रविवार, 26 फ़रवरी 2023

कंझावला की घटना अंतिम नहीं है

इतनी देर रात घर से बाहर क्या करने गई थी?

होटल में कमरा क्यों बुक कराया था?
लड़की चरित्रहीन थी।
उसने शराब पी रखी थी।

ये वे वाक्य हैं जो खुलकर एक लड़की की दर्दनाक मृत्यु के बाद उछाले जा रहे हैं। इनके पीछे  का अर्थ समझ रहे हैं न! यदि वह चरित्रहीन थी, उसने शराब पी रखी थी और देर रात होटल में ठहरी तो काहे का बवाल! नाम कोई भी हो, ऐसी लड़कियाँ तो मारी ही जाती हैं! यही सोच है जो न्याय व्यवस्था की लचरता को बढ़ाती है। वे लड़कियों को सलाह देने से नहीं चूकते क्योंकि लड़के तो कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं पर लड़कियाँ अपनी रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं लें।

लेकिन यदि मृतक पुरुष होता तो क्या ये प्रश्न पूछे जाते?

नहीं न! लड़कों से कौन ऐसे प्रश्न करता है! यह सब करना तो उनका अधिकार है। लडकों का कार्यक्रम तो किसी चैनल या पोर्टल ने नहीं बताया। वे तो एन्जॉय करेंगे ही न! उनको चरित्र प्रमाण पत्र देने का कष्ट कोई क्यों उठाए? उन्हें तो खुली छूट है कि सारी रात सड़कों पर घूमें। लड़कियों को कुचलें और अनजान बन कई किलोमीटर तक गाड़ी से घिसटाते हुए मार डालें। उनकी रक्षा करने वाले नेताजी बगल में बैठे ही हैं। उनके घर की लड़की तो थी नहीं कि संवेदनाओं का एक क़तरा भी बाहर आए!

तो क्या अब लड़कियों की इस तरह की मृत्यु को न्यायसंगत मान लिया जाए?

क्या उसकी मित्र दोषी है

इस विषय पर न्यायाधीश बनकर बोलना अभी सही नहीं है क्योंकि उस पर क्या बीती , ये हमें नहीं पता। लेकिन प्रथम दृष्ट्या वह इस बात की दोषी प्रतीत होती है कि उसने इस घटना की सूचना नहीं दी। यदि आपातकालीन नंबर पर ही फोन लगा दिया होता तो अंजलि को बचाया जा सकता था। दुर्घटना के समय किसी का भी घबराना, डरना स्वाभाविक है लेकिन यदि सामने आपका साथी गाड़ी के पहिए में फंसा दिखाई दे और आप उसे, उसी हाल में छोड़ घर चले आएं तो यह दुखद एवं अमानवीय कृत्य है। यद्यपि जिस तरह का संवेदनहीन समाज इन दिनों फलफूल रहा है, वहाँ यह व्यवहार उतना आश्चर्यजनक भी नहीं लगता।

अचरज़ की बात

आश्चर्यजनक कुछ है तो यह वक्तव्य कि गाड़ी में सवार लोगों को पता ही नहीं चला कि उसमें एक जीता-जागता इंसान फंस गया है। एक लड़की ने कई किलोमीटर तक घिसट-घिसट लहूलुहान हो दम तोड़ दिया, उसके कपड़े फट गए, फेफड़े बाहर आ गए  और अंदर बैठे राजकुमारों को पता तक न चला! इसे सपोर्ट करने को एक सिद्धांत सामने आया कि वे नशे में थे। अच्छा! फिर गाड़ी कैसे सुरक्षित चलती रही?

गाड़ी नहीं रुकती क्योंकि किसी को कुछ सुनाई ही नहीं दिया। क़माल है! दिन के समय भरी सड़क पर चलते वाहन में एक पत्ता भी फंस जाए तो न केवल ड्राइवर बल्कि अंदर बैठे सभी सवारों को उसकी खड़खड़ाहट सुनाई देती है। लेकिन यहाँ देर रात, सुनसान सड़क पर भी उन्हें कुछ सुनाई नहीं दिया होगा? जबकि सन्नाटे में तो पानी की गिरती बूंद भी शोर लगती है। स्पष्ट है, अब उनके नेताजी फंसे हैं तो कान में रुई डालकर ही बैठना होगा।

अपने आकाओं को बचाने के लिए कई कुतर्क भी गढ़े जाएंगे। लेकिन पुलिस, सड़क सुरक्षा और सीसीटीवी कैमरा पर उठे प्रश्नों को तब भी दबा ही दिया जाएगा।

समाज के रटे रटाए पाठ और अपराधियों के बढ़ते हौसले

कंझावला की घटना कोई अकेली घटना नहीं है। लड़कियों के साथ विभिन्न तरह के अपराध की दसियों भयावह घटनाएं प्रतिदिन हर शहर में होती हैं। तेजाब डालने की घटना के बाद, ‘तेजाब मत बेचो’ की मांग उठती है। इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है लेकिन यह बोतल उतनी ही सरलता से उपलब्ध हो जाती है जैसे ड्राई स्टेट में अल्कोहल। क्या इससे अपराध रुक जाएंगे? फिर तो मारपीट, हत्याओं को रोकने के लिए चाकू मत बेचो, डंडे, बैट मत बेचो।

लड़ना मानसिकता से है। नागरिकों को शिक्षित, सभ्य मनुष्य बनाना है। यह भी हो कि अपराध करते समय उनके भीतर सजा का इतना भय व्याप्त रहे कि वे गलत कार्य का दुस्साहस ही न करें। पर सारा कष्ट यही करने में तो है।

