मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

तुम्हें दुपट्टा तो मैचिंग का चाहिए लेकिन पति..?


भैया, जरा इसकी मैचिंग का दुपट्टा निकाल देना। 

सुन, छोटू! ऊपर से जरा लाल वाला दुपट्टा निकाल दियो। कॉटन का। 

नहीं, भैया! जॉर्जेट, शिफॉन या सिल्क में हो तो अच्छा।    

जी, बहनजी। लीजिए, ये रहा आपका दुपट्टा। 

अरे! ये तो रानी कलर का है। ये कुर्ते का रंग तो देखो! कहाँ मैच कर रहा? 

अच्छा! और मँगवाता हूँ। छोटू, वो नीचे वाला गट्ठर ले आ। 

अरे, ये तो पिंक है। 

नहीं, दीदी। बेबी पिंक है। 

बहनजी, मरून भी चल जाएगा। रखकर देखिए। 

नहीं, भैया। इससे तो मैं गाजरी ले लूँ। नारंगी भी चल जाए शायद। कुर्ते में एक-दो फूल हैं उस कलर के। 

अच्छा भैया, सुनो क्रिमसन रेड या ब्रिक रेड में मिलेगा?

नहीं, दीदी। उस हिसाब से तो इस पर ब्लड रेड या टमाटरी ही जाएगा। 

ये लो जी, टमाटरी। पैक करा दूँ?

मज़ा नही आ रहा और दिखाओ। अच्छा, रुको। यही कलर नेट में मिलेगा क्या?

नहीं, आप डाई करवा लीजिए। मंडे तक दे दूँगा। 

नहीं, रहने दीजिए। हम कहीं और देख लेंगे। आपके यहाँ तो चॉइस ही नहीं है। 

शायद आपको भी कोई खरीद याद आ गई होगी! यह भी हो सकता है कि पापा या भाई से मंगाई कोई वस्तु का किस्सा दिमाग में घूम गया हो, जिस पर रंग के मारे चिक-चिक हुई थी। जहाँ पापा कह रहे कि 'हरा ही तो मंगाया था!' और भैया चिढ़ रहा, 'मैंने तो सी ग्रीन समझाया था पापा को। इन्होंने मेरी बात ही नहीं सुनी।' 

तब आप तुनककर बोलीं, 'नहीं इसे ऑलिव ग्रीन कहते हैं।' 

कहने को तो सात ही रंग हैं पर परेशानी यह कि उसमें सात सौ शेड्स निकल आए हैं। उससे भी बड़े दुख की बात यह कि हम स्त्रियों को न केवल इन रंगों की जानकारी है बल्कि मैचिंग मिलाते समय हम उसे पाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। 

कुछ रंगों (सी ग्रीन, टरकॉइज़, पीच, ऑफ व्हाइट इत्यादि) के बारे में हमारी राय है कि उनका रंग रात को सही नहीं पता लगता। तो उसे दिन में ही लेने जाते हैं। उस पर भी दुकान से बाहर निकल सूरज की रोशनी में दो बार अतिरिक्त जांच करते हैं कि परफेक्ट मैच है या नहीं!

बात दुपट्टे की ही नहीं बल्कि ब्लाउज, पेटीकोट, चूड़ियाँ, जूती, लिपस्टिक, बिंदी, ईयर रिंग सबके मैचिंग की अपनी कहानी है। मैचिंग मिलाते समय जैसे एक जुनून सा छा जाता है कि अजी! ऐसे कैसे नहीं मिलेगा! ढूँढकर ही दम लेंगे! जबकि इस सच्चाई को हम सभी बहुत अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि एकाध शेड ऊपर-नीचे होने से कोई अंतर नहीं पड़ता! लेकिन हमें तो पड़ता है न! बस यही इक बात हमें पागल कर देती है और हम दीवानों की तरह उसकी तलाश में निकल पड़ते हैं। कितनी बार जरा सी चीज के लिए दस किलोमीटर तक चले जाते हैं। गली-गली भटक सौ दुकानों पर पूछते हैं या घर में किसी को दौड़ा दिया जाता है। 

सब्जी, फल, बेडशीट, सजावटी सामान, पौधे, फर्नीचर और तमाम घरेलू सामान हर वस्तु की खरीद के लिए हम अपनी पसंद-नापसंद को स्पष्ट रूप से बताते रहे हैं, अपनी ज़िद पर अड़ खूब बहस भी की है। जमकर चिकचिक की है कि 'ये वाला फोन चाहिए तो चाहिए ही', भले उसके लिए रात 12 बजे लॉगिन कर बुकिंग करनी पड़े।

तो लड़कियों, मैं तुम्हें हमारी प्रजाति के बारे में यह सब इसलिए याद दिला रही हूँ क्योंकि हमारी न कुछ आदतें बड़ी ही अजीब होती हैं। यूँ तो ये सामान्य ही लगती रहीं हैं।  पर गहराई से समझो तो लगता है कि हम कितनी अनावश्यक वस्तुओं पर अपना समय जाया करते हैं। वहाँ हम अपनी पसंद को लेकर बहुत स्पष्ट भी रहते हैं। कहीं कोई संशय नहीं! लेकिन जहाँ पूरा जीवन बिताने की बात आती है, जीवनसाथी चुनने की बात आती है, झट से एक दिन में निर्णय ले लिया करते हैं। बहुधा सामाजिक दबाव के चलते, मन-मस्तिष्क पर जैसे चुप्पी सी छा जाती है। 

आज भी कई लड़कियाँ ऐसी हैं जो घरवालों के बताए रिश्ते को चुपचाप सिर हिलाकर हामी भर देती हैं। पलटकर प्रश्न तक नहीं करतीं कि लड़के का स्वभाव कैसा है? उसकी रुचियाँ क्या हैं? यह सच है कि माता-पिता अपने बच्चों के लिए बेहतर ही सोचते हैं। लेकिन केवल अच्छे घर और अच्छी कमाई से ही जीवन नहीं चला करता! लड़का/लड़की की मानसिकता, सोच, स्वभाव, संवेदनशीलता और सामाजिक व्यवहार के बारे में भी जानना उतना ही आवश्यक है। अन्यथा विवाह, मात्र समझौता भर बनकर रह जाता है। परिवार की पसंद के लड़के से अवश्य विवाह करें पर उसे जान तो लीजिए। 

समय बदल रहा है। इस बदले हुए समाज और ढेर होती मान्यताओं के दौर में अब मन मसोसकर किये गए समझौते चरमराने लगे हैं और बात संबंध-विच्छेद तक पहुँच जाती है। तनाव और अवसाद घेर लेता है, सो अलग। कई बार स्थिति घातक भी हो जाती है। जब हम बिना विचार किये कुछ तय नहीं करते, तो अपना जीवन कैसे दाँव पर लगा देते हैं!

कभी सोचा है कि हमें दुपट्टा तो मैचिंग का चाहिए लेकिन पति..?

- प्रीति अज्ञात

राजधानी से प्रकाशित पत्रिका 'प्रखर गूँज साहित्यनामा' के दिसम्बर 2022 अंक में मेरे स्तम्भ 'प्रीत के बोल' में प्रकाशित

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हत्या का कारण ‘लिव इन रिलेशन’ पर थोप, कहीं हम अपना पल्ला तो नहीं झाड़ रहे?

'आउटलुक' हिन्दी के 12 दिसम्बर 2022 अंक में प्रकाशित -

आफ़ताब ने जो जघन्य अपराध किया, वह अक्षम्य है। हैवानियत की ऐसी तस्वीर कि इंसान भीतर तक सिहर जाए। इंसानियत से भरोसा उठ जाए! ऐसे अपराधी के लिए फ़ांसी की सजा भी कम ही लगती है। श्रद्धा की नृशंस हत्या के साथ- साथ यह उस विश्वास की भी हत्या है जिसे वह प्रेम के नाम पर जीती रही। लेकिन सोचिए कि वह लड़का किस हद तक शातिर और पाशविक प्रकृति का होगा जो अत्यंत क्रूरता और निर्ममता से इसी प्रेम और विश्वास के पैंतीस टुकड़े कर उन्हें फ्रिज़ में रख, धीरे-धीरे जंगल में ठिकाने लगाता रहा।

स्पष्ट है कि एक रिश्ता जिसका अंत इतना बर्बर हुआ हो, वहाँ सब कुछ रहा होगा सिवाय प्रेम के। प्रेम आपको सभ्य और सुंदर बनाता है हत्यारा नहीं! लेकिन वो लड़की उसके व्यक्तित्व को न समझ सकी, या फिर समझते हुए भी इस उम्मीद से रिश्ते में बंधी रही कि सब ठीक हो जाएगा। लड़कियां संकेत समझते हुए भी रिश्ते से बाहर निकल नहीं पाती हैं क्योंकि समाज की सीख उनका पीछा करतीं हैं।

दुख इस बात का ही नहीं कि एक लड़की इस बेरहम दुनिया से चली गई, अफ़सोस उसके बाद आई प्रतिक्रियाओं का भी उतना ही है। हिन्दू-मुस्लिम करने वालों को तो नया मसाला ही मिल गया। उधर अरैन्ज मेरिज के पक्ष में भी क़सीदे काढ़े जाने लगे हैं। जिस तरह से लिव इन और प्रेम को कोसा जा रहा है वह हैरान करने वाला है। मैं लिव इन के पक्ष में पूरी तरह से नहीं हूँ पर यह जरूर मानती हूँ कि दो वयस्कों को अपनी मर्ज़ी से रिश्ते में बंधने का पूरा अधिकार है।

श्रद्धा की हत्या के बाद यह कहा जाना कि 'उसके साथ तो यही होना चाहिए!' भी कहने वाले को हत्यारे के पक्ष में ही खड़ा कर देता है। यह ठीक उसी तरह की मानसिकता से निकली सोच है जिसमें दुष्कर्म पीड़िता पर ही छोटे कपड़े पहन, अपराधी को उकसाने का आरोप मढ़ दिया जाता है।

आखिर क्या हो गया है हमारी सोच को?

हमारी मानवीयता और संवेदनाओं को क्या होता जा रहा है? यदि कोई लड़की अपने माता-पिता की बात न मानकर अपने प्रेमी के साथ रहना तय कर लेती है तो क्या यह अपराध है? इतनी बड़ी भूल है कि उसकी हत्या होने पर आप नाक-मुँह सिकोड़ संवेदनशून्य हो जाएं? अपराधी के कृत्य को न्याय संगत बताने लगें? या यूँ कहने लगें कि 'सही सबक मिला उसे।' जो बच्चे अपने माँ-बाप के अनुभव, सीख को न सुनें-समझें,  क्या वे मृत्यु के हक़दार हैं?

बच्चे बड़े हो गए तो क्या परवाह चली जाती है?

