आयशा की आत्महत्या ने फिर से वही सारे प्रश्न खड़े कर दिए हैं जिनसे हम बार-बार बचकर निकलना चाहते हैं. लेकिन क्या इस तरह की घटनाओं और आत्महत्या का ज़िम्मेदार वो समाज नहीं? जो बचपन से ही एक लड़की के दिमाग़ में यह कूट-कूटकर भर देता है कि "वह फूलों की डोली में बैठकर जिस घर में प्रवेश करेगी, उसकी अर्थी भी वहीं से उठेगी!" क्यों उठे उसकी अर्थी वहीं से? यदि वह उस घर में ख़ुश नहीं तो क्या वो उस घर को छोड़कर नया जीवन नहीं जी सकती? कब तक वो अभिशप्त जीवन जीती रहे?
उसे ये भी समझाया जाता है कि "मारे या पीटे पर पति तो परमेश्वर होता है. थोड़ा तो सहन कर ही लेना चाहिए". हाँ, बिलकुल कर लेगी लेकिन तब ही, जब पति भी उसके हाथ का थप्पड़ खाकर बर्दाश्त करना सीख जाए और चुप रहे. पढ़ते ही कैसे धक् से चुभ गई न ये बात?
यही होता है कि जब तक स्त्री सहन कर रही है, सब अच्छा है. वो मर भी गई, तब भी हम उन सारे कारणों को ढूँढने में लग जाते हैं जो हमें दोषमुक्त कर दे. लेकिन कब तक? आयशा तो एक नाम भर है जो हमारे समाज की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन आँकड़े जो सच्चाई बयान कर रहे हैं, उनसे आख़िर कैसे मुँह फेरा जा सकता है?
भारत में होने वाले तलाक़ की दर दुनिया में सबसे कम है -
प्रतिवर्ष यूनाइटेड नेशंस, ग्लोबल डिवोर्स रेट दर्ज़ करता है. इसके अनुसार पूरी दुनिया में भारत में होने वाले तलाक़ की दर सबसे कम है. यहाँ 1000 शादियों में से केवल 13 में तलाक़ होता है. यह आँकड़ा डेढ़ प्रतिशत से भी कम है. जबकि स्पेन, फ़्रांस, यूनाइटेड स्टेट में सर्वाधिक मामले दर्ज किये गए हैं.
लेकिन इसका मतलब ये क़तई नहीं कि हमारे यहाँ सभी खुशहाल वैवाहिक जीवन जी रहे हैं. दरअसल 'हैप्पी मैरिज लाइफ' एक मिथ्या है. हम लोग तोड़ने से बेहतर, बर्दाश्त करने को मानते हैं. समझौता मंज़ूर है हमें, पर अलग होना नहीं!
जो स्त्रियाँ वैवाहिक जीवन से तंग आकर आत्महत्या करती हैं, उन्हें पता है कि इस देश में तलाक़ लेकर जीना आसान नहीं. अकेली स्त्री को उपभोग की वस्तु की तरह देखा जाता है. वो अपने पिता और पति के अलावा और किसी पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाती. गृहिणियों को आर्थिक असुरक्षा का भय भी सालता है. ऐसे में उन्हें यही सही लगता है कि जैसे-तैसे इसी चारदीवारी में जीवन काट दें. वे तलाक़ के स्थान पर, सहजता से घुटन भरे जीवन में रहने के विकल्प को चुन लेती हैं. वे पितृसत्तात्मक समाज के इस सूत्र को अपना ध्येय वाक्य बना बैठती हैं कि 'सुहागन मरना सौभाग्य की निशानी है'.
दुनिया में सुसाइड करने वाली हर तीसरी महिला भारतीय है-
विश्व की महिला जनसंख्या में भारतीय महिलाओं की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत है, जबकि महिलाओं की आत्महत्या के मामलों में यह 36 प्रतिशत तक बढ़ जाती है. यानी घुट-घुटकर मरने वाली स्त्री, एक दिन मौत को ही चुन लेती है. दरअसल भारतीय समाज की मानसिकता ऐसी है कि विवाह के बाद बेटी पराया धन मान ली जाती है. मायके में उसका स्वागत तो सदैव होता है लेकिन यदि वो किसी परेशानी के चलते पति का घर छोड़कर आना चाहे तो उसके अपने ही, उसके लिए दरवाज़ा बंद करते नहीं हिचकते. उसे समझौते के लिए समझाया जाता है कि थोडा बर्दाश्त कर, सब ठीक हो जाएगा. समाज के सामने अपनी नाक का हवाला दिया जाता है कि तू मायके आकर बैठ गई तो लोग सवाल करेंगे. लड़की इशारे समझ जाती है और फिर कभी अपनी पीड़ा नहीं बाँटती.
हर परिवार ऐसी ही संस्कारी लड़की और बहू की अपेक्षा रखता है. "लड़का चाहे कुछ करे, उसका चल जाएगा. पर तू तो लड़की है!"
"मैं तो लड़की हूँ!" यही बात उस लड़की के दिल में भी गहरे बैठ जाती है और फिर वो अपनी महानता, त्याग और बलिदान की पुस्तक भरने के लिए खुद ही अपना सिर, कलम करवाने को तैयार रहती है. क्योंकि वो तो लड़की है! उसे तो महान बनना ही होगा! दुनिया के सामने महान बनते बनते ये लड़की अपनी ही नज़रों में रोज़ गिरती है. सबको खुश रखने वाली ये लड़की, अकेले में रोज़ रोती है.
