मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

बीतता हुआ वर्ष

किसी वर्ष का गुज़र जाना उन अधूरे वादों का मुँह फेरते हुए चुपचाप आगे बढ़ जाना है जो प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में स्वयं से किये जाते हैं। ये उन ख्वाहिशों का भी बिछड़ जाना है जो किसी ख़ूबसूरत पल में अनायास ही चहकने लगती हैं। ये समय है उन खोये हुए लोगों को याद करने का, जिनसे आपने अपना जीवन जोड़ रखा था पर अब साथ देने को उनकी स्मृतियाँ और चंद तस्वीरें ही शेष हैं! कई बार बीता बरस कुछ ऐसा छीन लेता है जो आने वाले किसी बरस में फिर कभी नहीं मिल सकता! हम सभी, हर वर्ष अपने किसी-न-किसी प्रिय को हमेशा के लिए खो देते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर हुई इस क्षति की भरपाई कभी नहीं की जा सकती।

ये अक्सर होता है और सबके ही साथ होता आया है कि वर्ष के आख़िरी लम्हों को जीने का अहसास मिश्रित होता है। जैसे ही सुख की एक झलक आँखों में चमक बन उभरती है ठीक तभी ही समय, दुःख की लम्बी चादर ओढ़ा उदास पलों की एक गठरी बना मन को किसी एकाकी कोने में छोड़ आता है। लेकिन बीतते बरस और आने वाले बरस के बीच का ये लम्हा जितना बड़ा दिखता है, उतना होता नहीं! सारा खेल इसी क्षण का है। यही एक क्षण नई उम्मीदों, नई योजनाओं, नई महत्त्वाकांक्षाओं को जन्म देता है साथ ही पुरानी ग़लतियों को न दोहराने की कड़वी सीख भी देता है। कुल मिलाकर बारह माह बाद आत्मावलोकन की अनौपचारिक, अघोषित तिथि है यह....वरना नए साल में रखा क्या है! आम आदमी के जीवन में इससे कोई बदलाव नहीं आता पर यह नई उमंगों का संचार अवश्य करता है।  

हम उत्सवों के देश में रहते हैं। जहाँ हर कोई ख़ुश होने एवं तनावमुक्त रहने के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता है। हमें उल्लास की तलाश है, हम मौज-मस्ती में डूबना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हमें कोई न टोके। ऐसे में कोई त्योहार, छुट्टी या फिर ये नया साल अवसर बनकर आते हैं, जिसे दिल खोलकर मनाने में कोई चूकना नहीं चाहता। अन्यथा इन बातों के क्या मायने हैं? सब जानते हैं कि साल बदल जाने से किसी के दिन नहीं फिरते और न ही भाग्य की रेखा चमकने लगती है। कुछ नया नहीं होता! पुरानों को ही झाड़-पोंछकर चमका दिया जाता है। 
नववर्ष कैलेंडर में तिथि का बदल जाना भर है! शेष सब बाज़ार के बनाये उल्लास हैं, भीड़ है, लुभाने में जुटे व्यापार हैं। मनुष्य का इन सबकी ओर आकर्षित होना उसके सामाजिक होने का प्रथम लक्षण है। अपने सुख-दुःख के चोगे से बाहर निकल नववर्ष का स्वागत एक आवश्यक परम्परा है, जिसे सबको निभाना चाहिए क्योंकि यही प्रथाएँ हमें जीवित रखती हैं, मनुष्य की मनुष्यता से मुलाक़ात कराती हैं।
- प्रीति 'अज्ञात' #repost 

नया साल मुबारक़

नया साल जैसे-जैसे क़रीब आता जाता है, उसी गति के समानुपाती मस्तिष्क की सारी सोई हुई नसें आपातकालीन जागृत अवस्था को प्राप्त होती हैं। यही वो दुर्भाग्यपूर्ण समय भी है जो आपको स्वयं से किये गए उन वायदों की सूची का फंदा लटकाये मिलता है जिसे देख आप शर्मिंदगी को पुनः बेशर्मी से धारण कर बहानों का नया बुलेटिन जारी करते हैं। यहाँ पिछली जनवरी से अब तक किये गए कारनामों की झांकी साथ चलती है। जी, हाँ यही वो ज़ालिम माह है जिसमें सी.आई.डी. के आखिरी दो मिनटों की तरह बीते ग्यारह महीनों के सारे गुनाहों की लंबी फ़ेहरिस्त आँखों के आगे इच्छाधारी नागिन की तरह फुफकारती नज़र आती है।

आप उन पलों को याद कर भावुक हो उठते हैं कि कैसे बीती जनवरी के पहले ही दिन आप सुबह- सुबह उठकर नहाने और सूर्योदय देखने का पुण्य कमा लिए थे। चूँकि मम्मी ने बचपन में बताया था कि साल के पहले दिन सब काम अच्छे से करो तो पूरा साल अच्छा बीतता है। यही सोच उस दिन पुरुष पोहे में जली हुई मूंगफली को काजू समझ चुपचाप गटक लेते हैं। माँ बच्चे को बिल्कुल भी नहीं डाँटती और अपना गुस्सा सप्ताहांत के लिए होल्ड कर देती है। बच्चे थोड़े अलग स्मार्ट टाइप होते हैं तो मनचाहा काम बेख़ौफ़ होकर करते हैं।
पर एक बात तो तय है कि हर उम्र जाति के लोगों के मन में 1 जनवरी को सारे उत्तम विचार उसी तरह छटपटाते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में मेंढक उचक उचककर बाहर निकलते हैं।

सबसे क्यूट (हमारी टाइप के), वे लोग होते हैं जो मॉर्निंग वाक की शुरुआत की तिथि एक जनवरी तय करते हुए चुपचाप ही कैलेंडर पर पेंसिल से बिलकुल अपने ही जैसा एक प्यारा-सा गोला बना देते हैं, कुछ इस तरह कि बस उन्हें ही दिखे!   और संक्रांति पर इरेज़र से मिटा डालते हैं। 
मने जो भी हो, जनवरी में सबको नहा-धो के, चमचमाते चेहरों पे हंसी का पलस्तर चढ़ाके ही एकदम हीरो-हिरोइनी टाइप एंट्री मारनी है। थिंग्स टू डू एंड नॉट टू डू की सूची दिसम्बर की पहली तारीख़ से बनना शुरू हो जाती है और 31 दिसंबर तक तमाम मानवीय कम्पनों और हिचकिचाहटों से गुजरते हुए एक भयंकर भूकंप पीड़ित अट्टालिका की तरह भग्नावशेष अवस्था में नज़र आती है। मुआ, पता ही न चलता कि क्या फाइनल किया था और क्या लिखकर काट दिया था। आननफानन में एक नई तालिका बनाकर तकिये के कवर के अंदर ठूँस दी जाती है और फिर होठों को गोलाई देते हुए, उनके बीच के रिक्त स्थान से बंदा उफ्फ़ बोलते हुए भीतर की सारी कार्बन डाई ऑक्साइड यूँ बाहर फेंकता है कि ग़र ये श्रेष्ठतम कार्यों की सूची न बनती तो इस आभासी सुकून के बिना रात्रि के ठीक बारह बजे हृदयाघात से उसकी मृत्यु निश्चित थी। 
  
और इसी तरह भांति-भांति के मनुष्य अपने मस्तिष्क के पिछले हिस्से की कोशिकाओं का विविधता से उपयोग करते हुए अत्यंत ही नाजुक पर मुमकिन-नामुमकिन के बीच पेंडुलम-सा लटकता पिलान बना ही डालते हैं। लेकिन भैया, ये एकदम Exam की तैयारी जैसा ही है।   Exam अर्थात परीक्षा वह दुर्दांत घटना या कृत्य है जो जाता तो अच्छा है पर आता नहीं! तभी तो सब लोग परीक्षक को कोसते नज़र आते हैं कि हमने तो ख़ूब मेहनत की थी फिर भी नम्बर नहीं आये. जालिमों, बस एक बार अपने दिल पर हाथ रखकर पूछो कि तुम्हारी कोशिशों में कितनी ईमानदारी थी!!अच्छा! अब इत्ता सेंटी होने की जरूरत भी नहीं! वरना फ्रिज में प्रतीक्षा की बाँहें फैलाए बैठा स्ट्रॉबेरी केक और माइक्रोवेव में double cheese  की वादियों में खदकता farm house pizza बुरा मान जाएगा!एक जरुरी बात और बताती चलूँ कि ये हर बात में Veggie burger, Veg. chilly paneer और subway में Multigrain bread के साथ ढाई मन fat भर-भरकर खाने वाले लोग स्वास्थ्य के प्रति सजग होने की जो नौटंकी करते हैं न, उसमें भी क्यूटनेस ओवरलोडेड होती है। बिल्कुल.... टाइप के।   
कोई न! ये सब तो चलता ही रहेगा जी। 
आने वाला वर्ष 2020 आप सबको ख़ूब मुबारक़ हो! 
बस एक बात गाँठ बाँध लो कि अगर कहीं कट्टर बनना बहुत जरुरी लगे तो बस 'कट्टर भारतीय' बन जाना। 
 - प्रीति 'अज्ञात'
#happynewyear #welcome2020 

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे!

मोहम्मद रफ़ी का नाम जब-जब सामने आता है तब-तब स्मृतियों में उनका वह सादगी भरा मुस्कुराता चेहरा स्वत: ही घूमने लगता है. एकदम सहज, सरल, हँसमुख. शायद ही कोई भारतीय होगा जो उनके गीतों का दीवाना न रहा हो. आज जब गूगल ने अपना डूडल उन्हें समर्पित किया तो उनके सदाबहार गीत और सुमधुर आवाज की सुरमई रागिनी फ़िज़ाओं में झूमने लगी.
उनका गाया कौन-सा गीत सबसे प्रिय है, यह तय करना उतना ही मुश्क़िल है जैसे कोई किसी माँ से पूछे कि तुम्हें कौन-सा बच्चा अधिक प्यारा है.

रफ़ी साब ने हर रंग, हर विधा, हर मूड के गीतों को अपने स्वरों की जो अनमोल सरगम दी है वह संगीत प्रेमियों के लिए नायाब तोहफ़े की तरह है. अहा, क्या ख़ूब आवाज़ और कितनी सुन्दर अदायगी. उनके गायन का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि श्रोता तुरंत समझ जाते थे कि यह गुरुदत्त पर फिल्माया गया है या देव आनंद पर. राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर दिलीप कुमार, ऋषि कपूर, अमिताभ, शशि कपूर और न जाने कितने ही नायकों को शिखर पर पहुंचाने में इनकी आवाज का अतुलनीय योगदान रहा है. नौशाद, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, रवि, ओ पी नैयर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी और रफ़ी जी ने श्रोताओं के अगाध स्नेह के साथ-साथ कई राष्ट्रीय एवं फिल्मफेयर पुरस्कार भी प्राप्त किये.

मोहम्मद रफ़ी गाते नहीं, शब्दों को जीते थे. उनके गीत युवाओं की धड़कन, उनके अहसास की अभिव्यक्ति का माध्यम थे. ये उनका जादू ही है जो अब तक हम सबके सिर चढ़कर बोलता है.
उनकी आवाज़ के बिना आज भी न तो कोई बारात दरवाजे पहुँचती है और न ही दूल्हा घोड़ी से उतरता है, जब तक बैंड वाले 'बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है.' नहीं बजा लेते. विदाई के भावुक पलों में उनका ही गाया 'बाबुल की दुआएँ लेती जा' या 'चलो रे डोली उठाओ कहार' वातावरण को भाव-विह्वल कर देता है. समाज की भावनाओं का साक्षात प्रतिबिम्ब बन गई है उनकी आवाज़.

