स्कूल की घंटी से ज़्यादा मधुर ध्वनि किसी भी वाद्य-यंत्र से नहीं निकल सकती, इसके संगीत से रग-रग कैसे झूमने लगती है ! मन-मस्तिष्क में प्रसन्नता की लहरें हिलोरें मारती हैं ! वातावरण संगीतमय हो उठता है, मयूर बन नाचने को जी करता है ! वो भी क्या दिन थे ! आख़िरी पीरियड के वो आख़िरी 5-10 मिनट निकालने कितने दुष्कर हो जाया करते थे ! कोहनियाँ मार के या आँखों से ही अपनी बेचैनी सभी विद्यार्थी एक-दूसरे को बताया करते . कई बार यूँ भी लगता था, कि बजाने वाले भैया भूल तो नहीं गये ! नये जमाने वालों को बता दें, उस समय लोहे का एक मोटा सा तवा टाइप हुआ करता था, उस पर लकड़ी का मोटा, सोटा मारने से जो ध्वनि उत्पन्न होती थी, उसे ही घंटी कहा जाता था. शैतान बच्चे भी उस सोटे को छूते तक नहीं थे. :)
तो फिर, क्या पता बजी हो और हमने ही नहीं सुन पाई ! फिर खुद ही अपनी इस सोच को नकार दिया करते थे. नहीं-नहीं ये तो हो ही नहीं सकता, जो आवाज़ प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय है, वो सुनाई न दे ! ना रे ! फिर कोई बच्चा पानी पीने के बहाने चेक करने का सोचता. लेकिन तभी टीचर की गुस्से से लाल आँखें उसके इरादों पर तुरंत ही पानी फेर दिया करतीं ! " नहीं, अभी नहीं..छुट्टी होने ही वाली है "
कुछ हमारे टाइप के स्मार्ट बच्चे तुरंत ही पूछ लेते, " कितनी देर है, मेडम " :P
उनका जवाब सुनकर दिल को बड़ी तसल्ली मिलती थी, गोया वो न कहतीं तो जैसे उस दिन छुट्टी होती ही नहीं . उनके उत्तर के हिसाब से धीरे-धीरे चुपके से अपने सामान की पैकिंग शुरू कर देते, जिससे टन-टन सुनते ही एक सेकेंड भी वेस्ट ना हो और हम सब टनाटन सीढ़ियाँ उतर जाएँ ! :P :D
उफ्फ. काश वो घंटी की आवाज़ें फिर से सुनाई दें, फिर से पैकिंग का मौका मिले, फिर से वही खोयी चमक लौट आए और भाग जाएँ कहीं.........!
जीवन के चार दशक पूरे करने के बाद, एक ब्रेक तो बनता है ! :D
MORAL : तंग आ चुके हैं, कशमेकशे ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें, जहाँ को कहीं बेदिली से हम...... :P :D
( इन २ पंक्तियों के लिए शुक्रिया साहिर लुधियानवी जी, मो. रफ़ी साहब, सचिन दा और गुरुदत्त जी )
प्रीति 'अज्ञात'
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