माना कि किसी लड़की ने अपने माता-पिता की नहीं सुनी और अपने प्रेमी के साथ चली गई। चलो, उसने यह भी कह दिया कि 'वो मर गई परिवार के लिए', तो उसे सचमुच मरा मान उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ लें?

क्या परिवार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि अपने जिगर के टुकड़े का अपडेट लेते रहें? यदि अहंकार आड़े आता है तो कम-से-कम उसके दोस्तों के तो संपर्क में रहें। हम उस समाज में रहते है जहाँ बचपन में बच्चों को मारते-पीटते हुए कितनी ही बार माता-पिता गुस्से में कह जाते हैं कि 'मरते भी नहीं! परेशान कर रखा है। जीवन नरक कर दिया, इन बच्चों ने!' बच्चा फ़ेल हो जाए तो उसकी हड्डी-पसली एक कर देते हैं कि 'नाक कटा दी बदतमीज़ ने!' पर उसके बाद वही माँ बच्चों से लिपट खूब रोती है, वही पिता उनके सिर पर दुलार का हाथ रख कहता है कि 'कोई बात नहीं! अगली बार खूब मेहनत करना!' बच्चे, बड़े हो गए तो क्या परवाह चली जाती है?

लोग यहाँ तक कह रहे कि ‘ऐसी लड़कियों से क्या सहानुभूति रखना!’ कैसी लड़कियाँ भई?

क्या एक प्रेम भरे जीवन की कामना करना गलत है? लड़कियों की कंडीशनिंग ही ऐसी हुई है जहाँ वे कहने को तो सशक्त हो गईं हैं पर उम्र के हर दौर में अकेले रहने से आज भी डरती हैं। उन्हें हमेशा एक साथी की तलाश रहती है जिसके गले लग वे अपने सुख-दुख बाँट सकें। जिसके साथ हँसी के पल गुज़ार सकें। जिसकी उपस्थिति उन्हें इस एक तसल्ली से भर दे कि इतनी बड़ी दुनिया में एक व्यक्ति तो ऐसा है जो मेरा अपना है, जो मेरे लिए जीता है, जिसे इंतज़ार है मेरा। यह किसी एक श्रद्धा की ही नहीं बल्कि हर लड़की की कहानी है। स्वार्थ से भरी दुनिया में एक निश्छल मन की तलाश। एक कंधे की तलाश, जिस पर सिर रख वे अपने भविष्य के तमाम सुनहरे ख्वाब सँजोती हैं। वे भाग्यशाली लड़कियाँ जिनके भाई, मित्र या पिता उन्हें इस तरह का भावनात्मक सहारा दे पाते हैं, वे कभी लाश बनकर घर नहीं लाई जातीं। मरती वहीं हैं जिन्हें यह अहसास कराया जाता है कि चूँकि उन्होंने अपनी पसंद से जीवनसाथी चुन लिया है तो वे पलटकर मायके का मुँह कभी न देखें।

हद है!

आप लिव इन या प्रेम विवाह के विरोधी हो सकते हैं पर इनके नाम पर माँ-बाप की मर्ज़ी से हुई सभी शादियों को सही नहीं ठहरा सकते। वे रिश्तों की प्रगाढ़ता का अंतिम सत्य नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं तय की हुई शादियों में अनगिनत लड़कियाँ अचानक स्टोव में आग लगने की कहानी गढ़कर' ज़िंदा ही फूँक दी गईं, पिताओं की पगड़ी सड़क पर उछाली गई, कितनों ने स्वयं मृत्यु को गले लगा लिया कि उनके गरीब माता-पिता भेड़ियों को दहेज़ कब तक दे पाएंगे! कितनों ने इसलिए जीवन लीला समाप्त कर ली क्योंकि विदाई के वक़्त उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया गया कि 'लड़की की डोली मायके से उठती है और अर्थी ससुराल से!' उसके बाद गलती से लड़की घर आ भी गई तो समझा-बुझाकर लौटा दिया जाता है कि 'अब वही तुम्हारा घर है। थोड़े-बहुत झगड़े कहाँ नहीं होते!" 'पराया धन' का चाबुक दिन-रात उसे पड़ता है। क्षमा मांगते हुए संकोच के साथ कह रही हूँ कि 'यदि आपके लिए लिवइन या प्रेम विवाह गारंटी के साथ का रिश्ता नहीं है तो अरैन्ज मैरिज भी बिका हुआ माल वापिस नहीं होगा' जैसा ही है।

अब इस घटना का राजनीतिकरण होगा, हिन्दू-मुस्लिम ज़हर बोया जाएगा, विदेशी कनेक्शन, लव ज़िहाद और सौ बातें कह दी  जाएंगी लेकिन लड़कियों को ज्ञान बाँटता समाज अपनी जिम्मेदारी शायद ही कभी समझेगा। माना कि हम अपराधी को नहीं समझा सकते लेकिन सामाजिक, व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर नई पीढ़ी तक हमारी बात पहुँचाने और इन विषयों को समझाने की बहुत अधिक आवश्यकता है।

पर अपराध को धर्म से तौलने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के बीच, हमारे बच्चों को सामाजिक  व्यवहार, रिश्ते संभालने और उन्हें जीने का पाठ अब भी नहीं सिखाया जाएगा। जबकि हमें उनकी किशोरावस्था में यह बता देना चाहिए कि आँख मूँदकर साथी न चुनो, धोखा भी हो सकता है। उन्हें यह भरोसा भी देना चाहिए कि 'मेरे बच्चे, रिश्तों में खतरे का संकेत मिलते ही घर लौट आना। हमारा प्यार और आशीष सदा तुम्हारे साथ है।' जब तक हम अपनी इज़्ज़त और बच्चों में से ‘इज़्ज़त’ को बचाने पर आमादा रहेंगे, अपराधों में कमी का सोचना भी निरर्थक है।

-प्रीति अज्ञात

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सोमवार, 21 नवंबर 2022

तबस्सुम की मुस्कान हमारे साथ है

तबस्सुम के बारे में सोचती हूँ तो एक हँसता-खिलखिलाता चेहरा सामने आ खड़ा होता है। हँसी ऐसी कि जैसे सर्दियों की सुबह में धरती पर महकता हरसिंगार बिखरा हो। आवाज में इतनी मधुरता कि जैसे मीठे पानी का कोई झरना कलकल बहता ही जा रहा हो। उनकी तस्वीर भर भी देख लें तो एक उदास दिल को सुकून आ जाए, निराश हृदय में आस के तमाम दीप जल उठें! अब ऐसी शख्सियत का नाम 'तबस्सुम' न हो तो और क्या हो! मुस्कान की मूरत उन सी ही तो होती होगी न!  

वे नाम की ही नहीं, टीवी के दर्शकों के होंठों की भी तबस्सुम थीं। यहाँ 'थीं' लिखना खटक रहा है पर नियति पर किसका बस चला है! उसे तो सिर झुकाकर स्वीकार करना ही होगा। सबके दिलों में फूल खिलाने वाली तबस्सुम का दिल 18 नवम्बर 2022 की शाम अपने धड़कने की जिम्मेदारी निभाने से चूक गया और एक बुरी खबर उनके प्रशंसकों के हिस्से आ पड़ी। तबस्सुम नहीं रहीं।

बेबी तबस्सुम के नाम से फ़िल्मी दुनिया में अपनी शुरुआत करने वाली तबस्सुम ने कई भूमिकाओं को निभाया लेकिन भारतीय दूरदर्शन के पहले टॉक शो 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' की होस्ट बनकर वे हर दिल अजीज बन गईं। उनके बोलने का अंदाज़ तो निराला था ही लेकिन प्रस्तुति में जो मासूमियत और किसी बच्चे सी जो निश्छलता छलकती थी, वही बात उनके कार्यक्रम को जीवंत बनाती थी। 21 वर्षों तक इस कार्यक्रम का प्रसारित होना अपने-आप में एक मिसाल है। वे 15 वर्षोंतक महिलाओं की पत्रिका गृहलक्ष्मी की संपादक भी रहीं। उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं।‘तबस्सुम टॉकीज’ नाम से उनका यू ट्यूब चैनल भी था।  

जीते-जी हम किसी के बारे में उसके काम से ही जानते हैं। लेकिन उसके चले जाने के बाद उसके जीवन से जुड़ी कुछ अन्य बातें भी पता चलती हैं। जैसे कि मैंने आज ही जाना कि उनका आधिकारिक नाम किरण बाला सचदेव था लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। हाँ, इसके पीछे की कहानी बड़ी ही खूबसूरत है। तबस्सुम के पिता अयोध्यानाथ सचदेव स्वतंत्रता सेनानी थे तथा उनकी माता असगरी बेगम भी स्वतंत्रता सेनानी एवं लेखक थीं। तबस्सुम के जन्म के बाद, उनके पिता की भावनाओं का ध्यान रखते हुए असगरी बेगम जी ने अपनी बेटी का नाम किरण बाला रखना तय किया तो वहीं माँ की भावनाओं के मद्देनज़र पिता को 'तबस्सुम' नाम रखना सुहाया। तबस्सुम का विवाह, अभिनेता अरुण गोविल के बड़े भाई विजय गोविल से हुआ था। लेकिन 'तबस्सुम' नाम ही उनका पूरा परिचय बता देने के लिए पर्याप्त है। 

अब जबकि एक ज़िंदादिल शख्सियत ने इस दुनिया से अचानक ही रुखसती ले ली है, हमें यक़ीन है कि उनके चाहने वालों के  दिलों में उनकी मनमोहक मुस्कान सदा ज़िंदा रहेगी।

- प्रीति अज्ञात



रविवार, 13 नवंबर 2022

खेल भावना

जैसे कम अंक आने पर, कुटाई का खतरा महसूस होते ही बच्चा झट से अपने मम्मी-पापा को बताता है कि "वो शर्मा अंकल जी के गुड्डू के मार्क्स तो मुझसे भी कम हैं।" फिलहाल ठीक वैसे ही पाकिस्तान वाले अपना मन बहला रहे। 

हम भारतवासी फाइनल नहीं खेल सके तो क्या हुआ, पर ठीक इसी भाव ने ही हमारे सदमे को भी कम कर दिया है। हमारी हार, दुख और जलन पर जैसे बर्फ़ के ठंडे छींटे आ गिरे हैं कि "हीहीही पाकिस्तान भी तो नहीं जीता न! हुँह बड़े आए थे फाइनल वाले!" 😁

पाकिस्तान वाले भी अपनी हार के ग़म से कहीं अधिक इस बात से प्रसन्न होंगे कि भारत भी तो  नहीं जीता। इसी एक बात के बल पर, वो हारने के बाद भी अपने देश में अकड़कर चल सकेंगे और जनता की गालियों से बचते रहेंगे। शायद फूलमालाओं से स्वागत भी हो जाए। 😜
पुनः ठीक इसी बात ने ही भारतीयों को भी राहत दी कि कम-से-कम पाकिस्तान से तो नहीं हारे! हमारे खिलाड़ी भी आज मन में सोच रहे होंगे कि "भिया, अब तो..स्वागत नहीं करोगे हमारा!" 😎