किसी भी प्रेमी की आशिक़ी उनके बिना अधूरी है और अपनी महबूबा के रूठने-मनाने से लेकर उसके हुस्न की तारीफ़ करने में वह इन्हीं का सहारा लेकर आगे बढ़ता है. याद कीजिये- तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, ए-गुलबदन, चौदहवीं का चाँद हो, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं, तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है, तारीफ़ करूँ क्या उसकी, यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो और ऐसे कितने ही सदाबहार गीतों के माध्यम से जवाँ दिलों की क़ामयाब मोहब्बत की नींव पड़ी है.
इनके आंदोलित करते गीतों ने भी प्रेमी-युगलों को समर्थन की ताजा साँसें उपहार में दी हैं. मुग़ल-ए-आज़म में जब ये अपनी बुलंद आवाज़ में 'ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद' गाते हैं तो उस दशक से लेकर अब तक के लाखों प्रेमी उनके साथ एक रूहानी सुकून महसूस कर कह उठते हैं, 'है अगर दुश्मन, दुश्मन..जमाना ग़म नहीं, ग़म नहीं'
हर जवां दिल ने 'एक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने' और 'अभी न जाओ छोड़कर...' से अपनी प्रेमिका की मनुहार की है. जहाँ 'एहसान तेरा होगा मुझ पर' से कठोर दिलों में नरमी भरी है वहीं 'झिलमिल सितारों का आँगन होगा' से आशाओं के सैकड़ों दीप भी प्रज्ज्वलित हुए हैं.

उदासी और विरह में रफ़ी जी के नग़मों के साथ बैचेनी भरे पल कटते हैं और प्रेमी-प्रेमिकाओं के आँसुओं की अविरल धार और प्रेम से उपजी पीड़ा की निश्छलता में भी इन्हीं के सुरों की प्रतिध्वनि गुंजायमान होती है. कौन भूल सकता है इन गीतों को, जिन्होंने विरह-काल में उसी महबूब की यादों की दुहाई दी है.... दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, क्या हुआ तेरा वादा, मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम, तेरी गलियों में न रखेंगे क़दम आज के बाद.

मस्ती और शैतानी भरे गीतों से रफ़ी साब ने जो बिंदास और खिलंदड़पन भरे पल  दिए हैं, उनका तो कहना ही क्या! तैयब अली प्यार का दुश्मन हाय हाय, नैन लड़ जईहैं तो मनवा मा कसक होइबे करी,बदन पे सितारे लपेटे हुए, हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो, इशारों-इशारों में दिल लेने वाले....सूची ख़त्म नहीं होगी. इन जैसे समस्त गीतों की प्रशंसा के लिए एक ही शब्द है..याहू!!!!
 
'कर चले हम फ़िदा जान-ओ- तन साथियों' जैसे अनगिनत देशभक्ति के गीतों को भी रफ़ी साब ने इतनी ही शिद्दत से गाया है कि आज भी उन्हें सुनकर शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है और मन भीतर तक भीग जाता है.

कहते हैं दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत रिश्ता या तो ईश्वर से होता है या फिर मित्र से. यह हम श्रोताओं का सौभाग्य है कि इन दोनों ही रिश्तों को अपने शब्दों की प्राणवायु से पल्लवित करने में इनका कोई जवाब नहीं! तभी तो 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज', 'ओ दुनिया के रखवाले' ह्रदय को भीतर तक झकझोर कर रख देते हैं.
'दोस्ती' फ़िल्म का प्रत्येक गीत इस सुन्दर रिश्ते की तरह हर राह साथ चलता है. कहते हैं यह फ़िल्म जिसने भी देखी, वह फूट-फूटकर रोया था. मैंने यह दस वर्ष की उम्र में देखी थी और तब से आज तक इस रिश्ते की शक्ति पर विश्वास क़ायम है. 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे', 'मेरा तो जो भी क़दम है', राही मनवा दुःख की चिंता क्यूँ सताती है' जैसे गीतों की अमिट छाप आज तक ह्रदय पर अंकित है और उदासी के समय मन 'मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया' गुनगुनाने लगता है.

'आदमी मुसाफिर है' जैसे कितने ही दार्शनिक और हृदयस्पर्शी गीतों में इनकी ही स्वर-लहरियों का भावनात्मक संचार हुआ है. निराशा के भीषण पलों में 'ये दुनिया ये महफ़िल', गीत कितना सच्चा और अपना-सा लगता है. प्यासा और कागज़ के फूल फिल्मों का प्रत्येक गीत नए गायकों के लिए एक पाठ्यक्रम की तरह है. जिसने ये गायकी सीख ली वो तर गया.
दशकों बाद भी वर्तमान परिवेश में इस गीत की सार्थकता कम नहीं हुई है ....ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया /ये इन्सान के दुश्मन समाजों की दुनिया /ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया /ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है
वाह्ह, वाह्ह और फिर वाह्ह्ह!

चुरा लिया है तुमने जो दिल को, इतना तो याद है मुझे, चलो दिलदार चलो, तेरी बिंदिया रे, तुम जो मिल गए हो, आज मौसम बड़ा बेईमान है, दीवाना हुआ बादल....जैसे हजारों गीतों की लम्बी श्रृंखला है जहाँ अपना सबसे प्रिय गीत चुन पाने से दुरूह कार्य और कुछ नहीं! छोड़ ही दीजिए.

सच तो यह है कि रफ़ी साब के युग को कुछ शब्दों में समेट लेना न तो आसान है और न ही संभव. यह तो बस स्नेहसिक्त प्रयास भर है उनकी आवाज़ को दिल से सुनने, सलाम करने का!
ठीक ही कहा था आपने, 'तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे /हाँ तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे /जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे/ संग संग तुम भी गुनगुनाओगे'
गुनगुना रहे हैं, सर! :) हम सबका स्नेह और धन्यवाद क़बूल करें.
-प्रीति 'अज्ञात'

2017 में लिखे इस आलेख को ichowk की इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -

रविवार, 15 दिसंबर 2019

चाय पे अराजनीतिक चर्चा


चाय का पहला घूँट, किसने कब लिया था, यह तो याद नहीं होगा. पर इतना तो आप सबको जरूर याद रह गया होगा कि बचपन में गर्मियों या दीवाली की छुट्टियों में जब-जब ददिहाल या ननिहाल जाना हुआ है, तब-तब भगोना भर खदकती चाय से सामना होता रहा है. चूल्हे पर चढ़ी चाय, घूँघट काढ़े परिवार की स्त्रियाँ अपनी-अपनी मांओं का आँचल पकड़े घर के भुक्खड़ बच्चे और आसपास चहलक़दमी करते पुरुष; संयुक्त परिवार की यह सबसे ख़ूबसूरत और नियमित तस्वीर हुआ करती थी.
सर्दियों में अदरक वाली चाय की महकती ख़ुशबु का जादू ही कुछ ऐसा था कि हड्डियों को ठिठुरा देने वाली सर्दी भी बड़ी भली लगती थी. चाय के सामने आते ही स्वेटर की बाहों में कुंडली मारे छुपे दोनों हाथ रेंगते हुए बाहर आते और लपककर कुल्हड़ को थाम लेते. कुल्हड़ में आ जाने के बाद चाय की महक़ और स्वाद दोगुना बढ़ जाता. परिवार इकठ्ठा बैठता, ठहाके लगते और चाय का चूल्हे पर चढ़ना-उतरना, लगभग दो घंटे की शॉर्ट फिल्म की तरह चलता.
कुछ नवाबी सदस्य देर से उठते और अंगड़ाई लेते हुए सीधा रसोईघर या आंगन की तरफ खिंचे चले आते. उनकी अलसाई पलकों से एक ही प्रश्न झांकता, "चाय बन गई क्या? हाँ, मेरी छान दो." चाय के साथ थाली भर-भर घर के बने चिप्स, सूखा नाश्ता या गरमागरम पोहा परोसा जाता, तो कभी कचौड़ी-समोसे का लम्बा दौर चलता जो जलेबी के आने तक जारी रहता. अजीब लगते हैं न वो दिन, कैसे सब कुछ हज़म कर जाते थे! फिर उसके बाद भोली आँखों से यह पूछना भी कभी न भूलते कि 'आज खाने में क्या है?"
चाय के साथ सिर्फ़ बातें ही नहीं होती थीं, दिल भी जुड़ते थे. इस चाय ने घर को कैसे बांध रखा था! इसका हर सिप एक नई ताजगी देता था. चाय पर चर्चा, हंसी-ठट्ठा और कभी-कभी गंभीर वार्तालाप घर-घर की कहानी थी. बेहद सुहानी थी.
समय के साथ-साथ परिस्थितियों में परिवर्तन आया तो चाय पर इसका असर होना स्वाभाविक ही था. यह भी ठिठककर ग्रामीण कुल्हड़ से कंफ्यूज गिलास और फिर शहरी कप में आन बसी. बीते चार दशकों में इसकी जितनी वैराइटी आई हैं उतनी वैराइटी तो हमारे नेताओं में भी देखने को नहीं मिलती (यह सुखद है).
पहले चाय का मतलब सिर्फ़ चाय ही होता था. बढ़ती महंगाई ने इसकी ऊंचाई घटाकर इसे 'कटिंग' बना दिया और अब इस 'कटिंग' को भी रेलवे वाले 'चम्मच' बनाने पर तुले हुए हैं. दस रुपये में घूंट भर चाय पीकर ऐसा लगता है कि उन्होंने हमें सर्दी से बचाने के लिए दो चम्मच पत्ती वाला सिरप दे दिया हो. पहले हर स्टेशन पर चाय पीने की जो लत थी, वो टीवी चैनलों की कृपा से छूटती जा रही है. उन्होंने ही सबसे पहले यह ज्ञान दिया था कि हम चाय नहीं 'ज़हर' पी रहे हैं.
मिलावटी सामग्री और केमिकल के इस्तेमाल की ख़बर ने घर से बाहर उपलब्ध चाय के सम्मान में गिरावट लाई ही थी कि घरों में भी चायवादी गुट बन गए. सबकी अपनी मांगें हैं. किसी को ब्लैक टी चाहिए तो किसी को ग्रीन. किसी को कम दूध वाली तो किसी को ज्यादा दूध वाली. कभी स्ट्रॉन्ग (इसका तात्पर्य आज तक समझ नहीं आया पर इसका श्रेय लिप्टन 'टाइगर' चाय को ही जाना चाहिए) तो कभी मीठी. मधुमेह के रोगियों के लिए बिना चीनी वाली. 'आइस्ड टी' के प्रशंसकों की भी कमी नहीं. एक समय 'डिप' वाली चाय का गंभीर दौर भी चला था. हम जैसे चाय प्रेमियों ने इसे 'जैक एन्ड जिल' वाली राइम की तरह तुरंत ही याद भी कर लिया था. जो इतने वर्षों बाद भी आज तक याद है - "dip,dip... add the sugar & milk... and is ready to sip... do u want stronger, dip it little longer... dip, dip, dip."
वैसे चाय को मध्यम वर्ग का पसंदीदा पेय बनाने का श्रेय ज़ाकिर हुसैन को जाता है. चाय पीते-पीते मुंह से जो 'वाह' निकलती है, इस लफ्ज़ की अदायगी हम सबने ज़ाक़िर साब से ही सीखी है. बाद में उर्मिला मातोंडकर भी आईं, पर विज्ञापन में उनकी चाय का कप खाली होने का संदेह होता था. बल्कि दिखता ही था कि उन्होंने खाली कप ही उठाया है. लेकिन 'ताज' का असर और यादें आज भी ताजा हैं. कंपनियों ने चाय की बढ़ती ख़पत देख, शुगर-फ्री लांच कर दिया... यानी सबका साझा प्रयास यही रहा कि चाय का साथ कभी न छूटे... 'प्राण जाए, पर चाय न जाए' की तर्ज़ पर''.
कहते हैं जो पति, अपनी पत्नी को मॉर्निंग टी बनाकर देते हैं, उनका जीवन बड़ा ही सुखमय गुज़रता है.
बॉलीवुड ने भी चाय को हाथोंहाथ भुनाया है. "शायद मेरी शादी का ख्याल, दिल में आया है... इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पे बुलाया है" गीत में टीना मुनीम, राजेश खन्ना को चाय पर बुलाने का सामाजिक अर्थ समझा रहीं हैं. तो "इक गरम चाय की प्याली हो, कोई उसको पिलाने वाली हो' में अनु मलिक, सलमान के माध्यम से सिने प्रेमियों को चाय की आड़ में गृहस्थ जीवन में प्रवेश का सुविचार बताते दृष्टिगोचर होते हैं.
निष्कर्ष यह है कि चाय के घटते-बढ़ते स्वरुप, पात्र के प्रकार और आकार, विविध विज्ञापनों का युग, स्वाद का ड्रास्टिक मेकओवर, ट्रेन में बार-बार उबालकर परोसे जाने के बावज़ूद भी, किटली कल्चर का आगमन इस तथ्य की ओर सीधा संकेत देता है कि इस गर्म पेय का भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल और सुनहरा है.
अतिथि के आने पर घर में कुछ न हो, कहीं जाने की जल्दी हो; तब भी हम इतना अनुरोध तो अवश्य ही करते हैं, "अरे, चाय तो पीकर जाइए." जब दो मित्र साथ बैठते हैं तो सबसे पहली बात यही, "चल, चाय पीते हैं."
अपने जीवन को रिवाइंड कीजिए, एक कप चाय ने कितने स्नेहिल दिलों से मिलवाया होगा.
चाय हमारी संस्कृति है, सत्कार का संस्कार है, एक तरल बंधन है जो मिल-बैठकर बात करने को उत्साहित करता है, स्नेह बढ़ाता है. रिश्तों को नई उड़ान देता है. चाय से सुबह की ऊष्मा है, दोपहर की ऊर्जा है और शाम की थकान को दूर भगाती तरावट है. चाय सच्चे साथी की तरह हमें अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करती है. चाय है, तो दिन है.. चाय नहीं, तो रात है! ये हमारे मन की बात है!
- प्रीति 'अज्ञात' (Dec.2017)
#Repost *Photo Credit- Google
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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

