'बंद' विकास की रामायण का धुँधला स्वप्न संजोये हुए विनाश के महाभारत की सत्यापित तस्वीर है. यह प्रजा का, प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा मचाया गया वह क्रूर आतंक है जिसकी डोर राजा बनने की लालसा पाले हर नेता के हाथ में होती है. बंद किसी एक राजनीतिक दल से सम्बंधित उपक्रम नहीं बल्कि यह सभी दलों का वह साझा प्रयास है जो सत्ता या विपक्ष में रहते हुए परिस्थितिनुसार अपनी-अपनी पाली बदल लेता है.
यह वह सोची-समझी घटना भी है जो निकम्मे, नाकारा लोगों की भीड़ जुटाकर विभिन्न पार्टियों द्वारा स्वहित में समय-समय पर आयोजित की जाती है स्पष्ट है कि इसका जनता की सुख-सुविधा से कोई लेना-देना नहीं होता। बंद का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र्रीय सम्पत्ति को तहस-नहस कर उसी कायराना मुँह से अपने अधिकारों की बात करना है जिससे यह 'हिंसक विरोध' को आंदोलन के रूप में प्रक्षेपित करने का निकृष्टतम प्रयास करता है!
बंद चाहे सत्ता का हो या विपक्ष का.....यह विकास का मार्ग कभी प्रशस्त नहीं कर सकता. तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा को विरोध नहीं गुंडागर्दी कहा जाता है. कैसी विडम्बना है कि जिनके अधिकारों की माँग के लिए इसका आह्वान किया जाता है वही वर्ग इसकी सबसे बुरी मार झेलता है. इस आह्वान को पुष्ट बनाने के लिए बसें जलाई जाती हैं, ट्रेन रोक दी जाती हैं, वाहनों की तोड़फोड़ होती है जाहिर है इस उग्र भीड़ का तो कोई भविष्य है नहीं; पर इनके ऐसे व्यवहार से इंटरव्यू/ परीक्षा के लिए जाते युवा का एक वर्ष ख़राब हो जाता है, अस्पताल जाते मरीज़ों की बीच राह ही साँसें टूट जाती हैं, निर्दोष बच्चे भयभीत हो माँ के आँचल में छुप जाते हैं. हर रोज अपनी रोटी कमाने को घर से निकले मजदूरों को उस दिन भूखे पेट ही सोना पड़ता है. ठेला चलाने वाले का सामान सड़कों पर बिखेर दिया जाता है और इस तरह विकास की आभासी चादर ओढ़े अपने अधिकारों की माँग करते ये दंगाई विनाश की घिनौनी तस्वीर हर जगह चस्पा कर आगे बढ़ लेते हैं.
विशेषज्ञों द्वारा चर्चाओं में 'बंद' के सफ़ल/ असफ़ल होने की विवेचना प्रसारित होती हैं. प्रायः इस सफ़लता/असफ़लता को आक्रामकता के तराजू में तौला जाता है और इस तरह घनी आबादी वाला यह देश एक और छुट्टी मनाकर स्वयं को धन्य महसूस करता है. इस अवकाश ने देश के विकास में कितना सहयोग दिया उसका आंकलन कर सके; यह साहस कभी किसी में देखने को नहीं मिला.
क्या कभी किसी ने सोचा है कि -
राष्ट्रीय त्योहारों पर बंद का आह्वान क्यों नहीं होता?
धार्मिक उत्सवों (दीवाली, ईद, रक्षाबंधन, संक्रांति इत्यादि) के समय भी किसी बंद की घोषणा नहीं होती! पूरा कमाने के बाद ही लोग साथ देते हैं भले ही फिर दिहाड़ी पर जीने वालों के यहाँ चूल्हा जले, न जले!
चुनाव प्रचार के समय तो बंद भूल ही जाइये, उल्टा दिन-रात का भी पता नहीं चलता!
आंदोलन के नाम पर हड़ताल/ बंद और इस बंद की आड़ में हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी; लगता है हिंदुस्तान की यही नियति रह गई है. अधिकारों की माँग लेकर, 'भले लोग' धरने पर बैठते हैं या दुकानों के शटर गिराते हैं. सारे कामकाज ठप्प करते हैं और इसका अंत पुलिसिया बल-प्रहार, फिर बचाव के लिए जनता का उन पर पथराव, जिसके बदले में गोलीबारी, आँसू गैस और फिर सरकारी संपत्ति को अग्नि के हवाले कर देना! हर बार यही क्रम दोहराया जाता है ! परिणाम ?