इसी बीच इंग्लैंड वाले यह सोच हलकान हुए जा रहे कि उन्हें इतनी जबरदस्त बधाइयाँ क्यों मिल रहीं? पहले तो भारत उनसे हारकर दुखी था लेकिन अब उनकी जीत से प्रसन्न है! पाकिस्तान वाले भी हारने के बाद इतने कम दुखी क्यों लग रहे! 😕
तभी कुछ लोग फोन पर बताएंगे कि यही तो हमारी सच्ची 'खेल भावना' है। 
इस नवीन जानकारी को पाते ही भारत-पाकिस्तान अपनी महानता पर थोड़ा गर्व से इतराएंगे। लेकिन मंद मंद मुस्काये बिना भी न रह सकेंगे। लज्जा का यहाँ कोई स्कोप नहीं है। 😌

कल प्रमुखता से कुछ अखबारों में छपेगा कि कैसे सुनक जी भारत के लिए शुभ हैं। उधर वे (ऋषि सुनक जी) इंग्लैंड की टीम को बधाई देते हुए मन में एक बार तो सोच ही लेंगे कि "बेटा! जीत का असली हीरो तो मैं हूँ! बधाई की सौगात.. इधर भी है, उधर भी!" 😎
उफ़! ये मुझे चक्कर क्यों आ रहे! 😦
- प्रीति अज्ञात 

यूँ ही

 कहते हैं आपके अच्छे कर्म सदा आपके साथ चलते हैं। वो इंसान जिसने मन से एक पल को भी किसी का बुरा नहीं चाहा, ईश्वर उसके साथ ही रहता है। अब इस बात में कितना सच है, उसे संवेदनशील लोगों के अलावा कोई और नहीं समझ सकता।

इस दुनिया में अब भी ऐसे तमाम भावुक लोग मिल जाएंगे जो दूसरे के दुख को अपना समझते हैं। उनके दर्द को भीतर तक महसूस करते हैं। उनकी एक मुस्कान के पीछे सब कुछ लुटा देने को तत्पर रहते हैं। इनका स्नेह निस्वार्थ होता है पर किसी के निश्छल मन और ईमानदारी पर संदेह करने की रीत भी इसी दुनिया से निकली है। न हम उन्हें बदल सकते हैं, न वो हमें।

हमारी Good deed, हमारी kindness हमारी अपनी है , उसे दिखावे की आवश्यकता नहीं होती। इसे किसी पर थोपा भी नहीं जा सकता। यह एक ऐसा सकारात्मक भाव है जो किसी अनजान व्यक्ति के साथ भी हमें जोड़ देता है, एक रिश्ता सा बन जाता है जैसे। किसी के चेहरे पर खिलती मुस्कान का बिम्ब हमारे चेहरे पर भी उभरता है।

जीवन यही है, इतना सा ही तो है। न जाने क्यों बेवज़ह की बातों पर समय खर्च करते लोग इस बात को समझ नहीं पाते। इतिहास साक्षी है कि ईर्ष्या, द्वेष, बदले की भावना ने कभी किसी का भला नहीं किया बल्कि सब खत्म ही किया है। 

जीवन जो यूँ भी एक न एक दिन ख़त्म होने ही वाला है, हमारी कोशिश रहे कि हम उसका हर पल खूबसूरत बनाए। सबसे प्रेम करना सीखें, हर रिश्ते का सम्मान करें। यदि हम किसी के लिए कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो कम से कम किसी का बुरा तो न ही चाहें।

एक कमरे में सब उदास बैठे हों तो वहाँ की हवा तक मायूस हो जाती है लेकिन हँसी का एक ठहाका जैसे माहौल में जान ही फूँक देता है। ' Smile is contagious' यूँ ही नहीं कहा गया है।

किसी को कुछ donate करें, किसी को treat देकर सरप्राइज करें, किसी के काम में उसके कहने से पहले ही मदद कर दें, किसी अपने का हाथ थाम बस कुछ पल बैठें। किसी को Thank you कहें।

आज World Kindness Day भी है। कुछ अच्छा, इसी बहाने ही सही ...

Let's celebrate it together! 💐

Facebook की दो वर्ष पुरानी पोस्ट 

https://www.facebook.com/photo/?fbid=3494473860606756&set=a.387983091255864



गुरुवार, 10 नवंबर 2022

कहीं ‘विज्ञान’ संवेदनाओं पर भारी तो नहीं पड़ रहा?

आज ‘विश्व विज्ञान दिवस’ है अर्थात मनुष्य के लिए स्वयं पर गर्व करके का दिन। आदिम सभ्यता से आधुनिक काल की यात्रा के मध्य इस पृथ्वी पर उपस्थित समस्त प्रजातियों में यह मनुष्य ही है जिसने अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर सर्वश्रेष्ठ होने का घमंड बरक़रार रखा है। विज्ञान के दम पर अपनी इस गौरव यात्रा में अनवरत चलता हुआ वह अत्यधिक प्रसन्न है। क्यों न हो! दो-तीन दशक पूर्व जो बातें स्वप्नलोक की कोई अनूठी पटकथा सी लगतीं थीं, आज वे बड़ी सहजता से उसके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। फिर चाहे वह किसी प्रिय से वीडियो कॉल के माध्यम से यूँ बात करना हो, मानो आमने-सामने ही बैठे हैं या फिर घर बैठे मात्र एक क्लिक भर से बिजली, टेलीफोन के बिल का जमा हो जाना। यही कारण है कि इंटरनेट पर नित नए विकास से लेकर, अंतरिक्ष की सैर तक की चर्चाएं भी अब उतनी आश्चर्यजनक नहीं लगतीं!

हम जिस काल के साक्षी बन रहे हैं, वह नवीन अनुसंधानों और अथाह संभावनाओं का युग है। यहाँ सब कुछ संभव है। ऐसे में मनुष्य के मस्तिष्क और उसके बनाए, समझे विज्ञान के प्रति सिवाय धन्यवाद के भला और क्या ही भाव उपज सकता है! लेकिन जब संवेदनाओं और मनुष्यता पर विचार करने बैठती हूँ तब हृदय ठिठक जाता है। क्या आपको नहीं लगता कि इतनी भौतिक सुविधाओं को भोगते और तकनीकी माध्यम से नित सरलीकरण की ओर अग्रसर जीवन को जीना, अब पहले से अधिक तनावपूर्ण और दुष्कर होता जा रहा है? न केवल सामाजिक तौर पर हम अपना जुड़ाव और संवेदनशीलता खोने लगे हैं बल्कि हमारे मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसके दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। विज्ञान की दी हुई सुविधाओं से हम इतने आह्लादित हो गए कि उन्हें भोगने की तमीज़ भुला बैठे!

बदलता सामाजिक व्यवहार

व्हाट्सएप अफवाह का तो कहना ही क्या! अब अध्ययन करने का कष्ट कौन उठाए! तो आँख मूँद राजनीति एवं स्वार्थ से प्रेरित लिखे गए हर शब्द पर विश्वास किया जाता है। इसके चलते चाहे परिवार के सदस्य हों या वर्षों पुराने मित्र, वे सब दुश्मनों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। जबकि व्हाट्सएप का मूल उद्देश्य रिश्तों को क़रीब लाना और जोड़ना था लेकिन सब बिखरने लगा। अब हर व्यक्ति संदेह के घेरे में है। यात्राओं में भी देखिए तो अब कोई, किसी से बात नहीं करता। सब मोबाइल में ही घुसे रहते हैं।

पहले कैमरा होता था तो फोटो खींचना भी एक ईवेंट होता था। अब मोबाइल में कैमरा आ जाने के बाद किसी को, किसी की जरूरत ही नहीं। बस सेल्फ़ी क्लिक किया और हो गया। जबकि सेल्फ़ी की सुविधा उस समय के लिए है, जब आपके साथ कोई न हो या समूह चित्र लेना हो।

टीवी एक बड़ी तस्वीर की तरह दीवार पर टंगा है क्योंकि ओटीटी ने मनोरंजन की जिम्मेदारी संभाल ली। अब साथ बैठकर कार्यक्रम देखने की परंपरा भी नष्टप्राय है। अपने-अपने कमरे में बैठ मोबाइल या लैपटॉप पर कार्यक्रम देख लिए जाते हैं। वो साथ में टीवी देखते समय की मस्ती और ठहाके अब नहीं सुनाई आते।

कोई आता-जाता तो स्टेशन लेने जाने या छोड़ने की रीत थी। उसका भी अपना एक आनंद था। उबर या ओला कैब की उपलब्धता ने बहुत सुविधा दी लेकिन वो अपनापन भरा साथ चला गया। अपनी गाड़ी से कहीं बाहर जाना हो तो यात्रा रोमांचक होती थी। साथ हँसते थे, मजे लेते थे। घूमते- पूछते हुए जाने में सामाजिक जुड़ाव भी बनता था लेकिन जीपीएस के आते ही हम पूरी तरह से उस पर निर्भर हो गए। जैसे स्वयं पर से विश्वास ही उठ गया।

सुविधायुक्त जीवन-शैली

रिमोट कितनी छोटी सी वस्तु है लेकिन इसके आने के बाद से हम सोफ़े पर और आराम से बैठने लगे हैं। टीवी, लाइट को ऑन-ऑफ करने के लिए एलेक्सा है ही। बस चादर तानी और सो गए। फिर स्वास्थ्य संबंधी परेशानी के चलते मॉर्निंग वॉक पर डिजिटल घड़ी पहनकर जाना शुरू करते हैं जिससे हमारे क़दमताल का लेखा-जोखा मिलता रहे। मशीनें ही बता रहीं कि शरीर के घटकों का अनुपात क्या चल रहा। प्रत्येक व्यक्ति आधा डॉक्टर है। धड़कनों की गति और ऑक्सीजन प्रतिशत का हिसाब उसके पास है।

संतुलित भोजन को एक तरफ रख प्रोटीन शेक और मल्टी विटामिन की गोलियों को ‘फिटनेस मंत्र’ मानकर जीने लगे हैं। दिन-रात चौके चूल्हे में उलझी गृहिणियों के लिए भी अब किचन और घर के प्रबंधन हेतु मशीनें हैं। उस पर खाने की होम डिलीवरी से अब माँ के हाथ का खाना, ममता सब ज़ोमेटो और स्विगी ने संभाल लिया है। सोचना होगा कि इनके अधिकाधिक प्रयोग से कहीं हम पहले से अधिक अकर्मण्य और बीमारियों को न्योता देने वाले तो नहीं बन रहे?