बस...अब और नहीं

रेप का विरोध करने वालों और अपराधियों को दंड देने के लिए धरना देकर बैठने वालों को घसीटकर हटाया जाता है लेकिन बलात्कारियों के हाथ थाम, उन्हें पूरी सुरक्षा मुहैया कराते हुए बाइज़्ज़त उनकी ससुराल पहुँचाया जाता है। यहाँ वे मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ते हुए सकुशल समय बिताते हैं और बाहर आते ही पीड़िता को ज़िंदा जला देते हैं। वे जानते हैं कि इस बार भी उन्हें वर्षों से चले आ रहे लचर न्याय-तंत्र का उत्तम संरक्षण प्राप्त होगा। 
 
पीड़िता का गुनाह यह कि उसने रेप की शिकायत पुलिस से कर दी। 
पीड़िता का गुनाह यह कि उसने न्याय-व्यवस्था पर विश्वास किया। 
पीड़िता का गुनाह यह कि उसने अपने जीवन को जीने की हिम्मत रखी और बलात्कारियों के विरोध में खड़े होकर सच कहने से नहीं हिचकिचाई!
पीड़िता का दुर्भाग्य यह कि जिस समाज के बीच उसने ये सच कहा, उन्हीं के सामने वह चीखती-जलती हुई चलती रही और सबने तमाशा देखा। 
पीड़िता का दुर्भाग्य यह कि उसी असहनीय पीड़ा के साथ उसने स्वयं सहायता के लिए फ़ोन लगाया। 
पीड़िता का दुर्भाग्य यह कि उसने उस शहर में आवाज उठाई जहाँ का विधायक स्वयं दुष्कर्म में लिप्त हो ठसके से घूमता रहा है।

झूठों और मक्कारों  की दुनिया में सच का कोई मोल नहीं!
आम इंसान के जीवन का भी कोई मोल नहीं!  
वे लोग जिनसे हम न्याय के लिए गिड़गिड़ाते हैं, उन्होंने ख़ुद को सबका ख़ुदा समझ लिया है।  
ये कैसा समय है कि सीमाओं पर सैनिक देश के लिए जान दे रहे हैं और सीमाओं के भीतर स्त्रियों की जान ली जा रही है। 

सौ बार सोचती हूँ कि अब कभी नहीं लिखूँगी। अच्छे से जान गई हूँ कि ये आक्रोश न तो ख़त्म होगा और न ही इससे कोई समाधान ही निकलेगा। पर इन दिनों स्त्रियों की जो मनःस्थिति हो रही है वो एक स्त्री से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता! उससे होता क्या है पर!! नहीं लिखना है अब कुछ और... 
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

दुर्योधन और दुःशासन का बोलबाला मगर कृष्ण नदारद!

हर 15 मि. में एक रेप
प्रति घंटे 4 रेप
प्रत्येक दिन लगभग 90 मुक़दमे दर्ज़
और प्रत्येक माह 2700 महिलाओं से रेप
क्या कीजियेगा, देश की बेटियों को बचाकर?
रेप????
और ये तो वे आंकड़े हैं जो लिखित हैं. वे जिन्हें कभी दर्ज़ ही नहीं किया गया, उनकी सोचें तो रूह काँप उठेगी.

नोटबंदी में पूरे देश को रातोंरात लाइन में खड़ा कर दिया!
चालान के भय से पूरे देश के लोग एक घंटे में नियम समझ दूसरों को समझाने लगे. 
GST सबके दिमाग में जबरन घुसा दिया गया.
सारे कानून को ताक़ पर रख सुबह तक नये मुख्यमंत्री का जन्म हो गया.
लेकिन वैसे कानून के आगे सबके हाथ बंधे हैं? 
क्या सरकारें, उनकी अकर्मण्यता के किस्से सुनने को चुनी जाती हैं? या हर समय उनकी तारीफ़ के झूठे पुलिंदे बाँध उनकी नज़रों में चमककर केवल अपना भला सोचने वाले चाटुकार बनना ही हम सबका कर्त्तव्य है?

आप अपराधियों के अंदर भय पैदा कीजिये, बलात्कारियों को सरेआम मृत्यु दंड दीजिये फिर स्वयं देखिये कि कमी आती है या नहीं!
मात्र कड़ी निंदा करने से समस्या नहीं सुलझ जाती! गहरा दुःख व्यक्त करना भी काफ़ी नहीं! मन की बात बहुत हुई, अब जन की बात भी सुनिए, जनता की पीड़ा समझिए, उनके भय के अंदर झाँकिये.
बहुत हुआ मन्दिर-मस्ज़िद! यथार्थ के धरातल पर जनता को अब अपराधियों के ख़िलाफ़ एक्शन की दरकार है.
एक बार सारे अपराधियों को सामूहिक फाँसी देने की हिम्मत कीजिये.  पूरा देश और आने वाली पीढ़ियाँ आपको युगों तक याद रखेंगीं.

जिनके हाथों हम देश सौंपते हैं, बदले में वे हमें क्या देते हैं? असुरक्षा, भय और बेटियों की जली हुई लाशें!
सहिष्णुता की और कितनी परीक्षा दे आम आदमी??
यदि सरकार देश नहीं संभाल सकती, पुलिस सुरक्षा नहीं दे सकती और न्याय तंत्र अपने आँखों की पट्टी खोल वीभत्स अन्याय को भी नहीं देख पाता! अपराधी सामने खड़े होने पर भी वर्षों तक कानूनी पाठ पढ़े जाते हैं तो माफ़ कीजिये, ये आपके बस की बात ही नहीं रही! आप एक-दूसरे की दुहाई देकर राजनीतिक रोटियाँ सेकिए,अब जनता अपना हिसाब खुद ही कर लेगी!
दुर्भाग्य है कि इतिहास में यह समय 'बलात्कार युग' के नाम से जाना जाएगा. जहाँ दुर्योधन और दुःशासन का बोलबाला था और कृष्ण नदारद!
गाँधी के देश की ये कैसी तस्वीर है कि 'गाँधीगिरी' के कट्टर समर्थकों ने भी अब हाथ खड़े कर दिए हैं. सच यही है कि जनता की सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है जो अब समाप्त हो चुकी है. राजघाट पर आमरण अनशन पर बैठी महिलाओं को देख बापू का हृदय भी रोता होगा. आज यदि वे जीवित होते तो स्वयं आगे होकर भारत की बेटियों के हाथ में लाठी थमा उनसे अत्याचार का विरोध करने और अत्याचारी का सिर क़लम करने को कहते. 

कितना अच्छा होता यदि देश की शीर्षस्थ महिलाएँ, नेता, पत्रकार सब एकजुट हो आमरण अनशन पर बैठ, बलात्कारियों के लिए तुरंत दंड की माँग करते लेकिन क्यों बैठें, राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जो आड़े आती है! सत्ता के विरुद्ध एक शब्द भी बोल दिया जाए तो राष्ट्रहित की बातें चीख-चीखकर सुनाई जाती हैं लेकिन बलात्कार के ख़िलाफ़ बोलने में इसी ज़ुबाँ को लकवा मार जाता है! ये राज्य के आधार पर बोलना तय करते हैं.
हिन्दू-मुस्लिम करते समय इनकी छवि चमकने लगती है क्या?

