुलगाते हुए संजू अपने बच्चों से कहते हैं कि "तुम अपने पापा जैसा नहीं, मेरे पापा जैसा बनना।" ठीक है, पर आप कब सुधरेंगे जनाब? यदि यही बात उन्होंने सिगरेट को पैरों तले मसलते हुए या फेंकते हुए कही होती तो यह दृश्य प्रभावी बन सकता था।
फ़िल्म की दो घटनाएँ अत्यधिक निंदनीय हैं एक में नायक अपनी पत्नी के सामने निर्लज़्ज़ होकर स्वीकारता है कि उसने 350 से अधिक स्त्रियों के साथ दैहिक सम्बन्ध बनाये हैं। वहीं दूसरी घटना में वह अपने मित्र के सो जाने पर उसकी गर्लफ्रेंड के साथ भी यही करता है। इससे भी ज्यादा शर्मनाक उसका अपने मित्र को यह कहना कि "मैं चेक़ कर रहा था, लड़की में भाभी मटेरियल है कि नहीं! नहीं यार! इसका चरित्र अच्छा नहीं। मैनें तुझे बचा लिया।" उस समय थिएटर में उपस्थित लड़कों का ताली पीटकर सीटी बजाना यह सुनिश्चित कर देता है कि आदर्शवाद के तमाम ढोंग रचाने के बाद भी स्त्रियों की स्थिति वही है। शादी के लिए सबको वर्जिन चाहिए पर चरित्र प्रमाणपत्र देते हुए एक पल को भी इनकी नज़रें शर्मिंदगी से नहीं झुकतीं! ताली क्या एक हाथ से बजती है? यदि ये दृश्य संजय दत्त की ईमानदारी और सच्चाई को बेझिझक बयां करने की नीयत से रखे गए थे तो इन्हें इतने हल्केपन से नहीं फ़िल्माना चाहिए था। फ्लैशबैक में आत्मग्लानि का बोध होते हुए भी दिखाया जा सकता था, पर वे तो यह बात मर्दानगी के घमंड में बोलते नज़र आये। सचमुच निर्माता विधु विनोद चोपड़ा और निर्देशक राजू हिरानी की फ़िल्म में ऐसे दृश्य बेहद खलते हैं क्योंकि ये दोनों अच्छे एवं संवेदनशील फिल्मकार माने जाते रहे हैं, उनकी कई फ़िल्में भी इस बात की साक्षी हैं पर लगता है कि उनकी इस संवेदनशीलता पर संजय दत्त की मित्रता भारी पड़ गई। तभी तो उन्होंने इस फ़िल्म में अश्लीलता से भरपूर, द्विअर्थी संवाद रखने में भी कोई गुरेज़ नहीं किया। संजू फ़िल्म से किसी को लाभ हो या न हो पर अपनी इस सोच के कारण यह जोड़ी तो नुक़सान में ही रहेगी।
रणबीर के अभिनय का लोहा अब सभी मानते हैं और यह फ़िल्म उनके लिए मील का पत्थर साबित होगी इसमें दो राय नहीं। जहाँ तक संजू का प्रश्न है तो उन्हें स्वयं को सही सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं थी। हो सकता है कि वे अपने पापा का नाम ख़राब करने के लिए अब राजनीति में भी प्रवेश को इच्छुक हों और अपनी छवि को स्वच्छ करने हेतु यह फ़िल्म बनवाई हो /अथवा अपने क़रीबी मित्रों की चाहत पूरी करने के लिए स्वीकृति दी हो। पर बेहतर यही होता कि वे ऐसा करने से बचते। उन पर हथियार रखने का जो आरोप था उसके लिए वे अपने हिस्से की सज़ा काट चुके हैं और उनकी फ़िल्मों के अच्छे आंकड़ों को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि जनता उन्हें माफ़ कर चुकी थी। वरना मुन्ना भाई इतना रिकॉर्ड तोड़ बिज़नेस नहीं करती। इसलिए भले ही उन्होंने कितनी भी सच्ची और ईमानदार कहानी कहलवाने की कोशिश की है फिर भी अंत में उनके लिए एक ही बात उभरती है कि 'नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज़ को चली।'
फ़िल्म का गीत-संगीत अच्छा और अनुकूल है। 'कर हर मैदान फ़तह' शानदार, प्रेरणात्मक गीत है जो वर्षों गुनगुनाया जाएगा। 'मैं बढ़िया तू भी बढ़िया' शादी-ब्याह में ख़ूब बजेगा। अखबार गीत भी सटीक है पर मीडिया उसके प्रचार से बचती नज़र आ रही है।
परेश रावल, अनुष्का, सोनम, मनीषा सभी कलाकार अपनी जगह बेहतरीन है। मित्रता के भावपूर्ण रिश्ते को इस फ़िल्म में बहुत अच्छी तरह दर्शाया गया है और कमलेश के रोल को इतनी जीवंतता से निभाने के लिए विकी कौशल बधाई के पात्र हैं। यह फिल्म उनके लिए और भी कई रास्ते खोल सकती है।
यदि आप रणबीर कपूर के प्रशंसक हैं तो 'संजू' फ़िल्म आपको कहीं भी निराश नहीं करेगी। शानदार अभिनय और जी-तोड़ मेहनत के लिए रणबीर कपूर को पूरे 5 स्टार, सामान्य फ़िल्मों और विशुद्ध मनोरंजन के लिए इसे देखा जाए तो 3 और अच्छी-ख़ासी चलती ज़िंदगी में अतिरिक्त सहानुभूति बटोरने की संजू बाबा की बेतुकी कोशिशों के लिए ज़ीरो बटा सन्नाटा।
- प्रीति 'अज्ञात'
#Sanju#Ranbir#Vicky_Kaushal
Pic. Credit: Google
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