सुविधाओं की तो अंतहीन सूची है। हमें बिल भरने की लंबी पंक्तियों में, घंटों खड़े रहने से आजादी मिली। अब किसी बाबू को नहीं कोसना होता है और बैंकिंग भी घर बैठे हो जाती है।

अमेजॉन, फ्लिपकार्ट सपनों की होम डिलीवरी करने लगे हैं। गोबर के उपलों से लेकर हीरों के हार तक सब ऑनलाइन उपलब्ध है। खरीदा जा सकता है, लौटाया जा सकता है। ऐसे में बाज़ार जाने की जरूरत ही नहीं। यहाँ डिस्काउंट तो मिलते ही हैं, साथ ही समय की भी बहुत बचत होती है। अभी ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ेगी ही।

समय कहाँ गया?

कुल मिलाकर कहना यह है कि विज्ञान ने हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाया, समय की बचत की लेकिन यह बचा हुआ समय किधर है? क्या अब हमारे पास, अपनों से दो मीठे बोल बोलने का समय दिखता है कहीं? पहले तमाम असुविधाओं में रहते हुए भी किसी से भी मिलना हो, तो बेझिझक जाया करते थे लेकिन अब बिना सूचित किये जाना भी असभ्यता है क्योंकि सभी व्यस्त हैं।

तात्पर्य यह कि विज्ञान ने हमें सुविधा दी परंतु सामाजिकता की बलि हमने स्वयं ही चढ़ाई है। तभी तो मनुष्य इतना अकेला और अवसादग्रस्त हो गया है कि उसकी समझ ही खोती जा रही है। उंगलियों पर बड़ी सरलता से किये जाने वाले हिसाब भी वह अपने मोबाइल का केलकुलेटर खोलकर करता है। उसका आत्मविश्वास पहले सा नहीं रहा। तकनीक पर निर्भरता इस हद तक कि अब घरवालों के फोन नंबर भी याद नहीं रखे जाते।

कहीं उसकी बुद्धि छीनी तो नहीं जा रही? रोबोट और आर्टिफ़िशियल इन्टेलीजेंस का प्रवेश हो चुका है। इनकी बहुलता के बाद अपनी बुद्धि और संवेदनशीलता को गिरवी रखने वाले मनुष्य के पास अपनी मनुष्यता सिद्ध करने को बचेगा क्या? कहीं हम स्वयं मशीन में परिवर्तित तो नहीं हो रहे?

इधर मोबाइल, तमाम तरह के सूक्ष्म कैमरा के माध्यम से हुए अपराध तथा बढ़ते साइबर क्राइम ने विज्ञान के दुरुपयोग की भयावह तस्वीरें भी सामने रख दी हैं। कोई किसी को पीट रहा हो, दुर्घटनाग्रस्त हो, हत्या हो रही हो वहाँ उपस्थित अधिकांश लोग उसे बचाने के स्थान पर कंटेंट अपलोड करने में रुचि रखते हैं। इस दुष्चक्र से कौन, कब तक बच सकेगा, यह देखना होगा। लेकिन तकनीक के माध्यम से हमारी मानसिकता, सोच, संवेदनशीलता का जिस तरह अपहरण एवं क्षरण किया जा रहा है वह और भी भयाक्रांत कर देने वाला है!

विज्ञान ने तो जीवन को सरल बनाने के उद्देश्य से हमें सुविधाएं दीं लेकिन हमने ही उनका दुरुपयोग कर जीवन जटिल बना दिया है। हमें चाहिए था कि सुविधाओं को भोगते हुए, मानवीय मूल्यों को संरक्षित रखें लेकिन हम अपनी सामाजिकता और उत्तरदायित्व को विस्मृत कर उसे नरक के द्वार तक ले आए हैं। विज्ञान ने हमसे हमारी मनुष्यता नहीं छीनी बल्कि झूठे अहंकार और स्वार्थ के चलते हमने ही, उसे ताक पर रख दिया है। वस्तुतः हमने पाया विज्ञान से है और जो गंवाया, उसमें हमारी मूर्खता ही एकमात्र कारण है।

काश विज्ञान का कोई अविष्कार मनुष्य को धर्म, जाति, सम्प्रदाय की बेड़ियों से मुक्त कर जीना सिखा दे, प्रेमभाव से इस सृष्टि को पूजना सिखा दे! क़ाश कोई मनुष्य को उसकी मनुष्यता लौटा दे! राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक लगती हैं –

हम कौन थेक्या हो गये हैंऔर क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल करयह समस्याएं सभी

- प्रीति अज्ञात https://hastaksher.com/

'हस्ताक्षर' नवम्बर 2022 के इस संपादकीय को आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं -

https://hastaksher.com/14856-2is-science-overpowering-the-senses/ 

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मंगलवार, 8 नवंबर 2022

भ्रष्टाचार की आँखों देखी

ट्रेन में अपनी सीट पर बैठी हुई थी कि साइड लोअर वाली बर्थ पर बैठे व्यक्ति का मोबाइल बज उठा। बात करते हुए उन्होंने फोन करने वाले से कहा कि 'अरे! आप क्यों परेशान हो रहे हैं? आपका काम हो जाएगा। हमारी बात कभी गलत नहीं होती। आपको तो हमारा पूरा इतिहास पता ही है।' दो-तीन मिनट बाद हे हे हे की ध्वनि के साथ कॉल समाप्त कर उन्होंने गर्व भरी मुस्कान फेंकते हुए इधर-उधर देखा। जैसी कि उन्हें उम्मीद थी, उनकी बर्थ के ऊपर उपस्थित और आमने-सामने जमा कुल पाँच चेहरों में से दो की उत्सुक दृष्टि उन पर थी। उत्सुकता तो मुझे भी थी, बस जाहिर नहीं किया था। 


दरअसल सेकंड एसी के इस कूपे में चार पुरुष सहयात्री थे तथा ऊपर की बर्थ पर एक लड़की थी। कुछ पल पहले ही उसकी माँ ने आकर उसे रात ग्यारह  बजे तक दूसरी बोगी में आने का निर्देश दिया था। यहाँ उसके स्थान पर उसके पापा या भाई के आने की बात हो रही थी। डिब्बे में कोई परिवार के साथ हो, बच्चे वगैरह हों तो मुझे बहुत अच्छा लगता है अन्यथा सहज नहीं हो पाती। तो मुझे इस बात की भी चिंता हो रही थी कि अब नींद तो लगने से रही। खैर! मोबाइल गैलरी में तस्वीरों को देखने का नाटक करते हुए कान तो मेरे भी खड़े हो ही चुके थे।

तभी मेरे ठीक सामने वाले व्यक्ति ने, उन ठसके के साथ बैठे फोन सेलिब्रिटी से चर्चा प्रारंभ करते हुए पूछा,‘भाईसाब! ये आप अभी कुछ एग्ज़ाम क्लियर कराने की बात कर रहे थे न?’‘जी, जी। अब अपन किसी का भला कर सकते हैं तो उसमें बुराई क्या!’ उसने आत्ममुग्धता के सागर में हिलोरें मारते हुए उत्तर दिया। ‘हाँ, कोई बुराई नहीं! यह तो सेवा का काम है। किसी बेचारे का जीवन संवर जाए, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है!’ प्रश्नकर्ता ने विशुद्ध चमचे की तरह हुंआं हुंआं की। मैं समझ गई कि अब इन सहृदय, समाजसेवी बाबूजी का अगला प्रश्न क्या होगा। उन्होंने मेरी आशाओं की लाज रखते हुए ठीक वही पूछा। ‘वैसे भाई साहब, आप कौन-कौन सी कक्षाओं में पास करा देते हो? वो क्या है न, जाने कब जरूरत पड़ जाए!’ अपनी शर्मिंदगी पर समझदारी का ढक्कन लगाते हुए वे सहसा बोल उठे। 

उनके इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में बैठे सेलिब्रिटी बाबू तो जैसे चहक ही उठे। तुरंत पुलकित भाव से उनके मुखारविंद से निकला, ‘अजी, आप तो ये पूछिए कि कौन सी नहीं करा सकते! दसवीं/ बारहवीं सेंट्रल बोर्ड अपने हाथ में है। पर भैया,परीक्षा में बैठना जरूरी है, उसके बिना मुश्किल होगी।‘ उनके शब्द सुनकर मुझे लगा कि अब और क्या ही जानना शेष रह गया है! एक भ्रष्टाचारी के भी नियम सख्त हैं कि ‘परीक्षा में बैठना जरूरी है!’ मेरे कान बस अब ढहने की ही तैयारी में थे कि उन महात्मा ने पुनः उवाचा,‘ग्रेजुएशन, इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. सब निकलवा देता हूँ। अब आजकल किसी लड़के/लड़की से रिश्ते के लिए सब डिग्री तो पूछते ही हैं, तो कर देते हैं दुनिया का भला!’ 

'हाँ, सो तो है ही। अपने हाथों किसी का अच्छा हो जाए तो क्या नुकसान!’ प्रश्नकर्ता ने उनकी महानता को बधाई देते

हुए, भाव विह्वल होकर कहा। इन उच्च विचारों के लेनदेन में अब आगे की बर्थ के यात्रियों की रुचि भी जागृत होने लगी थी। उन्होंने भी उनसे कई जानकारियाँ एकत्रित कर तुरंत ही उनका फोन नंबर सुरक्षित कर लिया। एक ने पूछा कि ‘भई, इसमें कोई रिस्क तो नहीं है न? बाद में कोई दिक्कत तो नहीं होगी?’ ‘बिल्कुल नहीं होगी। जैसे सबका आता है, वैसे ही ऑनलाइन रिजल्ट आएगा। कोई अंतर नहीं होगा। रिस्क कहाँ से होगी? मंत्रियों के ही तो कॉलेज हैं। हाँ, बस परीक्षा में बैठना जरूरी है। ऊपर से नीचे तक की सेटिंग है। सबके रेट फ़िक्स हैं।’ खींसे निपोरते हुए उनका बेशर्मी से भरा उत्तर सामने आया। चूँकि विषय उठ ही चुका था तो राष्ट्रहित को समर्पित इस चर्चा में उन महानुभाव ने निस्संकोच दरें भी बता दीं। दसवीं, बारहवीं का पचास हजार, ग्रेजुएशन का एक लाख बीस हजार तथा इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. का एक लाख अस्सी हजार रेट चल रहा है। 