जनता भी ख़ूब समझती है कि ढोंगी नेताओं का एक ही मन्त्र है, 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता'. 
वरना अगर ये सब वहाँ अड़ जायें तो क्या मजाल कि अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हों कि उन्हें किसी का डर ही नहीं! पर अपराधों के उन्मूलन से जुड़कर कौन अपने राजनीतिक कैरियर की अंत्येष्टि करेगा! यही इस देश का सच और जनता का दुर्भाग्य है!
देशवासियों की हिम्मत, दिल और विश्वास तीनों टूट चुके हैं. कौन जोड़ेगा इसे?
- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

धरती स्त्रियों के लायक़ नहीं रही

बेटियों को सब पर संदेह करना सिखाओ। उन्हें हथियार चलाना सिखाओ और आवश्यकता पड़ने पर उसका तुरंत उपयोग करना भी। आती-जाती सरकारों ने आज तक कुछ नहीं किया, आप उनके भरोसे न रहें! अपनी रक्षा आप करें!  पुरुष मानसिकता में सुधार आने की सोच रखना एक भ्रम है, जिसे हम और आप वर्षों से पाल रहे हैं। 

जब अपराधियों को इस बात का पूरा यक़ीन है कि इस देश में बलात्कारी को फाँसी कभी नहीं होगी, तो उन्हें क्यों और किस बात का डर! ज़िंदा जलते शरीर से उठने वाला धुँआ देश की राजनीति के लिए लाभदायक नहीं इसलिए ऐसे मामलों की चर्चा दो मिनट के मौन से अधिक नहीं होनी है! सोचिये, सत्ता झपटने के लिए जो रतजगा करते हैं क्या आज भी रात भर जाग सबसे दस्तख़त करा, अपराधियों को सुबह तक फाँसी दे देंगें? न ही विपक्ष इसके लिए कोई आंदोलन ही करने वाला है।

'बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ' वाला स्लोगन किसी काम का नहीं! क्योंकि पढ़ लेने से भी बेटियाँ बच नहीं जातीं। वे तब भी ज़िंदा जला दी जाती हैं। उनका दोष यह है कि वे अब भी समाज पर विश्वास कर लेती हैं। समाज, जहाँ हवस के दरिंदे छुट्टा घूम रहे हैं। समाज, जहाँ बलात्कारियों पर वर्षों तक केस की नौटंकी कर उसे बचा लिया जाता है। समाज, जहाँ उन्नाव रेप के बलात्कारी विधायक लोगों के बीच सेलिब्रिटी की तरह हँसते हुए चलते हैं। समाज, जो कभी हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्ज़िद में उलझ लड़ता है तो कभी उन नेताओं के लिए जिनकी नज़रों में उसकी क़ीमत एक वोट से ज्यादा कुछ भी नहीं!
आलू-प्याज के दामों में उलझा समाज उनके कम होने की उम्मीद लिए आसमान की ओर तकता है। सब्जियों और पेट्रोल के महँगे दामों में उलझे समाज को पता ही नहीं चला कि बीते वर्षों में मौत कितनी सस्ती हो गई है! 

प्रियंका, तुम्हारा दर्द, तुम्हारी चीख़ें, तुम्हारा लहू, तुम्हारे आँसू और तुम्हारा चकनाचूर विश्वास....इस देश का प्रत्येक संवेदनशील नागरिक महसूस कर पा रहा है। ईश्वर तुम्हारे ज़ख्मों को मरहम दे। क़ाश! तुम इस पीड़ा को भूल जाओ। तुम जिस भी दुनिया में हो, वहाँ से हम बचे हुए लोगों के लिए दुआ करना और परमात्मा से कहना कि धरती स्त्रियों के लायक़ नहीं रही। सृष्टि के समाप्त होने का समय आ चुका है।
 - प्रीति 'अज्ञात'
#priyanka #प्रियंका_रेड्डी
Pic: Google

शनिवार, 23 नवंबर 2019

ट्रेलर किसी और फ़िल्म का, रिलीज हो गई कोई और!

A को लगता था कि B उसके साथ नहीं है तो हालात से हार मान उसका झुकाव C की ओर बढ़ने लगा. इधर C का मुँह पहले से फूला हुआ था तो उसने A को अपने पास फटकने भी नहीं दिया. B और C के नखरों से परेशान A के पास अब अपनी पुरानी प्रेमिका D की तरफ़ लौट जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. ये वही थी जिसे एक बार A ने B की ख़ातिर ठुकरा दिया था. पर पुराने प्रेमी को देख D मुस्कुरा दी और A ने उसके गले में बाँहें डाल नई ज़िन्दगी के स्वप्न सजाने शुरू कर दिए. यह सब देख C निराशा के गहरे भंवर में डूब गई क्योंकि उसके दिल में अब भी A के लिए 'कुछ-कुछ होता था', लेकिन अब उसने इन सबसे किनारा करने का कठोर मन बना लिया था इसलिए वह अपने टूटे हृदय की किरचों को जोड़ने के जतन में लग गई. 
इधर कहानी में एक नया ट्विस्ट आया. हुआ यह कि  A और D अपने बियाह की जोरदार तैयारी में लगे थे, तब तक पंडिज्जी को B ने किडनैप कर लिया. ये पंडिज्जी D के रिश्तेदार थे और उन पर बड़ा भारी कर्ज़ा चढ़ा हुआ था. B ने उनका कर्ज़ा उतरवाने का प्रॉमिस कर दिया था. अब मुआ पैसा क्या न करवाए! प्रेम-व्रेम का क्या वो तो इन्हें दुबारा भी हो सकता है! बस इसी सोच के साथ पंडिज्जी (Dवाले) ने B का ताजा एवं तत्काल प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया. ख़ुशी में बावरावस्था को प्राप्त D (वोई रिश्तेदार वाले)  B ने सोशल मीडिया पे अपनी DP बदल ली और अब वे अपनी बीड़ी सुलगा रहे. यह देख एक्चुअल D ने घबराकर ट्वीटिया दिया कि "जिन्ने हमें धोका दीया है. हम बिनके साथ नईं हैं. इनकौ सबक़ सिखानो परेगो." 
A ने भी गुस्से में भरकर श्राप देकर कहा, "मरे, जे तो पापी लोग निकरे! आग लगे सबन में."
 Dऔर B अपनी दुनिया में मशग़ूल बत्तीसी चमकाय रये और ख़ूब फोटू खिंचवान में लगे हैं और भक्तजन कुदकने में.

इस लघुकथा से यह सिद्ध होता है कि मोई जी ने जो AB वाला नया फॉर्मूला बताया था वो यही था! जो कि आज आख़िरकार सही सिद्ध हो ही गया!
जनता ने A को देख आह भरते हुए वही कहा जो उन्होंने बचपन में कहीं पढ़ा था, 'चौबे जी छब्बे बनने गए, दुबे होकर लौटे' (ये कहावत है कृपया दुबे जी एवं चौबे जी इसे दिल पर न लें). आज देख भी लिया. ओ मोरे राम! 
पता नहीं ये राजनीतिक कुटिलता है या कि ग़ज़ब राजनीति की अजब परिभाषा! पर इतना तो तय है कि आज यदि असली वाले चाणक्य जी जीवित होते तो आँख खुलते ही हृदयाघात से स्वर्ग सिधार जाते क्योंकि उनसे ज्यादा होशियार लोग इस धरती पर पैदा हो चुके हैं.

बेचारी वोट देने वाली भोली जनता को अब ये समझना होगा कि सच्चाई, ईमानदारी और पारदर्शिता का ढोल पीटने वाली राजनीति का असल चरित्र क्या है! 
सुनिए, सुनिए ये कानपुर वाले ठग्गू के लड्डू जैसे हैं, जिनकी tagline है "ऐसा कोई सगा नहीं, जिसे हमने ठगा नहीं!"  
हे ईश्वर! उनका क्या होगा जिन्होंने ट्रक भर मोहनथाल ऑर्डर कर दिए थे! क्यों न डिलीवरी पॉइंट बदलवा लिया जाए?

उधर न्यूज़ एंकर हकबकाकर समझ ही न पा रहे कि क्या बोलें, क्यों बोलें और कब बोलें क्योंकि रात को तो दूसरी स्क्रिप्ट तैयार की थी. ये ठीक वैसा ही है कि फ्रेंडली स्क्रीनिंग किसी और फ़िल्म की और थिएटर में कोई और रिलीज़ हो गई! ये धोखा है, फ़रेब है पर लोकतांत्रिक देश में किसी चुटकुले की तरह बार-बार सुनाया जा रहा है. लोगों की आँखें फटी रह गईं और दूर कहीं नीरो बाँसुरी बजा रहा है.
-प्रीति 'अज्ञात'
#राजनीतिककुटिलता #चाणक्यपंती #महाराष्ट्र #बीजेपी #शिवसेना #कांग्रेस #ichowk#आईचौक 
इस पोस्ट को आप इंडिया टुडे की वेबसाइट ichowk की इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं-

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

मर्द को दर्द भी होता है!

ये तो हम जानते ही हैं कि 19 नवंबर को 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' के रुप में विश्वभर में मनाया जाता है। इस विशिष्ट दिवस की संकल्पना पुरुषों के साथ होने वाली असमानता, हिंसा, उत्पीड़न, और शोषण को रोकने के लिए तथा उन्हें समान सामाजिक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से की गई थी। प्रत्येक वर्ष इसकी थीम अलग होती है। इस बार है - "Making a difference for Men and Boys." 
चूँकि 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' कई वर्षों से चला आ रहा था अतः लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए इस दिवस की माँग उठी थी। अवसाद के मामलों में वृद्धि देखते हुए भारत में 2007 में पहला 'मानसिक स्वास्थ्य कानून' बना तथा इस दिवस को मनाना भी 2007 से ही प्रारम्भ हुआ।
यूनेस्को द्वारा सहयोग प्राप्त इस दिवस को मनाने के मूल में यह है कि घर, परिवार और समाज में उनके सकारात्मक सहयोग को सराहा जाए। उनके भावनात्मक पक्ष पर ध्यान दिया जाए तथा उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं मानसिक परेशानियों पर भी चर्चा हो।


स्पष्ट है कि हम हर कार्य की अपेक्षा सरकार से नहीं कर सकते हैं और जब यह पारिवारिक स्तर पर प्रारम्भ हो तभी एक स्वस्थ, संतुलित और ऊर्जावान समाज की सोच सार्थक होगी।
हम अपना सहयोग निम्न प्रकार से दे सकते हैं -
* माँओं को चाहिए कि वे अपने बेटे को रोते हुए देख कभी ये न कहें कि "अरे! लड़का होकर रोता है!" रोने दीजिये उसे। ऐसे ही भावनाएँ निकलती हैं और दुःख बह जाता है। हमें उन्हें पाषाण एवं संवेदनहीन नहीं बनाना है कि वे किसी का दर्द समझ ही न सकें कभी।

*घर के कार्यों में भी पूरा सहयोग लें। जिससे बाद में बाहर जाएँ तो सब मैनेज कर सकें।

* उन्हें स्वस्थ रहने की सलाह दें, खलीनुमा बनने की नहीं। मजबूत दिखने के चक्कर में कई बार लड़के घातक दवाइयों एवं स्टीरॉइड के फेर में पड़  जाते हैं। ऐसे में जिम वाले इसका पूरा लाभ उठाने में नहीं चूकते!

