रविवार, 3 मई 2020

ऋषि कपूर और इरफ़ान की विदाई ने ये सबक़ फिर याद दिलाया है!

 

बेहद उदास हूँ तेरे चले जाने से
हो सके तो लौट आ किसी बहाने से
कई बार हम किसी से इतना और इस हद तक प्यार करते हैं कि उसका जाना हमें बुरी तरह तोड़कर भीतर तक उदास कर देता है. जरुरी नहीं कि उस शख्स से कभी हमारी मुलाक़ात भी हुई हो! आदमी को जान लेने के लिए मिलना जरुरी भी कहाँ होता है!
ये विडम्बना ही तो है कि कहीं हम सारी ज़िन्दगी, किसी इंसान के साथ यूँ ही गुज़ार देते हैं और प्रेम की सूखी जड़ें ठूँठ बन आँगन में इस एक उम्मीद से अंत तक टिकी रह जाती हैं कि शायद कभी ये भूरापन, इन्द्रधनुषी रंग ओढ़ खिल उठेगा  तो कहीं बिन मिले ही ये कुछ यूँ फलने-फूलने लगता है जैसे कोई हरी नाजुक बेल अनायास ही अपने महबूब तने से लिपट जाती है. कहा न! प्रेम भला कहाँ किसी मुलाक़ात का मोहताज़ हुआ करता है. वो तो बस हो जाता है!

कई बार हम किसी को बस उसके काम से ही जानते हैं उसकी फ़िल्में देखते हैं तो कभी टीवी पर उसे देख उसके व्यक्तित्व से रूबरू होते हैं. लेकिन उसका अभिनय इतना जीवंत लगता है कि हम भूल जाते हैं कि यह फिल्म है और दिल कह उठता है कि 'हाँ, सही तो है.', 'ठीक ही तो कह रहा है', 'अरे, इसने मेरे मन को कैसे पढ़ लिया?' ये जुड़ाव, ये अपनापन हरेक से नहीं होता क्योंकि इसके लिए एक पारदर्शी ह्रदय की दरक़ार होती है जो हरेक के पास नहीं होता!  पर इन दो दिनों में हमने जिन्हें खोया, वे ऐसे ही दो चहेते कलाकार थे. इरफ़ान की गहरी, गोल आँखें उनके सच्चे दिल का आईना बन यूँ दमकती थीं जैसे अब और कुछ कहने की जरुरत ही न रही हो. वे  ऐसे ही शख़्स थे कि जिसने भी उनके काम को देखा वो उन्हें बिन चाहे, सराहे न रह सका. हमारे प्रिय ऋषि कपूर जिन्हें बॉलीवुड प्यार से चिंटू जी कह पुकारता रहा, उनकी भी अपनी एक विलक्षण अदा थी जो 'बॉबी' से शुरू हो 'मुल्क' तक हम सबने देखी और उन्हें भरपूर प्यार भी दिया.
लेकिन फिर भी कुछ लोगों को अलविदा कह देने को जी नहीं करता!
कुछ लोगों का जाना लम्बे समय तक उदास कर जाता है.
कुछ लोग चले जाने के बाद भी ज़हन से नहीं जाते और उन्हें दुनिया मरते दम तक याद करती है. उनकी कहानियाँ लम्बे समय तक किस्से बन साथ चलती हैं. इन कुछ लोगों को ही 'अच्छे लोग' कहते हैं. 'अच्छे लोग' अब extinct species हैं और इनमें से एक का भी कम हो जाना दुखद होता है. इरफ़ान और चिंटू जी के चले जाने का दुःख इसीलिए ही और भी बढ़ गया है.

