'एकालाप'
जानती हूँ, अब यहाँ आने का कोई फायदा नहीं ..फिर भी आती हूँ रोज, उसी तयशुदा समय पर ! ये भी पता है कि अब मेरी हर दस्तक़ का जवाब नहीं मिलेगा या शायद, सुनकर भी अनसुनी कर दीं जाएँगी, कुछ रुंधीं-सिसकती आवाज़ें ! फिर भी खटखटाती हूँ..रोज वही दरवाज़ा ! कई बार ये भी अहसास हुआ है, कि है कोई वहाँ, शायद मुझसे भी ज़्यादा ज़रूरी ! फिर हँस पड़ती हूँ, अपनी ही इसी सोच पर कि मैं ज़रूरी थी ही कब. बिन बुलाए हर समय उपस्थित, मैंनें तुम्हें मुझे 'मिस' करने का मौका ही नहीं दिया न ! हा-हा-हा, तुम्हें भी पता ही है, कि इसका कोई और ठौर नहीं...नाराज़ होगी या खुश, आएगी तो इधर ही ! इसी निश्चिंतता ने तुम्हें, मुझसे दूर कर दिया है...हाँ, तुमने इसे व्यस्तता का सुखद नाम देने की कोशिश बहुत बार की है. यह एक लंबी चर्चा का विषय हो सकता है, पर मैं इस सबसे बचना चाहती हूँ. तुम्हें खो देने का वही पुराना डर आज भी रह-रहकर जेहन में उभरने लगा है. यहाँ आकर मेरी सारी समझदारी मेरा साथ छोड़ देती है, याद रह जाता है, तो बस तुम्हारा नाम, हमारा नाम, मैं और तुम, सिर्फ़ हम.....!
कहा है तुमने पहले भी, समझाया भी तो है..कई दफे, कि न आया करूँ मैं यहाँ..तुम्हें पता है, कि तुम्हें न पाकर मैं उदास हो जाती हूँ, टूट-सी जाती हूँ और कितनी ही बार अवसादग्रस्त भी हो चुकी हूँ. फिर भी मैं आती हूँ, तो बस यही सोचकर, कि क्या पता तुम आओ, कभी मेरी उम्मीद लिए और मैं न मिली, तो तुम भी तो उदास हो जाओगे न फिर ! नहीं चाहती, कि तुम्हारे इस साँवले-सुंदर से चेहरे पर चिंता की एक भी लकीर हो. हाँ, ये बात अलग है..कि मैं उन परेशानियों को कभी दूर न कर सकी..कभी करना चाहा भी, तो हमारे बीच और दूरियाँ बनती चली गईं....ये हम दोनों की ही बदक़िस्मती रही है शायद !
खैर......फिक़्र न करना कोई, मैं आऊँगी, आती रहूंगी....तो बस तुम्हारे लिए ! बाकी दुनिया और उससे जुड़े सारे अहसास अब सुन्न हो चुके हैं और मैं अब उन्हें जगाना भी नहीं चाहती ! जब तक तुम हो....मैं भी हूँ. पास रहो या यूँ दूर-दूर.....अब बस 'होना' ही काफ़ी है.
सौदामिनी
'तुम्हारी' भी लिख दूं क्या ?
*एक और अंश, सौदामिनी के कई अंशों में से... .
प्रीति 'अज्ञात'
बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, सुशील जी !
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