* स्त्रियों को चाहिए कि वे पुरुष को अपनी हर समस्या का 'समाधान केंद्र' न समझें। कभी उनकी भी सुनें। परेशानियाँ उनके जीवन में भी उतनी ही हैं। आपकी समस्याओं और रोज के बुलेटिन में उलझ वे अपना ग़म बाँट ही नहीं पाते कभी! दर्द उन्हें भी होता है, डर उन्हें भी लगता है पर आपकी रोज की हाहाकार ने उन्हें सुपरमैन, बैटमैन और चाचा चौधरी बना डाला है।

* केवल स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी शारीरिक-मानसिक शोषण, घरेलू हिंसा, उत्पीड़न एवं भेदभाव के शिकार होते हैं। परन्तु हमारे समाज का ढांचा कुछ ऐसा है कि इनके दर्द भरे किस्से दबा दिए जाते हैं या फिर उनका उपहास उड़ाया जाता है। सुना होगा न, "अरे, कैसा मरद है रे तू? एक लड़की से थप्पड़ खा लिया!", "कहाँ गई तेरी मर्दानगी!" अरे भई! वो भी मनुष्य ही है कोई बुलेटप्रूफ़ जैकेट नहीं! उसके मस्तिष्क में अपने अनर्गल विचारों का कचरा मत डालिये। पुराने डायलॉग भूलकर समझ लीजिये कि 'मर्द को दर्द भी होता है' अतः उनकी पीड़ा को समझ उस पर प्रेम का मरहम रखिये। तानों का तम्बूरा न बजाइये।

*आत्महत्या और हत्या का अनुपात भी इन्हीं का सर्वाधिक है। आख़िर यह अवसाद कहाँ से उपजा है? इनकी कुंठाओं की जड़ों में जाना आवश्यक है और उससे पहले इन्हें समझना जरुरी है। देखिये कहीं आपकी भौतिक अभिलाषाओं का बोझ इन पर भारी तो नहीं पड़ रहा!

* आपके Vacation Plans  उन पर लादे नहीं! उनकी छुट्टियों से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करें। इधर आप घूमने को लेकर झगड़ रहीं हैं और उधर वो बॉस से परेशान है। हाँ, यदि वे कामचोर हों और हर माह दस छुट्टियाँ लेकर घर बैठें तो उन्हें देश के विकास का पाठ अवश्य पढ़ाइये। :)


यूँ मैं स्त्रीवादी/पुरुषवादी सोच न रखकर मानववादी सोच की पक्षधर हूँ पर जब आप हमें दिल से शुभकामनाएँ देते हैं तो हमारा भी कुछ फ़र्ज़ बनता है। इसलिए आप सभी को 'पुरुष दिवस' की अपार शुभकामनाएँ।
एक अच्छे समाज के निर्माण के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की ही उपस्थिति और सहयोग के बराबर मायने हैं। फ़िलहाल ऐसा समाज कल्पना भर है। 
- प्रीति 'अज्ञात'
#International_Men's_Day   #स्त्री_पुरुष #अंतरराष्ट्रीय_पुरुष_दिवस
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सोमवार, 11 नवंबर 2019

बुलबुल का ग़म और परेशान हम!



एक बात मुझे आज तक समझ नहीं आई कि ये चक्रवात वग़ैरह को identify करने के लिए जो नाम रखे जाते हैं, उसे तय कौन करता है? पंडित जी को बुलाकर नामकरण होता है या कि जो भी जी में आया बोल दिया!
मैं सुबह से बुलबुल चक्रवात का नाम सुनकर परेशान हूँ। मतलब बुलबुल ने आपका क्या बिगाड़ा है? अच्छे-ख़ासे, प्यारे पक्षी को आप कुछ भी कह दें तो कैसे चलेगा भई! जहाँ तक चक्रवात की बात है तो उसमें आसमान से पुष्प वर्षा तो होती नहीं है न! तो आप ऐसी बदमाश टाइप आपदा को सांभा कहें, गब्बर कहें, भूत, हौआ, ठांय-ठांय कहें। अठैन कहें, नासपीटा कहें, घनचक्कर कहें। अजी, कोई भी ख़राब-सा नाम चुन लें... पर प्लीज बुलबुल न कहें। किसी प्यारे पक्षी को बदनामी का मुकुट पहनाना बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। बुलबुल का काम है गुनगुनाना। उसे हम सबकी बगिया में गुनगुनाते रहने दीजिये।

आज सुबह इसी बुलबुल को तार पर बैठे देखते ही मुझे चक्रवात याद आया। ये तो एकदम से बदतमीज़ी भरी एवं कोमल भावनाओं को बेमतलब आहत करने वाली बात हो गई है जी! आगे से ध्यान रखना मौसम विभाग जी के नामकरण वाले पंडिज्जी! सोचो, आँधी का नाम बज़रबट्टू  होता और बाढ़ का खीर, तो कैसा लगता!

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि cyclone के नाम नीलम, निशा, रश्मि, भोला भी रखे जा चुके हैं। हैलो, भोला का अर्थ पता तो है न आपको? cyclone भोला नहीं, बम का गोला होता है जी! अगर वो इतना ही भोला था तो इग्नोर मारते, देश से डिस्कस काहे किया!

आँधी/अंधड़ नाम सुनते ही आँखों के सामने उड़ते हुए टीनशेड, धड़ाम धुड़ुम की जोरदार आवाजें, इमारतों पर सहमे बैठे पक्षी और दौड़ दौड़कर सुबह की चमचमाती डस्टिंग को याद कर घर की सारी खिड़कियों को बंद करती, बड़बड़ाती स्त्री की तस्वीर तैर जाती है। आँधी हमारे सामने नुक़सान के साथ-साथ धूल से सने चेहरे, रूखे सूखे बाल और आंखों में किरकिरी से आँख मीड़ता मनुष्य भी छोड़ जाती है।तूफान (फिल्म नहीं) का तो मतलब ही है तबाही। इधर किसी ने नाम लिया और उधर तहस नहस की तस्वीर दिखने लगती है। बाढ़ शब्द भी बहते सामान, डूबते गाँव और नष्ट जीवन का खाका खींच देता हैं। सुनामी, विध्वंस का अट्टहास करता लगता है। ज्वालामुखी, हजारों डिग्री पर खदबदाते लावे की मुँह उगलती भयभीत कहानी कह देता है। ऐसे में शेक्सपीयर चचा की यह बात कि 'नाम में क्या रखा है!', अपन को ज़रा हज़म नहीं होती!

और हाँ! कृपया भूलियेगा मत Meteorological Department वाले सर जी/मैडम जी कि आज बुलबुल उदास है। ये वही बुलबुल है जिसके सामने उदास प्रेमियों ने टसुए भर-भर 'बुलबुल, मेरे बता क्या है मेरी ख़ता' गाना गाकर आरारारूआरारारू किया है। 
- © प्रीति 'अज्ञात'
  #MeteorologicalDepartment   @Indiametdept  #IndiaMetDept. #bulbul 

शनिवार, 2 नवंबर 2019

यात्रा

यात्राएँ, मनुष्य की मनुष्यता से मुलाक़ात हैं। ये मधुर आस्वादन है उन बातों का जो स्वतः ही कानों पर ठिठक जाती हैं। ये साक्ष्य हैं उन सुन्दर पलों की भी जो हैरत से ताक़ते, झाँकते मासूम बच्चों की शरारतें देख हँसी बन होठों पे लिपट जाते हैं।
यात्रा, आश्वासन भी है...सामान को सरकाते, बैठने की जगह बनाते, वृद्ध जोड़े का चार्जर लगाते उन युवाओं का कि इंसानियत जीवित है अभी!
यात्राएँ, मिलन है सभ्यता और संस्कृति का।
जहाँ एक ओर राजनीति केवल तोड़ने, बुराई करने और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ मात्र रह गई है; जो आपकी भारतीयता को उधेड़ बस हिन्दू-मुस्लिम धागे गिनाती आई है वहाँ ये यात्राएँ ही हैं जो आपको इन सबसे इतर केवल मनुष्य मान स्वागत करती हैं।
वर्तमान राजनीति ने इंसान से उसका ह्रदय छीन परस्पर द्वेष और घृणा करना ही सिखाया है। ये देशभक्ति नहीं सिखाती बल्कि देशवासियों को आपस में लड़ाने का कार्य करती है।
सार यह है कि राजनीति मनुष्य को तोड़ने का काम करती है और यात्रा जोड़ने का।
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

दीवाली की सफ़ाई और अपना व्यक्तिगत हड़प्पा

 प्रत्येक भारतीय के घर में उसका अपना पर्सनल हड़प्पा होता है. जहाँ पॉलिथीन(ऊप्स! थैला) से लेकर हीरे-जवाहरात तक हो सकते हैं. यहाँ आपको हर आकार-प्रकार की तमाम वस्तुएँ मिल जायेंगीं पर वो नहीं जो उस समय चाहिए होगी! वो तब मिलेगी जब आप पोंछे या डस्टिंग के लिए कोई पुराना कपड़ा ढूँढ रहे होंगे. यह भी तय है कि तब वो नामुराद कपड़ा नहीं मिलेगा क्योंकि एन उसी वक़्त पीछे से एक डिब्बा सरककर अपनी मुँह दिखाई स्वयं करवा रहा होगा, जिसे देख आपका मुँह खुला-का-खुला रह जाता है. आप ख़ुशी के मारे फूले नहीं समाते और जोर से आवाज़ लगाते हैं, "अरे, बेटा! दौड़कर आ! तेरा वो एडिडास वाले जूते का डिब्बा मिल गया है." बच्चा बेताबी में भागा-भागा आता है और झट से अपने पैर जूते में एंटर करता है, पर ये क्या?अरे, पैर जा ही नहीं रहे! बच्चा सारा दोष उस निर्जीव, भोले जूते पे मढ़ देता है. "मम्मी, ये जूता तो छोटा हो गया!" तभी माँ की स्मृतियों के तार झनझना उठते हैं कि हाय! ये तो अपन तीन साल पहले लाये थे! माँ लड़ियाते हुए कह उठती हैं, "धत, जूता तो वैसा ही है. तू ही बड़ा हो गया है. कोई बात नहीं, किसी को दे देंगे." इस तरह दान-पुण्य विभाग में एक आइटम और बढ़ जाता है. अब बच्चा भी सामान कुरेदने में अपना अमूल्य योगदान देने को तत्पर हो उठता है. यूँ भी छुट्टियों के समय बच्चों का ऐसे काम में बड़ा दिल लगता है. अब पढ़ाई से जी चुराने का इतना अच्छा मौक़ा भला कौन छोड़ेगा!  बच्चों के साथ होने से माँ को भी अच्छा लगता ही है. ख़ैर! अभी इमोशनल होने जैसा कुछ नहीं है.

तो बात ये थी कि ये पर्सनल 'हड़प्पा' और 'मोहन जोदड़ो' हर घर में पाया ही जाता है जिसे हम आंग्ल भाषा में 'स्टोर' कहते हैं. ये कम्बख़्त स्टोर वह स्थान है जहाँ हम घर का वह सामान जमा करते हैं जो न फेंका जाता है और न रखा! जिसके बारे में घर के किसी न किसी सदस्य को मजबूती से लगता है कि "ये एक न एक दिन अवश्य काम आएगा!" अब ये बात अलग है कि जिस दिन उस विशेष वस्तु की  जरुरत होती है वो नहीं मिलती! आप पूरा स्टोर खाली कर दें तब भी नहीं ही मिलेगी! दरअसल हड़प्पा का मूल भाव ही यही है कि उसकी ख़ुदाई में मिली सामग्री को आने वाली पीढ़ियाँ देखती और सराहती हैं.
 