लड़कियों को सिखाया जाएगा कि ऐसे दोस्तों से बचकर रहो। देर रात मत निकलो। देह को पूरी तरह ढके हुए वस्त्र पहनकर चलो। लेकिन ऐसी मानसिकता में सुधार करने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होगी जो लड़कों के हौसले बुलंद करती है। न ही अपराधियों को इस तरह से दंडित किया जाएगा कि लगे कोई न्याय हुआ है। हाँ, हर घटना के बाद ज्ञान पूरा दिया जाता है, निंदा भरपूर होती है, कड़े फ़ैसले लेने का आह्वान होता है लेकिन परिणाम के नाम पर जीरो बटा सन्नाटा ही सामने आता है।

चैनलों का महाभारत

चैनलों का किस्सा और भी अनूठा है। न्यूज चैनल अब विशुद्ध मनोरंजन परोसने वाले बन चुके हैं। इनका काम सूचना देना नहीं बल्कि सुविधानुसार एक तय सोच दर्शकों को थमाना है। किस घटना को दबाना और किसे बढ़ा-चढ़ाकर बताना है, ये इनके मालिक तय करते हैं। इसका समाज पर क्या और कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा इससे किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यहाँ चर्चा में, चुन-चुनकर वही लोग बैठाए जाते हैं जिनसे आग  भड़कती रहे, भले ही हल कोई न निकले। विषय कोई भी हो, कैची टाइटल और बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ हुई ‘निष्पक्ष’ चर्चा में सभी दलों के प्रवक्ताओं को बुलाकर बिठा लिया जाता है। फिर मासूम एंकर कहती हैं कि यह संवेदनशील विषय है कृपया राजनीति न करें! अरे! राजनीति करने को ही तो ऐसे नेताओं को आमंत्रित किया गया है, जिनका विषय से कोई लेना-देना ही नहीं! ये केवल यही बोल सकते हैं कि जहाँ हमारी सरकार है वहाँ तो अपराध के आँकड़े कम हैं। उन्हें इस बात से कोई अंतर ही नहीं पड़ता कि किसी बेटी की जान गई, एक माँ ने अपने जिगर के टुकड़े को खो दिया, एक घर को चलाने वाला मार डाला गया।

मृतक के बदले, धनराशि और नौकरी का लालच देकर मुँह बंद किए जाने की प्रथा यूँ भी समाज में ‘सराहनीय’ मानी जाती रही है। उस भीषण, अकल्पनीय, असह्य पीड़ा से किसी को क्या करना और उसके बारे में क्या ही सोचना जो एक लड़की ने अपने शरीर को टुकड़ा-टुकड़ा समाप्त होते देख सही होगी! सड़क पर बिखरा खून भी धुल जाएगा और तत्काल हिन्दू-मुस्लिम का कार्ड खेलती एक नई कहानी मार्केट में लॉन्च कर दी जाएगी जिससे जनता शीघ्र ही यह घटना भूल जाए। आँख बंद कर सोचिए कि बीते माह की घटनाओं में कितनों को न्याय की उम्मीद शेष है! नाम भी याद न होंगे।

मासूम जनता क्या करे!

जनता भूल ही जाएगी! कोई एक किस्सा हो तो याद रखे न! जब दिन -रात लूट, हत्या, बलात्कार एवं अन्य अपराधों के सैकड़ों मामले सामने आते रहें तो कौन, कितना याद रखेगा भई! जब अपनी बारी आएगी, तब बोलेंगे, चीखेंगे और दीवारों पर सिर मार इस व्यवस्था को कोसेंगे जिससे न्याय की उम्मीद करना इस सदी का सबसे बड़ा मजाक होगा!

कहने को ‘न्याय व्यवस्था’ है लेकिन इसमें चहेतों अर्थात अपनी टोली को न्याय देने की ही व्यवस्था है। आम जनता पिसी है, पिसती रहेगी। मरी है, मरती रहेगी। अच्छे दिनों की यही परिभाषा है कि सच न बोलिए, जो हो रहा है उसे रामराज्य समझ हाथ जोड़ लीजिए। चुप रहिए और नववर्ष की शुरुआत में मनहूस बातें बोल किसी का दिमाग और वर्ष खराब न कीजिए। उन्हें पार्टी करनी है, करने दें। डिस्टर्ब न कीजिए। जब नशा उतरेगा तो होश भी आएगा, लेकिन प्रश्न यह है कि नशा उतरेगा कैसे? जब उसे चढ़ाने वाली भी ये जनता ही है।

चलते-चलते: अभी तो हम अभिव्यक्ति के रंगों में डूबे हुए हैं। किसी ने केसरिया थाम गर्व किया है तो किसी ने हरा! लेकिन विश्वास रखिए इनके मध्य का श्वेत वर्ण गणतंत्र दिवस के दिन अपनी सम्पूर्ण आभा लिए अवश्य दिखाई देगा। जी भरकर देख नमन कीजिएगा उसे। क्योंकि नेताओं को तो बस अपने रंग ही दिखाई देते हैं। लेकिन हमें तो केवल हमारे तिरंगे को ही अपना मानना है। यही देश को जोड़ता है। यह मृत्यु और अपराध की गंभीरता को रंगों से नहीं तौलता। हमें इसके तीनों रंगों को दिल में बसा, उन सबको करारा जवाब देना है जो जोड़ने की बजाय तोड़ने को अपनी विजय मान अकड़ते घूमते हैं।

जय भारत!

- प्रीति अज्ञात

'हस्ताक्षर' जनवरी 2023 में प्रकाशित संपादकीय -

https://hastaksher.com/1kanjhaavala-kee-ghatana-antim-nahin-hai5182-2editorial-by-preeti-agyaat/

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