पिछले हफ्ते ही इरफान की माँ का निधन हुआ था और लॉकडाउन के कारण वे उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे. ज़ाहिर है उन्हें इस बात का भी बेहद दुःख था ही. ऐसे में उनका एक डायलॉग याद आता है और यूँ लगता है जैसे वो अपनी माँ से मिलने ही चले गए-
"नींद नहीं आती. पिछली बार जब गाँव गया था, उस वक़्त माँ की गोद में नींद आई थी बस. बहुत गहरी नींद आई थी.
नींद तो माँ की गोद में आती है डाक्टर साहब. मन ऊब गया है बस."
कहकर उदास होने वाला शख्स, एक दिन सच में ही माँ की गोद में सिर रख सदा के लिए सो गया. संवेदनशीलता के सारे पाठ इरफ़ान ने अपनी माँ से ही तो सीखे थे. यही गुण मानवता की पहली निशानी हैं.
ऋषि कपूर को याद करती हूँ तो उनका वो गीत याद आता है, 'अंदर से कोई बाहर न जा सके/ बाहर से कोई अंदर न आ सके/ सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो!' और देखिये लॉकडाउन में जब सारी दुनिया कमरों में बंद उदास बैठी थी तो यही गीत गुनगुनाता चॉकलेटी बॉय हम सबके बीच से निकल अपने अंतिम सफ़र को चल पड़ा.

बीते कुछ दिनों से ख़बरों का बाज़ार गर्म था और इस एक अफ़वाह ने भी अपनी पैठ बना ली थी कि कोई उल्का पिंड या तारा धरती से टकराएगा और सब ख़त्म हो जायेगा. देखिये हम सबको बचाने हमारे  दो सितारे ही धरती से उठ आसमान तक पहुँच गए. वो झूठी ख़बर वाली टक्कर तो नहीं हुई पर फिर भी कितना कुछ है जो इन दिनों में दरक गया है, चकनाचूर हुआ है.  मुझे वो सभी चेहरे याद आ गए जो 'कैंसर' ने मुझसे छीन लिए हैं.
कैंसर से मैंने अपनी नानी को तब खोया जब मुझे इस बीमारी का अर्थ भी नहीं पता था. जब नानी की गोद मुझ से छिन गई तो मैंने इस शब्द से डरना सीख लिया था. फिर एक दिन दादी को भी इसी ने लील लिया. उसके बाद परिवार के कुछ और दूर-पास के सदस्यों को इसकी गिरफ़्त में ख़त्म होते देख यह भी जान चुकी थी कि यह बीमारी किसी की भी सग़ी नहीं और न ही शरीर का कोई एक निश्चित हिस्सा ही इसका शिकार होता है. अब डर के साथ घबराहट भी जुड़ चुकी थी. मैं बड़ी होती जा रही थी और इधर विज्ञान भी तरक़्क़ी पर था. जानकारी बढ़ने लगी कि इस बीमारी की भी स्टेज होती है और आपकी पायदान, आपकी जीवन-मृत्यु का हिसाब लिखती है. लेकिन ये पायदान की बेईमानी देखिये कि आपको बहुत कम ही पता लगने देती है कि आप किस स्टेज पर खड़े हो!

पहली स्टेज का इलाज़ एक चेतावनी की तरह आता है और आपके जीवन की पूरी तस्वीर बदलकर लौट जाता है. दूसरी में आप कष्टों की थोड़ी और लम्बी पारी खेल जाते हैं लेकिन फिर दर्द के साथ मुस्कुराते हुए जीना भी सीख लेते हैं. बाद की अवस्थाएं न केवल इस बीमारी से बल्कि आपके आत्मविश्वास और सोच से भी तगड़ा जूझती हैं और फिर कोई एक यकायक हार जाता है. इस 'कैंसर' को मैंने भी बहुत करीब से समझ लिया है और जिस दिन अपनी सबसे क़रीबी दोस्त को इससे खोया था उस दिन यह सबक़ भी सदा के लिए याद रख लिया था कि आप जिस इंसान की क़द्र करते हो न! उससे उसी समय कह जरुर दो! मैंने अपनी मित्र को कभी कह ही न पाया था कि "यार, तेरे बिना जीना बहुत मुश्किल होगा!" कभी पूछा ही नहीं था उससे कि "तू अचानक छोड़कर चली तो न जायेगी?" ये गलती हम सब करते हैं. हम मान ही लेते हैं कि हमारे अपने सदा हमारे साथ रहेंगे! हम ये भी विश्वास रखते हैं कि इस दुनिया को अच्छों की जरुरत ज्यादा है और हमारे जीवन के सारे अच्छे लोग तब तक इस दुनिया में रहेंगे जब तक ये संवर नहीं जायेगी! ठीक इसी जगह ज़िंदगी हमें धोखा दे जाती है और फिर एक मलाल उम्र भर घूरता हुआ साथ चलता है.