अपने बेटे को कनाडा भेजने की अतिरिक्त जानकारी देते हुए इन सज्जन ने यह बताकर भी उपकार किया कि ‘वे चार वर्षों से इस ‘बिज़नस’ में हैं और जीवन आनंद से कट रहा है।’ उन्होंने यह भी ऑफर किया कि यदि किसी को उनके साथ आना हो तो वे इच्छुक व्यक्ति के राज्य में उसको हेड बना सकते हैं। 'अरे वाह! इनकी शाखाएं भी हैं! यह जानते ही चार-पाँच लोगों ने धड़ाधड़ उनका नंबर नोट कर लिया। एक ने पूछा कि ‘फिर तो कोचिंग इंस्टिट्यूट वालों से आपकी अच्छी सेटिंग होगी?’ उत्तर देते हुए वे तनिक मुस्कुराए कि 'नहीं! जो छात्र पढ़ाई करके अपने-आप परीक्षा पास कर लेते हैं उन्हें हम नहीं कहते। हमारा ऑफर बाकियों के लिए होता है।’


उनकी इस बात को सुनकर सबने धन्य महसूस किया कि ‘भाईसाहब आप तो दिल के बड़े नेक बंदे हैं।’ मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इन समाजसेवियों के बीच क्या प्रतिक्रिया दूँ! मन बहुत ही क्षुब्ध हो उठा था। मुझे अच्छे से याद है कि पहले कभी जब फ़िल्म देखने जाया करती थी तो वहाँ ब्लैक में टिकट बेचने वाला भी धीरे से फुसफुसाता था लेकिन यहाँ तो सब पटाखे की तरह बज रहे थे। ऐसे बात हो रही थी जैसे कि इस सुनियोजित भ्रष्टाचार के लिए इन साहब की सरकारी नियुक्ति हुई हो। कहीं कोई अपराध बोध या भय का नामोनिशान तक न था। 

अकेली कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी। इसलिए इसके आगे की यात्रा उदासी में कटी। दुख था और नंबर लेने वालों की प्रसन्नता देखते हुए शर्मिंदगी भी। जिन संस्कारों पर हम गर्व करते आए हैं उन्हें अपनी आँखों के सामने खत्म होते देख रही थी। 

ये कहाँ आ गए हैं हम?

- प्रीति अज्ञात

राजधानी से प्रकाशित पत्रिका 'प्रखर गूँज साहित्यनामा' के नवंबर 2022 अंक में 'प्रीत के बोल'

इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -

https://www.readwhere.com/read/3612338/Prakhar-Goonj-Sahitynaama/prakhar-goonj-sahityanama#dual/40/1

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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

जब रावण की लगी लंका!

कल का दिन रावण के लिए कुछ ठीक नहीं गया। माना कि उसकी पुण्यतिथि की शुभकामनाओं वाला दिन था पर इसका ये मतलब थोड़े न कि हर कोई उसे लपेटे में ले ले। जिसे देखो, वही ज्ञान दिए जा रहा था। चलो, ज्ञान वाली बात तो फिर भी क़ाबिले बर्दाश्त है लेकिन उसके व्यक्तित्व से जो खिलवाड़ हुआ, उसका क्या? जो भी हुआ, पूरा घटनाक्रम उसकी मर्यादा के घोर विरुद्ध था। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि उक्त घटना के बाद, कल रात्रि से लंकेश न केवल आहत अनुभव कर रहे थे बल्कि उन्होंने इस कृत्य की कड़ी निंदा भी की। संवाददाताओं से चर्चा के दौरान नम आँखों से उन्होंने अपना दुख व्यक्त किया। साथ ही यह भी स्वीकार किया कि वे नाहक ही अपनी बुद्धि और शक्ति पर घमंड कर बैठे थे और भगवान जी से पंगा लेने की धृष्टता कर डाली थी। तब उन्हें क़तई इल्म नहीं था कि कलयुग में उनसे भी बड़े सूरमां जन्म लेंगे और बड़ी बेदर्दी से उन्हें भिगो-भिगोकर मारेंगे!
भिया! ये कोई मुहावरा नहीं है! सौ फ़ीसदी सच्ची बात है! बताइए तो, पहले कागजों पर लाखों खर्च कर माचोमैन वाला लुक देने के लिए खपच्चियों का फ्रेम बनवाया गया। उस पर बढ़िया रंगरोगन कर उन्हें खूब सजाया भी गया। चेहरे पर गुरूर का जो भभका पसरा था, उसकी छटा ही निराली थी लेकिन मुई बारिश ने पुतले के साथ हुए सौतेले व्यवहार और भ्रष्टाचार की सारी कलई खोल दी! रावण के दुख की कोई लक्ष्मण रेखा ही न थी। बोला,"कैसे अभियंता हो? इत्ते रुपैया में तो मैंने लंका खड़ी कर दी थी। तुम खर्चने के बाद भी मुझे ठीक से खड़ा नहीं कर पा रहे हो! असुर मित्रों ने बताया कि एक जगह तो मैं खड़े-खड़े ही लुढ़क लिया। यहाँ गल रहा हूँ, वहाँ ढह रहा हूँ। ये कौन सा युग है भाई! हमारी कोई इज़्ज़त फ़िज़्ज़त बची है कि नहीं? कहीं लोग ठेले पे लिए घूम रहे, कोई कौड़ी के भाव बेच रहा तो कोई लाखों में! हमारी डिग्निटी तो मेंटेन करो। ग़ज़ब स्यापा मचा रखा है! क्या यही दिन देखना बाकी रह गया था।" एक किशोर जो ध्यानपूर्वक सारी बातें सुन रहा था, सवा दो इंच की दूरी बनाते हुए उसने रावण जी के घुटने टच कर चरण स्पर्श वाला पोज़ दिया और बड़ी गंभीरता से बोला, “अब इज़्ज़त फ़िज़्ज़त आउटडेटेड हैं बाउजी। विकास के दौर में पूर्वजों की फ़ज़ीहत का जमाना है। किसी की जयंती हो या पुण्यतिथि, हम तो इसी भाव के साथ सेलीब्रेट करते हैं अब। आप तो वैसे भी सत्यापित बुरे प्राणी हो।“
“ओह! मेरे राम ने भी ऐसा न कहा था कभी।“ रावण रुँधे गले से बोला। अब दुख तो जायज था। उस पर इधर दस में से 8 सिरों के हेलमेट (मुकुट) गलकर, पीठ पर चिपक, समय पूर्व ही सामूहिक रूप से भगवान को प्यारे हो गए। देह पर लिपटी रंगीन पन्नियों ने भी अनायास ही विलुप्त होकर सारे तंत्रों का पर्दाफाश कर दिया। हृदय, फेफड़े, यकृत, आमाशय, पित्ताशय एक दूसरे को हैलो करने की नाकाम कोशिश कर एक दूसरे से यूँ टकराते रहे जैसे इंटरव्यू की पंक्ति में लगे बंदे एक-दूसरे से टकराते हैं। कुल मिलाकर परस्पर संशय भाव और अपने अस्तित्व के संघर्ष की पूरी कहानी उस खोखले ढांचे के हर हिज्जे से बयां हो रही थी। अपनी यह गत देखकर माननीय रावण जी स्वयं लज्जित मुद्रा में थे। पूरे समय वे यह कामना करते रहे कि कब धरती फटे और उन्हें अपनी पनाह में ले ले! आत्महत्या का कुत्सित विचार रह-रहकर उनके तंत्रिका तंत्र को उद्वेलित किए जा रहा था। लेकिन ऐसे कैसे! अभी तो अपमान का सीक्वल आना शेष था।
एक-एक कर बारिश उनके वस्त्रों को लीलती रही और फिर वह समय भी आया जिसकी कल्पना भी उनको सिहरा रही थी। अब उनकी देह पर कुछ भी शेष न था। वो अभिमान, वो चमक, वो अट्टहास सब एक बारिश के आगे मिमियाए पड़े थे। उसने तो जल निकास की उत्तम व्यवस्थाओं को देखा था, सो इस बुरेमानुस को क्या पता कि इत्ती बारिश में तो हियाँ बाढ़ में अपन मय रसोई बह लेते हैं।
खैर! रावण जी के नाम पर फिलहाल 300 से 2000 रुपये प्रति फुट (शहरानुसार) की दर से बना जो ढिशक्याऊं ढाँचा सामने दृश्यमान था, उसमें और ट्रेन से यात्रा करते समय रास्ते में कान के बाले से पहने हुए बिजली के जो बड़े-बड़े खंभे मिलते हैं न; में कोई फ़र्क़ न था। दूर कहीं गीत बज रहा था, "बाबूजी, जरा धीरे चलो/ बिजली खड़ी यहाँ बिजली खड़ी" अंकल जी ने दबे स्वर में कहा कि "जी बिजली नहीं, जे तो हम हैं। एक जमाने में हमारे नाम का जलवा था। पूरी लंका थरथर कांपती थी। युगों का जुलम देखो, हमारी ही लंका लग गई।"
उस पर सितम यह कि जिन मुख्य अतिथि महोदय को तीर-ए-नाभि के अभूतपूर्व प्रदर्शन हेतु पधारना था, उनकी दूर-दूर तक कोई ख़बर न थी। रावण अचंभे में था कि कैसा जमाना आ गया है! कहाँ तो सदियों पूर्व मुझ तक पहुँचने के लिए समुद्र पर पुल निर्मित कर लिया गया था और इन ससुरों से एक बारिश न संभल रही! क्या खाक तरक्की की है इन मानुसों ने! हमारे वनमानुष इनसे ज्यादा बुद्धिमान थे। उसने मन ही मन भन्नाया, 'तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं!" तत्पश्चात ईश्वर को पुनः याद करते हुए उनके कमेंट बॉक्स में नमन लिखा। इनबॉक्स में संदेसा भेजा कि अब और प्रतीक्षा न करवाओ, और इम्तिहान मत लो न पिलीज़! बस जल्दी से छाता देकर नेता जी को भिजवाओ। ऊ का है न कि बारिस में हमार नाभि तो न मिलिहे पर साहिब पधारें तो हमका तनिक मोक्ष ही मिल जाही!
कहीं खेत में खड़े बिजूके की तरह उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी की गई। उसे स्वयं, अपने निजी व्यक्तित्व को देख जोर की हँसी आ गई कि काश! मैं सचमुच इतना हँसमुख, छरहरा और क्यूटी पाई होता तो कोई मेरी लंका न लगाता! उसने वहाँ खड़े एक युवक से पूछा कि "भई,जब करोड़ों में राशि आबंटित की गई है तो मुझे सैकड़ों में क्यों निबटा दिया? देखो, कितना कुपोषित लग रहा हूँ! सब मेरा उपहास उड़ा रहे!" युवक ने अट्टहास करते हुए कहा कि "तुम्हारा तो दहन ही होना है। इतना पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत?" उसके इतना कहते ही सब हँसने लगे। हर दिशा से अट्टहास की गूँज वातावरण को और अश्लील बना रही थी। जिधर देखो, उसे स्वयं से भी अधिक भयावह चेहरे नज़र आ रहे थे। अब रावण के दुख का पारावार न था।
क्रोधाग्नि और अपमान की ज्वाला में धधकते हुए उसने बगल में खड़े पुलिस वाले की जेब से कट्टा निकाल अपने कान संख्या क्रमांक 1 में डाल ट्रिगर दबा दिया। कुल जमा 19 कनपुरिया मार्गों से गुजरती हुई गोली जब 20 वें कर्णपटल से बाहर निकली तो उसके होश फाख्ता थे। पसीने से लथपथ हाँफते हुए गोली बोली कि “भिया कौन गली में भेज दिए थे हमको? एक तीर से दो शिकार तक तो बात समझ आती है, तुमने 20 की बैंड बजवा दी! अब हमको एनर्जी ड्रिंक लगेगा।” तभी जमीन पर लहराते, गश खाते रावण जी बोल उठे, “क्षमा करें मैम! पर मैं एक ही हूँ। न जाने किस ग्रह पर मेरी आत्मा विचरण कर रही है कि अब तक शांति न मिल सकी! हे राम! अब मुझे इस ब्रह्मांड से मुक्ति दे दो!”
रावण के मुखारविंद से 'हे राम' की ध्वनि उच्चरित होते ही आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी और एक बार फिर रावण को अपार जनसमूह के साथ विदाई दी गई। सभी ने बुराई पर अच्छाई की जीत को महिमामण्डित कर मामले को रफ़ा दफ़ा किया।