अब प्रश्न यह उठता है कि ये ' प्राइवेट हड़प्पा' होता ही क्यों है? बहुत शोध के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अपन लोग मल्टीप्लेक्स में भले ही 200 रुपये की पॉपकॉर्न बाल्टी भकोस लें या 80 के एक समोसे से अपनी स्वादेन्द्रियों को तृप्ति के अद्भुत भाव से रूबरू करायें और फिर सोशल मीडिया पर प्याज के बढ़ते दामों को लेकर गंभीर स्टेटस चिपकायें पर एक्चुअली में भारतीय बहुत सोच विचार के घर चलाते हैं. तभी तो हम टूथपेस्ट के ख़त्म हो जाने पर भी उसे दबोच-दबोचकर तब तक उसके प्राण हरते रहते हैं जब तक कि वो काग़ज़ की तरह flat होकर स्वयं ही इस जालिम दुनिया को अलविदा न कह दे! मैंने तो उसे हथौड़ी से पीटते लोग भी देखे हैं. हाय मोरे रब्बा!
और शैम्पू वाला काम तो आप भी करते हो न? याद करो वो दिन जब आपने जमकर बालों में तेल चपोड़ा था और शैम्पू की बोतल को हाथ में लेते ही फुसफुस हवा की मधुर ध्वनि निकली थी. फिर आपने कैसे उसमें पानी भर, जमकर मिक्सर की तरह हिलाया था! इतना शैम्पू बन गया था कि अगली तीन बार आपने उससे अपना काम चला लिया होगा. तभी तो आपने इस कला में निपुणता की डिग्री प्राप्त की थी.
बचे हुए नींबू के चौदह सौ प्रयोग और माचिस की तीली को बचाने का सुख कोई हम गृहिणियों से पूछे. पूरे दो पैसे बचाते हैं हम लोग.

तो भैया, 'अपना नंबर आएगा' की इसी बहुमूल्य सोच के आधार पर तमाम वस्तुयें स्टोर में सुरक्षित रख दी जाती हैं. तीन टाँग वाली टेबल को स्टूल बनाने के विचार से, टूटे स्टूल को पट्टा बनाने के विचार से और टूटे पट्टे को टूटे कचरेदान का ढक्कन बनाने के विचार से. पुराने कपड़ों को बदलकर बर्तन मिलते हैं और पुराने बर्तनों को बदलकर नया कुकर आ सकता है. पुरानी साड़ियों का दुबर बनेगा और वो पिचका वाला तकिया और थोड़ी उधड़ी जयपुरी रजाई दिल्ली वाली आंटी जी के ड्राईवर के लिए सुरक्षित रख दी जाती है. बेचारा कैसे सोयेगा वरना!
 हम भारतीयों की महानता के एकाध किस्से थोड़े ही न हैं! पुराने फ्लॉवर पॉट, डिज़ाइनर मटका यह सोचकर नहीं फेंका जाता कि एक दिन इसमें ग़ुलाब का पौधा होगा या फिर मनीप्लांट की लहलहाती बेल. पुरानी चादरें ब्याह-शादी में काम आयेंगी, सो उन्हें भी सँभाल लिया जाता है. केबल का तार, प्लग, आयरन, स्पीकर और भी न जाने क्या-क्या इस स्टोर में भरा जाता है. अजी! स्टोर कहाँ! अलादीन अंकल का चिराग़, भानुमती आंटी जी का पिटारा है ये तो. हर असंभव प्रश्न और विलुप्त वस्तु का एक ही इकलौता जवाब है, "स्टोर में मिलेगी!"
बच्चे भी पुरानी पुस्तकें इसमें टिका देते हैं कि रेफ़रेंस में लगेंगीं कभी. जबकि सच्चाई यह है कि भयानक पाठ्यक्रम के चलते वे करेंट बुक्स को ही जैसे-तैसे निबटा पाते हैं! उस पर जरुरत हुई भी तो स्टोर के अरब महासागर में गोते लगा पुरानी क़िताब रुपी मोती को ढूँढने से बेहतर और सरल वे अपने गूगल भैया को मानते हैं.
  
इस स्टोर में जाना मौत के कुँए में मोटर साइकिल चलाने से भी ज्यादा रिस्की है. इसकी सफ़ाई भी कोई एक दिन में ख़त्म नहीं होती! इसमें मिले सामान को पाकर गृहयुद्ध हो जाते हैं कि ये तब क्यों नहीं मिला था जब इसके बिना दुनिया उजाड़ थी. पर क्या करें, दीवाली का दस्तूर है कि सफ़ाई तो होगी! अब आपको इस दौरान सफ़ाइयाँ देनी पड़ें तो आप अपनी प्रॉब्लम ख़ुद समझ लो! हमने थोड़े ही न कहा था कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में सेंध लगाकर अपने 'पर्सनल हड़प्पा' की रियासतों का यूँ विस्तार करो! 😀
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

बापू और शास्त्री जी बार-बार जन्म नहीं लेते!

आज जबकि सम्पूर्ण देश महात्मा गाँधी की 150 वीं जयंती को धूमधाम से मनाने की तैयारियों में लगा है, ऐसे में धोती, लाठी और चश्मे से अपनी पहचान बनाने वाले हमारे सादगी पसंद बापू न जाने क्या प्रतिक्रिया देते! संभवतः वे सबके स्नेह और भावनाओं का आदर करते हुए उनके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते और मुस्कुराते हुए कहते, "ये पैसा गरीबों के काम भी तो आ सकता था न!"बापू को जब भी सोचा तो वही स्मित मुस्कान लिए प्रिय दादू- सा कोई चेहरा दिखाई दिया जो सदैव सही राह पर चलना सिखाता है। जिसके पास प्रत्येक समस्या का समाधान है और वो भी बिना मारपीट के समर्थन के! जिसका निश्छल, शांत स्वभाव और शालीन भाषा ऐसे अपनेपन में बाँध लेती है कि पल भर को भी यह महसूस नहीं होता कि ये दुनिया के सबसे महान व्यक्ति हैं।

'राष्ट्रपिता' कोई यूँ ही नहीं बन जाता, संस्कारों को लहू के साथ घोल एक पूरा जीवन जीना होता है। सबका सम्मान करना, किसी को भी नीचा न दिखाना, विरोधियों को धैर्यपूर्वक सुनना और सहजता से उनकी हर जिज्ञासा को शांत करना भी इसके अपरिहार्य गुण हैं। जो वास्तविक 'शान्तिदूत' होते हैं वे इसकी चर्चा करने से कहीं अधिक इसे स्वयं के जीवन में ढाल एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जो स्वच्छता की बात करते हैं वे अपने परिसर को स्वच्छ बनाए रखने में पूरा योगदान देते हैं। तात्पर्य यह कि आत्मस्तुति से कोसों दूर रहने वाले, अपने जीवन से जग को प्रकाशवान करने वाले, सच्चाई के मसीहा और हम सबके बापू ने अपने आप को 'महात्मा' सिद्ध करने का प्रयास कभी नहीं किया लेकिन फिर भी वे दुनिया भर में 'महात्मा गाँधी' कहलाए। विश्वशांति के लिए एवं भारत के सही मायनों में उत्थान के लिए गाँधी आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि 'गाँधी' जी व्यक्ति भर ही नहीं बल्कि समग्र विचारधारा है।

एक समय था जब गाँधी जी, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने का आह्वान करते और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाता था। अब वही भीड़ हत्याओं का सामूहिक उत्सव मनाती है। बात श्रीराम के नाम से विमुख हो 'हे राम!' तक पहुँच चुकी है।  
आज अगर गाँधी जी होते तो देश में विज्ञान और तकनीक के विकास को देख एक क्षण को मंत्रमुग्ध भले ही हो जाते लेकिन उन्हें यह देख अत्यधिक दुःख एवं पीड़ा अवश्य होती कि सबको शिक्षा, बराबरी का अधिकार, ग़रीबी, बेरोज़गारी,अस्पृश्यता, भेदभाव से मुक्ति इत्यादि जिन-जिन मुद्दों के लिए वे उम्रभर संघर्ष करते रहे वे सब आज भी जस-के-तस मुँह बाए खड़े हैं। भौतिक विकास जितना हुआ उससे कहीं अधिक मानसिक एवं नैतिक ह्रास हो चुका है। 

गाँधी जी जिन सिद्धांतों पर चलने की बात करते थे, उस पर अभी भी कुछ लोग टिके हुए हैं। वे गाँधी जी के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं। वे एक थप्पड़ के बाद दूसरा गाल भले ही आगे न करें, पर अपशब्द एवं हिंसा का प्रयोग नहीं करते एवं अपने सत्य के साथ अडिग खड़े रहते हैं। यही 'गाँधीगिरी' है जो अब यदाकदा ही देखने को मिलती है। जब गाँधी जी के हत्यारे के समर्थक राजनीति में प्रवेश करने लगें तो लोगों की गिरती मानसिकता और कुत्सित सोच समझने के लिए किसी अन्य जीवंत प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती है! दुर्भाग्य से उस समय ऐसा महसूस होता है कि अब सत्य और अहिंसा की विदाई का समय आ गया है. गाँधी जी यदि आज जीवित होते तो वे स्वयं ही आगे बढ़कर इन विजेताओं को बधाई देते और इस देश से चले जाते! 

गाँधी जी जिस सच के साथ खड़े होने का हौसला युवाओं में भरते रहे, आज वही सच बोलने में लोग लड़खड़ाने लगे हैं क्योंकि 'सच' को जेल जाते और 'झूठ' को ईनाम पाते सबने देखा है। बापू का वो भारत जहाँ सर्वधर्मसमभाव सबके ह्रदय में था, जहाँ सब बराबर थे, सबको जीने का हक़ था और जहाँ बुराई के रावण का दहन होता आया है। जहाँ  सत्य और अहिंसा को ही हथियार मान पूजा जाता है...उस भारत की तस्वीर में वो पहले सा नूर अभी नहीं दिखता पर इनसे सच्चे भारतीयों का हौसला टूट जाए, ऐसा भी नहीं! क्योंकि प्रिय बापू ने कहा था -
"जब मैं निराश होता हूँ, मैं याद कर लेता हूँ कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है। इसके बारे में सोचो- हमेशा।"
"मैं मरने के लिए तैयार हूँ, पर ऐसी कोई वज़ह नहीं है जिसके लिए मैं मारने को तैयार रहूँ।"
"आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है; अगर सागर की कुछ बूँदें गन्दी हैं, तो सागर गन्दा नहीं हो जाता।"
गाँधी जी सशरीर तो नहीं रहे पर हम सबके भीतर वे सदैव कहीं-न-कहीं जीवित बने रहें, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

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स्वतंत्रता पूर्व का किस्सा है।* "स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय जी ने 'सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाना था। आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री जी भी शामिल थे। उनको घरखर्च के लिए सोसाइटी की तरफ से 50 रुपए प्रतिमाह दिए जाते थे। जब वे जेल में थे तो वहाँ से एक उन्होंने पत्र में अपनी पत्नी को पूछा कि क्या उन्हें ये रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घरखर्च के लिए पर्याप्त हैं? ललिता जी ने उत्तर दिया कि यह धनराशि उनके लिए पर्याप्त है क्योंकि वे तो केवल 40 रुपये ही ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बच जाते हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत 'सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी' को पत्र लिखकर सूचित किया कि उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में चल रहा है अतः उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और शेष 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिए जाएँ।"