विचार कीजिये, 'बंद' का लाभ आख़िर किसे मिलता है? कब मिलता है? और क्या मिलता है??
- प्रीति 'अज्ञात'
यह वह सोची-समझी घटना भी है जो निकम्मे, नाकारा लोगों की भीड़ जुटाकर विभिन्न पार्टियों द्वारा स्वहित में समय-समय पर आयोजित की जाती है स्पष्ट है कि इसका जनता की सुख-सुविधा से कोई लेना-देना नहीं होता। बंद का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र्रीय सम्पत्ति को तहस-नहस कर उसी कायराना मुँह से अपने अधिकारों की बात करना है जिससे यह 'हिंसक विरोध' को आंदोलन के रूप में प्रक्षेपित करने का निकृष्टतम प्रयास करता है!
बंद चाहे सत्ता का हो या विपक्ष का.....यह विकास का मार्ग कभी प्रशस्त नहीं कर सकता. तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा को विरोध नहीं गुंडागर्दी कहा जाता है. कैसी विडम्बना है कि जिनके अधिकारों की माँग के लिए इसका आह्वान किया जाता है वही वर्ग इसकी सबसे बुरी मार झेलता है. इस आह्वान को पुष्ट बनाने के लिए बसें जलाई जाती हैं, ट्रेन रोक दी जाती हैं, वाहनों की तोड़फोड़ होती है जाहिर है इस उग्र भीड़ का तो कोई भविष्य है नहीं; पर इनके ऐसे व्यवहार से इंटरव्यू/ परीक्षा के लिए जाते युवा का एक वर्ष ख़राब हो जाता है, अस्पताल जाते मरीज़ों की बीच राह ही साँसें टूट जाती हैं, निर्दोष बच्चे भयभीत हो माँ के आँचल में छुप जाते हैं. हर रोज अपनी रोटी कमाने को घर से निकले मजदूरों को उस दिन भूखे पेट ही सोना पड़ता है. ठेला चलाने वाले का सामान सड़कों पर बिखेर दिया जाता है और इस तरह विकास की आभासी चादर ओढ़े अपने अधिकारों की माँग करते ये दंगाई विनाश की घिनौनी तस्वीर हर जगह चस्पा कर आगे बढ़ लेते हैं.
विशेषज्ञों द्वारा चर्चाओं में 'बंद' के सफ़ल/ असफ़ल होने की विवेचना प्रसारित होती हैं. प्रायः इस सफ़लता/असफ़लता को आक्रामकता के तराजू में तौला जाता है और इस तरह घनी आबादी वाला यह देश एक और छुट्टी मनाकर स्वयं को धन्य महसूस करता है. इस अवकाश ने देश के विकास में कितना सहयोग दिया उसका आंकलन कर सके; यह साहस कभी किसी में देखने को नहीं मिला.
क्या कभी किसी ने सोचा है कि -
राष्ट्रीय त्योहारों पर बंद का आह्वान क्यों नहीं होता?
धार्मिक उत्सवों (दीवाली, ईद, रक्षाबंधन, संक्रांति इत्यादि) के समय भी किसी बंद की घोषणा नहीं होती! पूरा कमाने के बाद ही लोग साथ देते हैं भले ही फिर दिहाड़ी पर जीने वालों के यहाँ चूल्हा जले, न जले!
चुनाव प्रचार के समय तो बंद भूल ही जाइये, उल्टा दिन-रात का भी पता नहीं चलता!
आंदोलन के नाम पर हड़ताल/ बंद और इस बंद की आड़ में हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी; लगता है हिंदुस्तान की यही नियति रह गई है. अधिकारों की माँग लेकर, 'भले लोग' धरने पर बैठते हैं या दुकानों के शटर गिराते हैं. सारे कामकाज ठप्प करते हैं और इसका अंत पुलिसिया बल-प्रहार, फिर बचाव के लिए जनता का उन पर पथराव, जिसके बदले में गोलीबारी, आँसू गैस और फिर सरकारी संपत्ति को अग्नि के हवाले कर देना! हर बार यही क्रम दोहराया जाता है ! परिणाम ?
विचार कीजिये, 'बंद' का लाभ आख़िर किसे मिलता है? कब मिलता है? और क्या मिलता है??
- प्रीति 'अज्ञात'
चुनाव की पूर्व बेला में राजनीति के हथियारों को माँजना ही पड़ता है।
जवाब देंहटाएंजी, धन्यवाद
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