बुधवार, 5 अक्टूबर 2022

‘विजयादशमी’ का संदेश वैश्विक है

विविध संस्कृतियों से सुसज्जित हमारा देश मूलतः उत्सवधर्मी देश है। जीवन में निरंतर उत्साह और उल्लास बना रहे, सब मिल-जुलकर सुख से रहें, ईर्ष्या-द्वेष का कोई भाव न हो और समाज में शांति-सद्भाव स्थापित रहे; त्योहार इसी संदेश के साथ हमारी परंपराओं में घुले-मिले हैं। ‘विजयादशमी’ भी ऐसा ही पर्व है। लेकिन सदियाँ गुजरती जा रहीं हैं पर मनमानी का रावण कहाँ मर पा रहा है! जिस मर्यादा की रक्षा हेतु पूरी रामायण रच दी गई, वह आज और भी अधिक टूट रही है। स्त्री के मान, आदर सत्कार की जो मर्यादा स्थापित की गई थी, वह पूर्णतः छिन्न-भिन्न हो चुकी है। लक्ष्मण रेखाएं रोज लांघी जा रहीं हैं। स्त्रियों के प्रति अपराध के आँकड़े अब शर्मिंदा करने लगे हैं। यह संघर्ष लंबा चला आ रहा है और ये लड़ाई भी अनंत है। क्या एक पुतले का दहन कर ही इतिश्री मान लें? भीतर के रावण का क्या? हम तो राम न बन सके लेकिन बहुरूपिया रावण हर जगह उपस्थित है।

‘विजयादशमी’ या ‘दशहरा’ मात्र धार्मिक उत्सव नहीं है और न ही यह राम और रावण के बीच हुए युद्ध के अंतिम दिवस की गाथा भर है! बल्कि इसमें सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सामाजिक संदेश निहित है। देखा जाए तो यह धर्म निरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, पंथ निरपेक्ष त्योहार है जिसे विश्व भर में मनाया जाना चाहिए। इसलिए ‘विजयादशमी’ को मैं एक वैश्विक त्योहार और मानवता के लिए संदेशवाहक की तरह देखती हूँ। संदेश यह कि जीवन में चाहे कितनी ही कठिन परिस्थितियों से क्यों न गुजरना पड़े, अंततः जीत सत्य की ही होती है। सत्य को हथियार बनाकर चलने वाला व्यक्ति चाहे घने जंगलों में हो या उसके मार्ग में अथाह समुद्र भी क्यों न आ जाए, वह समस्त दुर्गम राहों को अपनी बुद्धि, कौशल, दृढ़ता और सच्चाई की शक्ति के साथ पार कर सकता है। सत्य, निर्भीक, अटल होता है इसलिए उसे झुकाने का दुस्साहस करने वाला भी एक बिंदु पर आकर अपनी पराजय स्वीकार कर, उसके सामने नतमस्तक हो ही जाता है।
जब हम एक कहानी सुनते हैं कि कैसे महलों को त्याग जंगल में निकले दो लोग, एक पराक्रमी राजा को परास्त कर विजयी भाव धारण करते हैं तो यह वीर गाथा असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में प्रस्तुत होती है। लेकिन इससे यह सीख भी मिलती है कि यदि किसी के विचार उत्तम हों और उद्देश्य पवित्र तो प्रत्येक समस्या का समाधान निकलेगा। वहीं कोई भले ही बलवान हो लेकिन उद्देश्य अपवित्र है, तो वह अपनी पूरी सेना के साथ मिलकर भी उसे नहीं पा सकता! रावण प्रकांड विद्वान और महाबलशाली था, जिसने घोर तपस्या से अमरत्व भी प्राप्त कर लिया था लेकिन फिर भी वन-वन भटकते प्रभु श्रीराम के सामने उसकी एक न चली। कारण स्पष्ट है कि उसके भीतर अहंकार था, कुछ पाने की कुचेष्टा थी, बल के प्रयोग से सब कुछ हासिल कर लेने का दंभ ही उसकी मृत्यु का कारण बना।
लंकाधिपति, दशानन की महानता को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। हम यह जानते हैं कि वह इतना बुद्धिमान था कि दस सिर उसके ज्ञान का प्रतीक हैं। यह भी हमारे अधिकार में है कि हम कोई भी स्रोत को सच मानकर स्वीकार करें। लेकिन भले किसी भी ग्रंथ से इस गाथा को पढ़ें, प्रत्येक से सीख एक सी ही मिलेगी कि अच्छाई के प्रकाश के समक्ष, स्याह बुराई का विनाश सुनिश्चित है। दुराचार के ऊपर सदाचार ही जीतता है और घमंड को टूटते देर नहीं लगती! यह भी ज्ञान मिलता है कि मायामोह से दूर, सच्चा व्यक्ति भले ही अकेला प्रतीत हो लेकिन उसका साथ देने को पूरी सृष्टि आ खड़ी होती है। हम इस तथ्य को भी गांठ बाँध लेते हैं कि जब हमारे परिजन, शुभचिंतक समझाते हैं तो उसे ध्यान से सुनना, समझना चाहिए। रावण से यहीं गलती हुई। उसे तीनों लोकों ने समझाया, अपवित्र कार्य करने से रोका परंतु उसने किसी की एक न सुनी। परिणाम सबके सामने है जिसे हम और हमारे पूर्वज सदियों से सुनते, गुनते आ रहे हैं।
यह भी मान्यता है कि रावण को मोक्ष चाहिए था, इसलिए ऐसा हुआ। लेकिन क्या सचमुच मिला? प्रतिवर्ष रावण दहन होता है और उस दृश्य को आँखों में भर हम धन्य अनुभव करते हैं। बात यहीं पर समाप्त भी हो जाती है। लेकिन बुराई का अंत देखकर प्रसन्न होने वाले भी बुराई नहीं छोड़ते! मन का रावण कभी नहीं मरता! बल्कि अब तो भीषण हिंसा और अन्याय का ऐसा कलयुगी दौर चला है कि सतयुग के पापी भी शर्म से सिर झुका लें। घोर पाप की वीभत्स घटनाएं अब तक जारी हैं। कोई सुरक्षित अशोक वाटिका भी नहीं है और न ही प्रिय का संदेश लेकर आने वाले हनुमान। राम लौटकर नहीं आए हैं और आज के रावणों ने अन्याय और अत्याचार की समस्त सीमाएं लांघ ली हैं।
‘विजयादशमी’ के पावन दिवस पर यदि हम अपने लिए सुख की अपेक्षा रखते हैं तो कुछ भावों को अवश्य ही आत्मसात कर लेना चाहिए। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि अच्छाई और बुराई दोनों ही हमारे भीतर है, हम इसमें से क्या चुनना चाहेंगे? क्योंकि हमारा चुनाव ही हमारे जीवन की दिशा और दशा तय करता है। गुण-दोष हम सबके अंदर हैं। हमें हमारे दोषों को स्वीकार कर उन्हें सुधारने का गुण विकसित करना होगा।
जीवन में मानसिक द्वन्द्व आते ही दुख भी संग आता है। कोई हमारा साथी है या दुश्मन, उससे इतना अंतर नहीं पड़ता जितना कि भीतर का दुख सालने लगता है। उस दुख के साथ कैसे रहना है, यह हमको सीखना है। हमारे भीतर ऐसा कोई भी भाव न रहे जो हमें सत्य से दूर ले जाए, हम हिंसा और बल के प्रयोग से कुछ भी न जीतना चाहें, व्यर्थ के अहंकार का दहन कर हम सद्भाव, प्रेम और निश्छल हृदय से अपना जीवन जीने का संकल्प लें; वही हमारी ‘विजयादशमी’ है।
'हस्ताक्षर' अक्टूबर अंक संपादकीय
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चित्र: विकिपीडिया से


रविवार, 2 अक्टूबर 2022

बुलेटप्रूफ है गाँधीवाद, गाँधी भी नहीं मरे थे!

 कैसी विडंबना है कि जिस व्यक्ति की जयंती सारी दुनिया अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाती है, उनकी मृत्यु हिंसात्मक तरीक़े से हुई. यह गाँधी जी की ही हत्या नहीं थी यह उस विचार, उस सिद्धांत की हत्या का कुत्सित प्रयास भी था जिसे गाँधी ने अपने जीवन का मूल आधार बनाया था. उनके हत्यारों ने भले ही एक निर्जीव देह को देख उस समय उत्सव मना लिया हो लेकिन वे हमारे बापू को नहीं मार सके! यदि वो तीन गोली नहीं लगती, तो शायद गाँधी जी बाद में किसी रोग या अन्‍य प्राकृतिक कारण से स्‍वर्ग सिधारते. लेकिन जिस तरह उनकी हत्‍या हुई, उसने अहिंसावाद को और भी अधिक गहरे से रेखांकित कर दिया. कारण स्पष्ट है कि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, हमारे बापू का अस्तित्व केवल मोहनदास करमचंद गाँधी तक ही सीमित नहीं था. वे अपने विचारों के साथ तब भी सर्वप्रिय थे और आज भी जनमानस में बसे हैं. जैसे देह के निष्प्राण होने के पश्चात अजर-अमर, आत्मा जीवित रहती है वैसे ही गाँधी भी हम सबके हृदय में विद्यमान हैं. हर सच्चे भारतीय की रग में उनके सत्य का राग प्रवाहित होता है, अहिंसा की रागिनी धड़कती है. गाँधी सदैव प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि गाँधी मात्र एक व्यक्ति नहीं, सम्पूर्ण विचारधारा है.