ऐसे थे, देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पद पर विराजमान, अत्यंत सरल स्वभाव एवं ईमानदार छवि वाले सर्वप्रिय शास्त्री जी। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी, महात्मा गाँधी के विचारों तथा जीवनशैली से अत्यंत प्रभावित थे। 'जय जवान, जय किसान' का नारा देने वाले शास्त्री जी के विचार एवं जीवनशैली देशवासियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।
वे कहा करते थे,
''जो शासन करते हैं उन्‍हें देखना चाहिए कि लोग प्रशासन पर  किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं। अंतत: जनता ही मुखिया होती है।''
उनका यह विचार आज भी कितना प्रासंगिक हैं -
'देश की तरक्की के लिए हमे आपस में लड़ने की बजाय गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना होगा।''

बापू और शास्त्री जी बार-बार जन्म नहीं लेते! सादर नमन
#महात्मा गाँधी #बापू #राष्ट्रपिता #लाल बहादुर शास्त्री जी
* शास्त्री जी का प्रसंग गूगल से साभार 

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

समय की क़ीमत #Indian_Time

हमें ट्रेन पकड़नी होती है तो आधे घंटे पहले स्टेशन पहुँच जाते हैं। फ्लाइट हो तो दो-तीन घंटे पहले। मूवी देखने जाना हो तो भी पॉपकॉर्न खरीदकर बैठने की गुंजाइश तो रखते ही हैं। कहीं SALE हो तो स्टोर खुलने के आधे घंटे पहले पहुँच जाना अपना फ़र्ज़ समझते हैं। रात 12 बजे यदि नया फ़ोन launch हो रहा हो तो 11.45 से ही log in करके तैयार बैठते हैं लेकिन कहीं जाना हो, किसी को समय दिया हो, कोई कार्यक्रम हो तो एकाध घंटे की देरी को तो कोई गिनता ही नहीं! कार्ड में जो भी नियत समय दिया गया हो, हम अपने दिमाग़ में उसे आधे घंटे खिसकाकर ही सामान्य महसूस कर पाते हैं।

नीचे सौ वर्ष से भी कहीं अधिक पुराना किस्सा साझा कर रही हूँ (यद्यपि यह किस्सा स्वावलम्बन पर है) ...तब और अब में इतनी प्रगति अवश्य हो गई कि अब देर से पहुँचने को 'Indian Time' कहा जाने लगा है। कुछ लोग इस बात पर भी गर्व कर अपनी पीठ थपथपा खींसे निपोरना नहीं भूलते। खीजने वाले खीजते रहें, समय पर पहुँच जाने का शोक़ मनायें या मोबाइल-मोबाइल खेलें! WHO CARES! 
- प्रीति 'अज्ञात'
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* एक बार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को इंग्लैंड में एक सभा की अध्यक्षता करनी थी। उनके बारे में यह मशहूर था कि उनका प्रत्येक कार्य घड़ी की सुई के साथ पूर्ण होता है अर्थात् वे समय के बहुत पाबंद थे। वे लोगों से भी यही अपेक्षा रखते थे कि वे अपना कार्य समय पर करें। विद्यासागर जी जब निश्चित समय पर सभा भवन पहुँचे तो उन्होंने देखा कि लोग सभा भवन के बाहर घूम रहे हैं और कोई भी अंदर नहीं बैठा है। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि सफाई कर्मचारियों के न आने के कारण अभी भवन की सफाई नहीं हुई है। यह सुनते ही विद्यासागर जी ने एक क्षण भी बिना गंवाए झाड़ू उठा ली और सफाई कार्य प्रारम्भ कर दिया। उन्हें ऐसा करते देख उपस्थित लोगों ने भी कार्य शुरू कर दिया। देखते ही देखते सभा भवन की सफाई हो गई और सारा फ़र्नीचर यथास्थान लगा दिया गया। जब सभा आरंभ हुई तो ईश्वर चन्द्र विद्यासागर बोले- "कोई व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र, उसे स्वावलंबी होना चाहिए। अभी आप लोगों ने देखा कि एक-दो व्यक्तियों के न आने से हम सभी परेशान हो रहे थे। संभव है कि उन व्यक्तियों तक इस कार्य की सूचना न पहुँची हो या फिर किसी दिक्कत के कारण वे यहाँ न पहुँच सके हों। क्या ऐसी दशा में आज का कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाता? यदि ऐसा होता तो कितने व्यक्तियों का आज का श्रम और समय व्यर्थ हो जाता।" सार यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी होना चाहिए और वक्त पड़ने पर किसी भी कार्य को करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
#ईश्वर_चन्द्र_विद्यासागर
*प्रसंग भारतकोश से साभार 

शनिवार, 7 सितंबर 2019

चंद्रयान-2 से उपजे चार भाव

चंद्रयान-2 से उपजे चार भाव 

दुःख - मंज़िलों पे आके लुटते हैं दिलों के कारवाँ
        कश्तियाँ साहिल पे अक्सर, डूबती हैं प्यार की
चाँद की धरती पर क़दम रखते-रखते अचानक ही सम्पर्क टूट जाने की जो असीम पीड़ा है उसे शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं! पूरा भारत इस मिशन की सफ़लता के पल का साक्षी बनने की उम्मीद लिए रतजगे पर था. समस्त देशवासी इस गौरवशाली समय को अपनी मुट्ठी में बाँध लेना चाहते थे. वे आह्लादित थे कि आने वाली पीढ़ियों को बता सकें कि "जब हमारा प्रज्ञान चाँद पर चहलक़दमी करने उतरा तो हमने उस अद्भुत क्षण को अपनी आँखों से देखा था." #ISRO के अथक परिश्रम एवं प्रतिभा पर पूरे देश को गर्व है और हमेशा रहेगा. जो अभी नहीं हुआ वो कभी तो होगा ही, इस तथ्य से भी हम भली-भाँति परिचित हैं. पूरे स्नेह और धन्यवाद के साथ हमारी शुभकामनाएँ, हमारे वैज्ञानिकों के साथ हैं. उन्हें उनके अब तक के प्रयासों और सफलताओं के लिए हार्दिक बधाई. विज्ञान की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यही है कि वह हार नहीं मानता और सफ़ल होने तक अपनी कोशिशें निरंतर जारी रखता है.

संबल - यूँ तो किसी भी बड़े तनावपूर्ण मिशन के समय राजनेताओं, प्रधानमंत्री या अन्य क्षेत्रों के प्रमुख की उपस्थिति व्यवधान की तरह ही होती है क्योंकि फिर न केवल सबका ध्यान उस ओर भी थोड़ा बँट जाता है बल्कि एक अतिरिक्त दबाव भी महसूस होने लगता है.
वैज्ञानिक,असफ़लताओं के आगे कभी घुटने नहीं टेकते और न ही कभी टूटते ही हैं. एक अनदेखे-अनजाने लक्ष्य की ओर बढ़ना उन्हें यही अभ्यास कराता है. सतत प्रयास करना और निरंतर जूझना....यही विज्ञान की परिभाषा भी है. इसलिए डॉ. सिवान के आँसू आश्चर्यजनक नहीं बल्कि उनकी टीम द्वारा सच्चे दिल से किये गए अथाह परिश्रम और परिणाम से उपजी पीड़ा का प्रतीक हैं. वैज्ञानिकता को इतर रख यह एक मानव की सहज प्रतिक्रिया है जो अपनी वर्षों की मेहनत पर पानी फिरते देख टूट भी सकता है! इस बार जब निराशा भरे पलों में प्रधानमंत्री जी ने इसरो प्रमुख डॉ. सिवान को गले लग ढाँढस बँधाया तो सबका मन भीतर तक भीग गया होगा. प्रायः मौन अभिव्यक्ति की ऐसी तस्वीर कम ही देखने को मिलती है. जब उदासी का घनघोर अँधेरा छाया हो तो एक ऐसी झप्पी संजीवनी बन महक़ उठती है. 

आक्रोश - हर बार की तरह इस बार भी मीडिया ने पहले से ही जय-जयकार शुरू कर दी. यहाँ तक कि अन्य देशों का उपहास उड़ाने से भी नहीं चूके! यही विश्व-कप के समय भी होता आया है. मीडिया का काम जानकारी देना है, आवश्यक सूचनाओं को जनमानस तक उसी रूप में पहुँचाना है, जैसी वे हैं.  लेकिन यहाँ तो हर बात को उछाल-उछालकर इतना बड़ा बना दिया जाता है कि हर तरफ यज्ञ-हवन, पाठपूजा का दौर प्रारम्भ हो जाता है. खुशियों की दीवाली मनाई जाने लगती है. आप घटना के पल-पल की खबर दीजिये पर परिणाम तक पहुँचने की जल्दबाज़ी मत कीजिये. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि तमाम अंधविश्वासों के बाद भी भले ही नतीज़ा सकारात्मक न आये पर पाखंडियों का व्यवसाय फिर भी जारी रहता है. इन पाखण्डों से मुक्ति का भी एक अभियान चलाया जाना चाहिए. 

उम्मीद मुझे तो अभी भी लग रहा कि एक दिन मेले में खोए हुए किसी बच्चे के मिलने की उद्घोषणा की तरह हमारे #ISRO के पास भी इस सन्देश के साथ सिग्नल आयेंगे कि "6 सितम्बर देर रात (7 की सुबह) चाँद की सबसे ऊँची पहाड़ी के पीछे रात के घुप्प अँधेरे में कोई प्रज्ञान बाबू टहलते पाए गए. उन्होंने पीले-कत्थई रंग की शर्ट और स्लेटी कलर के जूते पहन रखे हैं. पूछे जाने पर अपने पिता का नाम विक्रम और माँ पृथ्वी को बताते हैं. इनका अपने परिजनों से सम्पर्क टूट चुका है. जिस किसी का भी हो कृपया चाँदमहल के पास बनी पुलिस चौकी से आकर ले जाए. ये बच्चा कुछ भी खा-पी नहीं रहा है." 

देखना, एक दिन ये सम्पर्क जरूर होगा! सलाम, #इसरो ....हमें आप पर बेहद गर्व है!
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 19 अगस्त 2019

#विश्व_फोटोग्राफी_दिवस #लघुकथा #कैमरा

एक मासूम व्यथा 
पढ़ें, कैमरे से लघुकथा 



उठो, मम्मा 
भूख लग रही 😔




कान में बोलकर देखता हूँ. 😜
मम्मा तो नहीं उठ रहीं रे! 😟
पापा, भैया, दीदी सब आओ न जल्दी से! 😦

अरे! क्या हुआ बेटा! जरा आँख लग गई थी. 😮
कुछ नहीं! अब ठीक है! 😍😄

...और इस तरह बच्चों को चैन मिला! 😥😂😎


#WorldPhotographyDay #विश्व_फोटोग्राफी_दिवस
कॉपीराइट © प्रीति 'अज्ञात'  

सोमवार, 12 अगस्त 2019

योगा कैसे होगा जी!