हमारे तथाकथित संस्कार हमें हर दर्द को सहने की शक्ति सिखाते ही आये हैं. ऐसे में स्त्रियों के पास उसी नर्क में रहने के अलावा और कोई चारा नहीं होता! और फिर एक दिन जब पानी सिर से ऊपर निकलने लगता है तो वे हारकर इस दुनिया को अलविदा कह देती हैं.
सबसे अधिक सुसाइड के मामले 15 से 29 आयु वर्ग वाली युवतियों के -
नई पीढ़ी में आत्महत्या की बढ़ती दर बेहद चौंका देने वाली है. प्रेम, बेमेल विवाह, उनके प्रति होने वाले अपराध के चलते युवतियां भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर एवं असहाय महसूस करती हैं. कई बार नौकरी में होने वाली परेशानियों से भी वे तंग आ जाती हैं. भविष्य के लिए देखे गए सुन्दर सपनों की तस्वीर, जब उनके वर्तमान से मैच खाती नहीं दिखती तो वे हताश हो जाती हैं. पापा की परी के भीतर जैसे ही सामाजिक चेतना जागृत होती है, उसके सामने कई भयावह चुनौतियां आ खड़ी होती हैं. उसमें लड़ने की हिम्मत और जज़्बा तो होता है पर धैर्य नहीं. कई बार इनके लिए विद्रोह का तरीका मर जाना ही होता है. वे इतने गहरे अवसाद में चले जाते हैं कि फिर लौट ही नहीं पाते. दोष सामाजिक और पारिवारिक वातावरण का ही है क्योंकि हमने अपने बच्चों को जीतना सिखाया है, सफ़लता पाने की सारी क़िताबें रटा रखी हैं लेकिन असफ़लता से जूझने का पाठ कभी नहीं पढ़ाया. उनके सिर पर हाथ फेरकर कभी नहीं कहा कि हारना भी उतनी ही स्वाभाविक प्रक्रिया है जितनी कि जीतना.
बढ़ती आत्महत्या के कई कारण हैं-
* बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हासिल कर लेने के बाद भी स्त्रियों में सशक्तिकरण का अभाव है. वे अपनी हर ख़ुशी को किसी एक व्यक्ति की उपस्थिति या अनुपस्थिति से जोड़कर देखती हैं. अपना सारा जीवन उसी के इर्दगिर्द समर्पित कर देती हैं और जब एक दिन उससे अलग होने की सोच भी सामने आती है तो वे इस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पातीं. उन्हें पुरुष के बिना रहना आया ही नहीं.
* पितृसत्तात्मक समाज में घरेलू स्तर पर वे, प्रारंभ से ही निचले दर्जे पर खड़ी नज़र आती हैं. अपने जीवन से जुड़े हर निर्णय के लिए बचपन में पिता, भाई, फिर पति और अंत में बेटे पर निर्भर. एक परजीवी सा जीवन उन्हें तथाकथित संस्कारों का संरक्षण करना ही सिखाता आ रहा है. अत्याचार सहना पर उफ़ न करना, बचपन में भाई और बड़े होकर पति, बेटे को बचाना, उनकी उम्र के लिए व्रत करना. उन्हें लगता है कि पिता. पति या भाई के अलावा दुनिया उन्हें नोच खाएगी.
* पहले महिलाएं अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार को अपना भाग्य मानकर जीवन काट देती थीं. "भला है बुरा है, जैसा भी है/ मेरा पति मेरा देवता है" को ब्रह्मवाक्य बनाकर जी लेती थीं. अब वे शिक्षित हैं और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी. जब हल नहीं निकलता तो वे कुंठा से भर जाती हैं. कुछ रास्ता नहीं सूझता तो आत्महत्या कर जीवन समाप्त कर लेती हैं.
कैसा दुर्भाग्य है कि हमने अपनी दुनिया को इतना बदसूरत और असुरक्षित बना डाला है कि स्त्रियाँ यहाँ अकेले जीना ही नहीं चाहतीं. हमें अपनी बेटियों, अपने आसपास की स्त्रियों को सबसे पहला पाठ यही देना है कि वे हर हाल में किसी से कमतर नहीं हैं. हमें उन्हें मुश्किलों से लड़ना सिखाना है और धोखे से संभलना भी. उनके दर्द को बांटना, उनकी परेशानियों को सुनना भी सीखना है. उन्हें यह विश्वास भी दिलाना है कि हम उनके साथ खड़े हैं.
और लड़कियों, तुम आत्मनिर्भर, निडर और सशक्त बनो. हर बात के लिए किसी का मुँह न ताको. जब तक तुम हो, ये दुनिया सुंदर है. तुम्हारी हार, इस दुनिया की हार है.
- प्रीति अज्ञात
#आयशा #साबरमतीसुसाइड #दहेज़ #आत्महत्या #अहमदाबाद #भारतीयमहिला #riverfront #Ahmedabad #Blogpost #PreetiAgyaat #iChowk
सशक्त लेख
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक लिखा आपने प्रीति जी🙏🙏
जवाब देंहटाएं