आपने भी यह ख़बर सुनी होगी कि बापू के सम्मान में ब्रिटेन की सरकार ने एक सिक्का जारी करने की घोषणा की थी. निस्संदेह यह उनका सम्मान तो है ही लेकिन एक तथ्य और भी है. वो यह कि अंग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचारों, प्रताड़ना और अमानवीय कुकृत्यों से इतिहास रंगा पड़ा है. इस शर्मिंदगी से बचने और स्वयं पर लगे कलंक को धोने के लिए भी यह एक आवश्यक क़दम था. अमेरिका में भी एक अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद वहाँ की जनता ने आंदोलन प्रारंभ कर दिया था और तबसे नस्लवाद का वैश्विक विरोध तेजी पकड़ रहा है.  विचारणीय है कि जहाँ आज सारी दुनिया भूल सुधार के तमाम यत्न कर रही है ऐसे में हम कहाँ हैं और किन बातों पर लड़ रहे हैं?

दुर्भाग्य है कि विश्व भर में पूजनीय और सबको सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले गाँधी जी का विरोध करने वाले लोग, उनके अपने ही देश में पनप रहे हैं. घृणा के बीज बो रहे हैं. एक ओर हम राष्ट्रप्रेम की माला जपते हैं और दूसरी तरफ़ राष्ट्रपिता को अपशब्द कहने वालों के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती नहीं दिखती! न जाने, देश के प्रति यह किस तरह का प्रेम है जो शहीदों के अपमान को यूँ सहन कर लेता है!

आज भी ऐसे लोग मिल जाते हैं जो गाँधी जी का नाम सुनते ही मुँह बिचकाकर कहते हैं कि आजादी चरखा चलाने और लाठी से नहीं मिली! हाँ, भई मानते हैं कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान अतुलनीय एवं अविस्मरणीय है. देश को आजाद कराना किसी एक व्यक्ति के बस की बात हो भी नहीं सकती! महत्वपूर्ण है, लालच से दूर रह अपने उसूलों पर चलना. शांति से अपनी बात कहना, सबकी राह प्रशस्त करना. गाँधी विरोधी  यह भूल जाते हैं कि गाँधी का व्यक्तित्व और कहन का प्रकार बहुआयामी है और जैसा वह समझ रहे यह उससे इतर और विशाल भी है.

चरखा प्रतीक है स्वावलम्बन और स्वाभिमान का, स्वदेशी उत्पाद को बढ़ावा देने का. गाँधी जी अपना काम स्वयं करने में विश्वास रखते थे. स्वच्छता पसंद थे. यदि हम भारतीयों ने मात्र ये दो बातें भी आत्मसात कर ली होतीं तो आज उनके निधन के सात दशक बाद ‘आत्मनिर्भर भारत’ या ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का राग अलापने की कोई आवश्यकता नहीं होती. इन संस्कारों की नींव बहुत पहले ही पड़ गई थी. हमारे पूर्वजों ने तो सदैव ही हमें उच्चतम जीवन मूल्यों को हस्तांतरित किया है ये हमारी मूर्खता रही कि हम ही उन्हें समय पर न सहेज सके और न ही उन्हें अपनाने की कोई सार्थक चेष्टा ही की.

साबरमती आश्रम में प्रायः गाँधीवादी उम्रदराज़ लोगों से मिलना होता है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने बापू पर बहुत शोधकार्य किया है. वे आँखों में चमक लिए उनकी बात करते हैं तो मन को बहुत अच्छा लगता है. कुछ चेहरों पर निराशा की झलक उदास भी कर जाती है, जब वे बुझे ह्रदय के साथ ये कहते हैं कि “आज के दौर में शांति और अहिंसा की बात करना मूर्खता एवं अपना उपहास करवाने से अधिक कुछ नहीं!” मैं उनकी बातों को सुन बेहद शर्मिंदा महसूस करती हूँ कि जिस दौर की ये बात कर रहे हैं, हमने उसे क्या बना दिया!

सोचती हूँ कि जब हम अपराध के विरोध में खुलकर न बोले तो अपराधी ही तो हुए न! अन्याय को देख हमने अपनी ज़ुबान सिल ली, तो फिर हम न्यायप्रिय कैसे हुए? झूठ को जीतते देख ताली बजाने वाले, किस मुँह से ‘सत्यमेव जयते’ कह सकेंगे? मैं मुस्कुराते हुए उन लोगों से बस इतना ही कहती हूँ कि “अरे! आप चिंता न कीजिए, सब अच्छा होगा. बुरे दौर का भी अंत तय ही होता है. गाँधी जी की विचारधारा हताश भले ही दिख रही है पर जीवित है अभी और सदैव रहेगी”. न जाने मैं उन्हें कह रही होती हूँ या स्वयं को ही आश्वस्त करने का प्रयास करती हूँ लेकिन हर बार बापू की मूर्ति को प्रणाम करते हुए जब उनका शांत चेहरा और मृदु मुस्कान दिखती है तो उम्मीद फिर जवां होने लगती है. विचारों में दृढ़ता आती है और हृदय पुकार उठता है ‘सत्यमेव जयते’.

विश्वास गहराने लगता है जिस व्यक्ति की  निर्मम हत्या भी उसके द्वारा प्रज्ज्वलित अहिंसा की मशाल न बुझा सकी, वह हमारे बीच से भला कैसे जा सकता है कभी! सदियाँ बीतती जाएंगी लेकिन सभ्यता की नज़ीर बन गाँधी एवं उनका बुलेटप्रूफ गाँधीवाद सदा स्थापित रहेगा. उनके हत्यारों को इससे बड़ा तमाचा और क्या होगा!

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' 2021 अंक का संपादकीय 

इसे आप इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं -

https://hastaksher.com/no-one-can-kill-gandhi-and-gandhism-it-will-remain-alive-forever-editorial-by-preeti-agyaat/

#गांधी #महात्मागांधी #राष्ट्रपिता #बापू #गांधीजयंती



सोमवार, 19 सितंबर 2022

सूरज और चाँद

 रात भर पूरी मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभाता चाँद, जब सुबह उबासियाँ लेते हुए चाय की एक प्याली तलाश करता है तो पहाड़ी के पीछे से अंगड़ाइयों को तोड़ते हुए सूरज बाबू आ धमकते हैं. उसे देख जैसे चाँद की सारी थकान ही मिट जाती है, चेहरा तसल्ली से खिल उठता है! क्यों न हो, आख़िर सूरज की चमक से ही तो चाँद की रोशनी है!

उधर शाम को निढाल सूरज नदी में उतरते हुए, हौले से चाँद को देखता है. दोनों मुस्कुराते हैं. उसे विश्राम कक्ष में जाता देख, चाँद आकाश की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है और सारे सितारे भी दौड़कर उसकी गोदी में आ झूलने लगते हैं. सप्तऋषि साक्षी हैं इस बात के कि सूरज दूर होता ही नहीं कभी! वह तो उस समय भी नींद आँखों में भर, चाँद को ख़्वाब में देख अपनी पहली मुलाक़ात याद कर रहा होता है, जब यूँ ही एक दिन घर लौटते हुए वह चाँद से टकरा गया था. वह शैतान मन-ही-मन आज फिर सोचता है कि कल भी चाँद को इसी बात पर चिढ़ाएगा कि "देखो, पहले मैंने ही तुम्हें सुप्रभात बोला था".

मैं रोज़ ही शाम को छत पर टहलते हुए नीली विस्तृत चादर पर उनकी ये तमाम अठखेलियाँ देखती हूँ तो उन्हें एक ही रंग में डूबा पाती हूँ. उन दोनों के इस प्रेम को देखती हूँ, उनके सुर्ख़ गालों पर पड़े डिम्पल को देखती हूँ, एक-दूसरे की परवाह देखती हूँ. विदा न कहने की इच्छा होते हुए भी गले लग विदाई करता देखती हूँ. उस वक़्त एक पल को आसमान जैसे मोहब्बत के सारे रंग ओढ़ लेता है. लेकिन इसके साथ-साथ उदासी की स्याह बदली भी नज़र झुकाकर चलती है. चाँद अपने दुख बांटता नहीं और चाँदनी से बतियाने लगता है. वह उसे भी समझाता है कि हमें निराश नहीं होना है, सुबह सूरज बाबू फिर आएंगे. ❤️
- प्रीति अज्ञात
#सूरजऔरचाँद #प्रीतिअज्ञात #PreetiAgyaat

शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

जीना है बेकार जिसके घर में न लुगाई!

ईवेंट मैनेजमेंट और 'डी. जे. वाले बाबू मेरा गाना चला दो', के पदार्पण से पहले घर-परिवार की शादियों में सारी रौनक़ इसी सब से थी। कभी-कभार ऐसे कार्यक्रमों में लड़कों को आने की अनुमति ही नहीं मिलती थी, तो वे स्टूल वगैरह लगाकर रोशनदान से झाँकते या फिर दरवाजे की झिर्री में से जितना भी देख सकें, उतना ही देख धन्य हो जाते। भाभी की माँ-मनौवल भी करते कि दो मिनट को तो देखने दो न! 🥰

ये पारंपरिक गीत-नृत्य, ढोलक की थाप ही उत्सव का सही आनंद देते थे। मात्र शादी का ही नहीं बल्कि परिवार के एक होने का, एक साथ रहने का उत्सव। दस-दस दिन तक ब्याह की रस्में चलतीं। कोई पहले जा रहा हो, तो उसकी टिकट रद्द करवा दी जाती तो कभी स्टेशन से वे खुद ही भावुक हो लौट आते। 😭
ये परम्पराएं थीं तो साथ था। साथ था तो दिल भी जुड़े थे। खूब लड़ाई के बाद भी मन एक हो जाता था। परिवारों की सुंदरता इन्हीं सब से थी। अब रस्में छूटीं तो जैसे बहुत कुछ छूट गया लगता है। पंडित जी भी समयानुसार एडजस्ट करने लगे हैं।
पहले की शादियों में ये सब दृश्य बहुत आम हुआ करते थे। अब ऐसा कम होता है। इसीलिए आज इस वीडियो को देख दिल खुश हो गया कि चलो, कहीं तो यह सब जीवित है। यूँ आजकल भी लेडीज़ संगीत के नाम पर तामझाम तो पूरा है पर उसमें बनावटीपन अधिक है। भला ये भी कोई बात हुई कि कोरियोग्राफर सिखाए कि कब कौन सा स्टेप लेना है। अजी, जब मंच जैसी परफॉरमेंस होने लगेंगी तो घर की बात ही कैसे आएगी।! मजा तो तब है जब कोई एक नाचे और दूसरा बीच में घुसकर कोई मनचाहा स्टेप डाल दे। कोई गाए और भूल जाए, फिर अम्मां सुधार करें कि नहीं इसके बाद ये वाली लाइन आती है। 😍
आजकल तो पार्टी प्लॉट का पता आता है या होटल का भी हो सकता है। नियत समय पर पहुँचो, खाओ, मिलो, लिफ़ाफ़ा दो और अगली ही गाड़ी से निकल लो! 😎
- प्रीति अज्ञात 5 सितंबर 2022
बात इस वीडियो के संदर्भ में कही गई है -