जरुरी नहीं कि हर कोई कैंसर का ही शिकार हो; ये मृत्यु शय ही ऐसी है कि न जाने कब, किस रूप में अचानक आकर आपको या आपके किसी अपने को पीछे से दबोच ले. घुटी हुई साँसों में शब्द नहीं निकलते और आपके ह्रदय के सारे अहसास बयां हो पाने से पहले ही अचानक दफ़न हो जाते हैं.
ऋषि कपूर और इरफ़ान खान का जाना न केवल 'कैंसर' के प्रति मेरे गुस्से को और बढ़ा रहा है बल्कि जब सोशल मीडिया पर इन दोनों के लिए उमड़ते प्यार को देख रही हूँ तो दिल और भी भर आता है. लग रहा है कि काश! आप दोनों बस एक पल के लिए ही सही पर जरा पलटकर तो देखो कि लोग आपको किस हद तक प्यार करते हैं. मैं अपने चहेते इरफ़ान की आँखों में फिर वो हँसी देखना चाहती हूँ, मैं चाहती हूँ कि आज भी वो अपनी मुस्कराहट से शब्दों की नई किताब खोल दे. आज उसकी उन दो गहरी, खामोश झीलों से एक मोती टप से गिरे और ये ख़बर हम तक पहुंचे कि हमारा स्नेह उसने स्वीकार कर लिया है. मैं देखना चाहती हूँ कि कैसे चिंटू जी साइकिल चलाते हुए  'भंवरे ने खिलाया फूल, फूल तो ले गया राजकुंवर' गाते आयेंगे या फिर balcony में आकर उसी पुरानी अदा से सबका स्नेह देख अपनी उसी सदाबहार मुस्कान के साथ हाथ हिलाते हुए अचानक भावविह्वल हो उठेंगे.
मुझे दोनों के परिवार याद आ रहे हैं. इन दोनों की प्रेम कहानियाँ भी याद आ रही हैं जिनकी पटकथा विद्रोह की स्याही से लिखी गई थी. चाहे ऋषि-नीतू हों या इरफ़ान-सुतापा, इनके प्रेम के किस्से भी आने वाली कई पीढ़ियाँ सुनेंगीं. दुर्भाग्य यही कि इनके हिस्से का दुःख हम कभी कम न कर पाएंगे.

पर मृत्यु यह सीख हमेशा देती है कि किसी के जाने के बाद सब कुछ कह देने का जो जज़्बा दिल में उमड़ता है न, व्यक्ति के जीते जी भी इस स्नेह की ख़बर उस तक पहुंचनी ही चाहिए.
जरुरी नहीं कि आप भी आज उतने ही शोक़ में डूबे हों जितने कि इरफ़ान या ऋषि जी के प्रशंसक...लेकिन जरुरी यह है कि यदि आपके दिल में किसी के लिए जरा से भी अच्छे अहसास हों, खयालात हों तो उसे उसी वक़्त बयां जरुर कर दें क्योंकि इस बात पर केवल आपका ही नहीं उस इंसान का भी पूरा हक़ है कि वो जाने 'आप उसके बारे में क्या सोचते हैं.' प्रेम है तो इज़हार जरुरी है! किसी के चले जाने का इंतज़ार क्यूँ करना!
ये लॉकडाउन न जाने क्यों अब घबराहट पैदा करने लगा है.
- प्रीति 'अज्ञात'

प्रखर गूँज साहित्यनामा के मई अंक में प्रकाशित 
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