बात उन दिनों की है जब हम भी आम जनता की तरह आसानी से बेवकूफ़ बनने के असाध्य रोग से पीड़ित थे (वैसे बनते अब भी हैं, बस थोड़ा टाइम लगता है) और उस पर महंगाई की तरह बहुगुणित होता मोटापा! हाय,अल्लाह! ये मुआ मोटापा भी क्या-क्या न करवाए! हर जगह मुश्क़िलों से घिरे हम लेडी देवदास वाला चेहरा लिए घूमते थे। जीन्स पहनना अब बोझिल हो चला था, कपड़े छोटे हो गए थे (ऐसा बोला जाता है पर एक्चुअली तो हम ही मोटे थे न!) खाना-पीना भी कभी छूटता और कभी हम स्वाद कलिकाओं की मनुहार पर झट से झपट लिया करते थे। मित्र-मंडली और परिवार के सदस्य ढांढस बंधाने को झूठ ही कह देते, "अरे, मोटी कहाँ! खाते- पीते घर की लगती हो!" अब हम ही जानते हैं कि उनकी आँखों का सच उन्हें "छुपाना भी नहीं आता...जताना भी नहीं आता!" (बाज़ीगर और विनोद राठौर याद आए न!) अब अपनों की आँखें तो मुँह फेरकर भी पढ़ी जा सकती हैं, सो अपन का सच तो अपन जानते ही थे। 
वो तो भला हो बाबा रामदेव जी का कि उनकी कृपा से अनुलोम विलोम और कपाल भाति सीख लिए हैं। आप सब तो जानते ही हैं कि भय के समय हनुमान चालीसा और फोटू खिंचाते समय प्राणायाम की बड़ी जोर वाली जरुरत पड़ती है। हम भी अपने बगल वाले गोलुओं को ये प्रक्रिया समझा देते हैं। सब जैसे-तैसे 'पनीर' या 'श्री' बोल पेट को अन्दर खींचते हुए होठों पर डेढ़ इंची मुस्कान भले ही बिखेर लेते हों पर भीतर-ही-भीतर श्वांसों का जो त्राहिमाम मचता है उसकी अलग दर्द भरी कहानी है! वो तो अच्छा है कि प्रश्वांस के समय कार्बन डाई ऑक्साइड निकलती है....कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमंडलीय ऑक्सीजन से मिलकर सब किये कराये पर पानी फेर देती! ख़ुदा क़सम! क्लिक होते ही रुकी सांसों का ऐसा जलजला बाहर निकलता है कि सामने अगर पाकिस्तानी सेना खड़ी हो तो पलक झपकते ही उसका सर्वनाश हो जाए!

खैर, ये उन दिनों की बात है, जब हम सब कुछ करके हार चुके थे पर चूंकि जीना चाहते थे इसलिए ठूँसने में कोई कसर बाक़ी न थी। यूँ भी भैया, हम जीने के लिए तो खाते नहीं है! खाने के लिए जीने वाले लोगों की श्रेणी में आकर अलग-सा प्राउड फील करते चले आ रहे हैं। तो ऐसी ही एक सुहानी भोर को हमारी प्रिय सखी ने अचानक बौराते हुए आकर घंटी बजाई और बोली "अरे, जल्दी आ!!" हम सब काम छोड़छाड़ दरवाजे की तरफ सरपट भागे। देखा, तो वो सामने एक थैला लिए खड़ी थी। "अबे! कहाँ जा रही है तू?" हमने दोस्ताना लहज़े में उसके थैले में लगभग घुसते हुए पूछा। 
"ज्यादा बात न कर, चल! एक मशीन आई है उस पर लेटने से सारी बीमारियाँ दूर हो जातीं हैं।"
"हैं!!" मारे प्रसन्नता के हमारी चीख़ निकल गई। चक्षु अपनी कोटरों से बाहर ही लुढ़क पड़े। "वज़न भी कम होता है क्या!" अब उत्सुकता मचल-मचलकर शब्द बन थिरकने लगी थी। 
"और नहीं तो क्या! दो महीने में स्लिम-ट्रिम। उस पर अभी फ्री भी है।"
"फ्री,फ्री,फ्री!" यह शब्द किसी डेली सोप की तरह हमारे कर्णपटल पर तीन बार झनझना हर भारतीय की तरह हमें भी अपार उल्लसित कर गया। अबकी बार हम दोनों गालों पर मिस यूनिवर्स की तरह हाथ रख बड़ी अदा से हँसे। वैसे मन-ही-मन तो "हाय दैया! ऐसा भी होता है!" टाइप के भाव तीव्र गति से हिलकोरे मार रहे थे। 
अब दोस्त से प्रश्न कौन करता है भला! आनन-फ़ानन में चादर लेके चल पड़े। रास्ते भर चहकते हुए गए। उमंगें अपने चरम पर थीं।

कुछ ही मिनट बाद हम उस अद्भुत दुनिया के दरवाजे पर थे जहाँ 'विश्व-सुंदरी' बनने के सपनों की अपनी उड़ान भरनी थी। लेकिन ये क्या! बाहर चप्पलों की टाल लगी थी। इतने लोग??? अंतरात्मा जी ने उत्तर दिया, "बेटा, आप अपनी स्मार्टनेस दिखाने में जरा लेट हो गए हैं।" 
ख़ैर! समझदारी से कोने में जूते छुपाकर कक्ष में प्रवेश किया। सामने खड़े एक अकड़ू इंसान से बात हुई जो स्वयं को सुपर हीरो से रत्ती भर भी कम नहीं समझ रहा था। उस पर घुन्नू जैसा चेहरा बनाकर बोला, "बैठिये...वेटिंग है चालीस मिनट लगेंगे।"
यूँ तो लोग रेस्टॉरेंट में इतना वेट भी कर लिया करते हैं पर हमें ये बात अखर गई। "चालीस!!! इतनी देर में तो घर के सौ काम निबटा लेती। भैया, चालीस मिनट बाद आयें क्या?" 
"नहीं! फिर दोबारा नंबर लगेगा।"
"अच्छा! ठीक है। रुक ही जाते हैं।" कहकर हम चुप हो गए और उचककर पहले कमरे में झाँकने लगे। उन कमबख़्तों ने ऐसा इंतज़ाम किया था कि न सुन सको, न समझ सको। अंदर बैठे लोगों के चेहरे इतने गंभीर जैसे IAS के mains में बैठे हों। 
"पक्का! ये लोग योगा और एक्सरसाइज का ही प्रवचन दे रहे होंगे!" अपनी ये बात सोच हमें ख़ुद ही घबराहट होने लगी। दिल को तसल्ली दी, "नहीं, नहीं! इतना ज़ुलम तो नहीं हो सकता!"

पूरे पचास मिनट बाद प्रवेश की शुभ घड़ी आई तो पता चला कि अभी प्रवचन की बाधा पार करने के बाद ही मशीन दर्शन होंगे। 50-60 लोगों का बैच था। हम लपककर प्रथम पंक्ति में बैठ गए जिससे देखने-सुनने में कोई असुविधा न हो। तभी एक मनुष्य ने कुटिलता के साथ सबको हिक़ारत की दृष्टि से देख मुस्कुराने की ओवरएक्टिंग की। तत्पश्चात उसने श्रोताओं को ज्ञान बाँटना प्रारम्भ किया ...."कि हम भारतीय कितने परले दर्ज़े के मूरख हैं और जापान में ये, जापान में वो।"
जापान से कोई दिक़्क़त नहीं हमें; पर हमारे सामने ही कोई हमें इस क़दर कोसे और हम चुप रहें? तो लानत है हम पर!...हम वहीं भिड़ 
गए कि "आप प्रोडक्ट की बात करें, देश को कोसते हुए बोलने की क्या जरुरत है?" बन्दा बौखला गया और उसी पल से हम परस्पर अघोषित दुश्मन भी हो गए। पहले दिन के हिसाब से ये अठैन थी पर अब जो हो गया सो हो गया!

उन सर जी की बातों को झेलने के बाद अंततः वह पल आया जिसके लिए हम बेक़रार थे। कमरे में एक पलंगनुमा संरचना दिखाई दी, जिसके आसपास कुछ गैजेट्स से लगे थे।  एकदम ICU वाली फ़ीलिंग आ रही थी। हम अपनी चिंता को मन में मारकर शवासन को प्राप्त हुए। धीरे-धीरे तापमान बढ़ने लगा और हम हाय, हाय का जाप कर पसीना-पसीना हो गए। मन किया उसको जाकर बोलें कि "ऐसे ही पतला करना है तो हमको भरी दुपहरिया में सूरज के सामने तार पर लटका दो। इस मशीन की क्या जरुरत थी? या फिर हम खुद ही 48 डिग्री में छत पर जाकर लेट जायेंगे जैसे माँ पापड़ सुखाती हैं।" थोड़ी देर पहले ही उससे बहस हुई थी इसलिए चुप ही रह गए। 
अब तो रोज़ यही क़िस्सा! पूरी सुबह ख़त्म हो जाती और हम " हम होंगे क़ामयाब .O deep in my heart, I do believe.." का mixed version गुनगुना अपनी खीज मिटाते।

दो माह तक ये खेल चलता रहा और वज़न वहीं का वहीं। एक दिन हम थोड़े ज्यादा ही खिसिया गए और सीधे उसी जानी दुश्मन से जाकर प्रश्न किया कि "आख़िर इस मेहनत का फ़ल कब मिलेगा?" उसने जो उत्तर दिया; उसे सुनकर हम पर तो बिज़ली ही गिर पड़ी। बोला, "अरे मैडम! ये तो प्रोडक्ट प्रमोशन के लिए है। डेढ़ लाख की मशीन आती है, ख़रीद लीजिये, समय की बचत होगी। साथ में एक्सरसाइज कीजिये और डाइटिंग भी।"
उधर वो कहता जा रहा था और इधर हमारे सपने बिलख-बिलख हमारे ही पैरों में साँप की तरह लोट हमें डसे जा रहे थे। दिल कह रहा था कि उसका कॉलर खींच के कहें कि फिर झूठ काहे बोला कि "फ़लानी- ढिमकी बीमारी ठीक हो जाती है इससे। फिर याद आया, प्रथम प्रवचन में ही उसने बेवकूफ़ होने की बात नगाड़े की ताल पर की थी।"
हम चुपचाप अपना झोला उठा झुकी नज़रों, भारी मन और लुजलुजे क़दमों के साथ घर की ओर लौट चले। सामने देखा एक माँ अपने बच्चे के कान खींचती हुई कह रही थी, "और जायेगा फ़्री के चक्कर में?" और वो मासूम "नहीं, मम्मी! अब नहीं करूँगा। सॉरी, ग़लती हो गई। मम्मीईई, लगता है।" जाने क्या सोचकर हमारा हाथ, अपने ही कानों को सहलाने लगा।
- © प्रीति 'अज्ञात' 

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

#Amul अमूल


प्रिय #अमूल 
सबसे पहले तो यह जान लीजिए कि आप हम सबके favourite हमेशा से रहे हैं। अब भी इसमें कोई कमी नहीं आई है। 
अब ये बताइये कि ये 'कढ़ाई' दूध क्या होता है और आपकी हिन्दी टीम में कौन-कौन है?
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि #'कढ़ाई' का मतलब Embroidery होता है। जैसे - सिंधी कढ़ाई, लख़नवी कढ़ाई, कच्छी वर्क। इसके लिए सुई-धागे और कपड़े की आवश्यकता होती है। 
#'कड़ाही' वह पात्र है जिसमें दूध को ख़ूब औटाकर उसके महकने तक गाढ़ा किया जाता है। पहले लोहे की कड़ाही का ही इस्तेमाल होता था और अब जो हो जाए सो कम है। 
कृपया पैकेजिंग में बदलाव कर दीजिये। Vacancy हो तो हिन्दी टीम में हमें ही रख लीजिए। 
- प्रीति 'अज्ञात'
#अमूल #Amul #Amul_the_taste_of_india