#जीना_है_बेकार_जिसके_घर_में_न_लुगाई #लोकगीत #लेडीज़संगीत #संस्कृति
कुँवारों, इस गीत को दिल पर न ले लेना 😁

हमारे अस्तित्व और संस्कृति की सुगंध हिन्दी में ही है

 हिन्दी दिवस आ रहा है। अब एक बार फिर ‘हिन्दी मेरी माँ है’, ‘हिन्दी बचाओ’ जैसे नारों से आभासी मंचों की दीवारें रंगी जाएंगीं। परिणाम? वही ढ़ाक के तीन पात! हिन्दी के विकास के लिए नारों अथवा बड़े-बड़े सम्मेलनों में भाषणबाज़ी का कोई औचित्य ही नहीं, यदि इस दिशा में जमीनी स्तर पर कुछ नहीं किया जा रहा हो! यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि हमारी भाषा की यह दुर्गति हिन्दी भाषियों के द्वारा ही अधिक की गई है। भले ही ऐसा करने की उनकी मंशा नहीं थी और इसके पीछे उनकी व्यक्तिगत कुंठा या सोच ही रही हो।

हम उस शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े हैं जहाँ यह मान्यता है कि विकास के लक्ष्य अंग्रेजी मार्ग से होकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि कई छात्रों के लिए हिन्दी भाषा की प्रावीण्यता और इस माध्यम में पढ़ना ही बाधा माना गया। स्पष्ट है कि इन मेधावियों में बुद्धि की कोई कमी नहीं थी लेकिन अंग्रेजी की अल्पज्ञता ने इनके पाँव पीछे खींच दिए।

जरा सोचिए! जिस भाषा के बीच रहकर हम जन्मे हैं, जिसमें रहकर उठते-बैठते हैं, जिसकी हवाओं में साँस लेते हैं हमारे लिए वही तो सहज होगी न! हम उसी में बेहतर सोचेंगे, समझेंगे और उत्तर दे सकेंगे। लेकिन हुआ यह कि हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले छात्रों को कॉन्वेंट के छात्रों से कमतर आँका जाने लगा। उनकी भाषा के सामने हिन्दी वाले बगलें झाँकने लगे। यद्यपि ऐसा होना नहीं चाहिए था पर हुआ। जिससे हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के भीतर कुंठा के भाव अंकुरित होने लगे। इधर समाज ने भी इस पर मरहम रखने के स्थान पर इसे बार-बार खुरचा ही।

पढ़ाई के माध्यम का बुद्धिमत्ता से कोई संबंध ही नहीं, शर्त तो ज्ञान को सही प्रकार से अर्जित करने की है। लेकिन हिन्दी भाषी इस तथ्य को समझे बिना सकुचाते चले गए और स्थिति गंभीर होती गई। उसके बाद किसी का उपहास उड़ाने के लिए ‘उसकी तो हिन्दी हो गई’ जैसे वाक्यांश प्रयोग में आने लगे। हँसते हुए ही सही पर हम सभी ने कभी-न-कभी इसे बोला ही है। घर आए अतिथि को जैसे ही पता चलता कि ये बच्चा हिन्दी माध्यम में पढ़ रहा है, तो प्रतिक्रिया सकारात्मक नहीं होती थी। व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए उसके मुख से ‘ओह’ कुछ यूँ निकलता मानो कह रहे हों कि ‘तुमसे न हो पाएगा!’

‘उसको शुद्ध हिन्दी में समझा देना’ भी इसी सिलसिले की कड़ी है।  भाषा के स्तर पर इसका अर्थ गहराई से समझें तो वैसे तो विशुद्ध देसीपन से भरा है पर इसमें भी हिन्दी को लेकर प्रशंसा के कोई भाव निहित नहीं हैं। बल्कि यह इसलिए कहा जाता है कि हिन्दी तो कोई निरक्षर भी समझ लेगा। अंग्रेजी सबके बस की बात कहाँ!

वर्तमान समय में कई समाचार-पत्रों और चैनलों की भाषा इतनी दयनीय हो चुकी है कि पढ़कर हँसी आती है और दुख भी होता है। पढ़ने बैठो तो समाचार-पत्रों की सामग्री हो या मुख्य शीर्षक, सभी में अंग्रेजी शब्दों की भरमार है। प्रायः सामान्य स्तर पर देखती हूँ कि समाचार वाचक बाढ़ की उम्मीद, आशा या संभावना जताता मिलता है और फसल अच्छी होने की आशंका! उसे पता ही नहीं कि कहाँ संभावना व्यक्त करनी है और कहाँ आशंका! जबकि एक का अर्थ सकारात्मक है और दूसरा नकारात्मक भाव के लिए प्रयुक्त किया जाता है।   हिन्दी सिनेमा ने भी भाषा की लंका लगाई है। आपने देखा ही है पर शायद इस तरह से ध्यान न दिया हो। याद कीजिए ‘पड़ोसन’ का ‘इक चतुर नार’ गीत या कि ‘चुपके-चुपके’ फ़िल्म। निस्संदेह कला के तौर पर ये अद्भुत हैं और सर्वप्रिय भी। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इन्होंने कहीं न कहीं जनमानस के हृदय में यह भाव भी रोपित कर दिया कि जो आंचलिक या शुद्ध हिन्दी बोलता  है, वह हास्य का पात्र है और सामान्य हिन्दी बोलने वाला शिक्षित! यू-ट्यूब के कुछ हास्य कलाकार और भी आगे निकले। उन्होंने इसमें गालियाँ जोड़कर हास्य की नई शैली रच दी। शेष कार्य हिंगलिश की व्युत्पत्ति ने कर डाला। मंचों की फूहड़ता की तो अभी चर्चा ही नहीं की है।

दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में भी शुद्ध हिन्दी को हास्य के रूप में परोसते देखा। इनमें मंच सुसज्जित करते कुछ लोग क्लिष्ट हिन्दी बोलकर यूँ प्रदर्शित करते हैं मानो क्या ही ग़ज़ब कर डाला हो! क्या हमें हमारी भाषा को सहजता से  नहीं स्वीकारना  चाहिए?

अब इस तरह के वातावरण और परिस्थितियों के बीच हिन्दी का कितना विकास संभव है, यह विचारणीय है! यद्यपि यह तय है कि इस देश से हिन्दी कहीं नहीं जा रही लेकिन इसके मूल स्वरूप का जिस तरह क्षरण हो रहा, वह अवश्य चिंतित करता है। हिन्दी, उपहास की भाषा नहीं है। यह हमारी अपनी भाषा है और इसके संरक्षण और उचित प्रयोग का दायित्व प्रत्येक भारतवासी का है।

जहाँ तक अंग्रेजी जानने का प्रश्न है तो सीखिए। इसके लिए अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा आग्रह हिन्दी को लेकर है, किसी अन्य भाषा से कोई दुराव नहीं है। गुलदस्ते में कई फूल हो सकते हैं।

भाषा, कोई भी बुरी नहीं होती।  लेकिन हम जिस देश के वासी हैं, पहले वहाँ की भाषा तो सीखें! हमें इस भ्रम से भी बाहर निकलना होगा कि बुद्धिमान कहलाने के लिए अंग्रेजी माध्यम से पढ़ना और अंग्रेजी जानना आवश्यक है। यदि ऐसा होता तो जापान, चीन ने इतनी प्रगति नहीं की होती। कैसी विडंबना है कि हमारे देश में मातृभाषा में बोलने वाले अनपढ़ और अंग्रेजी में बोलने वाले संभ्रांत की श्रेणी में रख दिए जाते हैं। किसी भी अन्य देश में ऐसा नहीं होता। विश्व की जितनी महाशक्तियाँ हैं, वे अपनी ही भाषा को प्रयोग में लाती हैं। उसे अड़चन की तरह नहीं देखतीं।

यदि हम सचमुच हिन्दी प्रेमी हैं तो अब भाषाई संकोच से उबरने का समय आ गया है। हमें अपने आसपास के वातावरण के प्रति सजग रहकर हर संभव जानकारी एकत्रित करनी है। दुनिया और उससे पहले स्वयं को यह बताना है कि हिन्दी, हमारी कमजोरी नहीं ताकत है। योग्यता, कौशल और नए आत्मविश्वास के साथ इसमें अपार संभावनाएं खोजी जा सकती हैं। इसके लिए पूरी रचनात्मकता एवं सकारात्मक भाव के साथ प्रयत्न हमें ही करने होंगे। हमारी कल्पना की उड़ान, हमारी उन्नति, हमारी अपनी भाषा से ही संभव है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए किसी आंदोलन की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने-अपने घरों में, बाहर और प्रत्येक मंच पर बेझिझक हिन्दी बोलिए, पढ़ाइए, सिखाइए।

बीते माह एक सुखद समाचार सुनने में आया है कि मध्यप्रदेश में अब चिकित्सा शिक्षा, हिन्दी माध्यम से भी हो सकेगी। पुस्तकें भी इसी भाषा में अनूदित की जाएंगीं। हर क्षेत्र में यही होना चाहिए। जिसे अंग्रेजी में पढ़ना है, पढ़े लेकिन हमारी अपनी भाषा में पढ़ने का विकल्प सदैव होना चाहिए।

हिन्दी का सौन्दर्य अप्रतिम है। हम सदा से इसे अपनी माँ, मातृभाषा कहते अवश्य आए हैं लेकिन फिर दिल में भाव भी वही रखना होगा। यदि हम सचमुच हिन्दी को अपनी माँ समझें तो इसका अनादर कभी हो ही नहीं सकता! इसके सम्मान में हम स्वतः ही अपशब्दों से दूर रहेंगे एवं हमारी भाषा में हल्कापन कभी नहीं आएगा!

दरअसल हमारी हिन्दी तो हमसे दूर कभी हुई ही नहीं, हमने ही इसे दूर कर रखा है।

- प्रीति अज्ञात 1 सितंबर 2022 

'हस्ताक्षर' सितंबर २०२२ अंक संपादकीय 
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है -

https://hastaksher.com/we-can-learn-as-many-languages-as-we-wish-but-the-fragrance-of-our-roots-our-existence-and-culture-is-in-hindi-only-editorial-by-preeti-agyaat/