ऐसा बहुत ही कम बार होता है कि किसी को हौसला देते समय अपना ही विश्वास डगमगा रहा हो. किसी को ख़ुश रहने की दुआ देते समय अपनी ही आवाज भर्रा रही हो. दिल करता है कि उसे गले लगाकर कहें, घबराओ मत, ये समय भी बीत जाएगा, सब अच्छा होगा पर भीतर ही भीतर कहीं कुछ टूट रहा होता है. हँसो भी तो लगता है जैसे पाप किया हो कोई! इस महामारी ने हमें एक ऐसे ही मंज़र पर लाकर खड़ा कर दिया है. आँखें मूँदकर सोचती हूँ कि कोरोना वायरस के हमारी दुनिया में प्रवेश करने से पहले कैसा था हमारा जीवन? तो पुराना ज्यादा कुछ याद नहीं आता!
लगता है टीवी, रेडियो की आवाज़ें और अखबार में छपी ख़बरें दिमाग में ठूँस-ठूँसकर भर दी गई हों जैसे. जो दिखता है उसमें घबराए हुए लोग हैं. कोई डर रहा है कि न जाने अब कभी अपने परिवार से मिल पायेगा या नहीं! वे दोस्त जिनके साथ चाय पर अभी कई अधूरी चर्चाएँ बाक़ी थीं, कभी पूरी हो पाएंगी या नहीं! वे रिश्ते जो मखमली गुलाब की महक तले सूनी आँखों से बस एक मुलाक़ात की राह तकते हैं उन आँखों की खोई चमक लौटेगी भी या नहीं!
क्या होगा उन कामगारों का जिन्हें भूख के एवज में हजारों मील की दूरियाँ चलना बेहतर लगा था, उनके छाले क्या आने वाला समय या कोई तंत्र भर सकेगा कभी? उन बच्चों का क्या जो भीषण झुलसती गर्मी में सर पर बोझा रखे नंगे पाँव निरंतर चलते ही रहे, उनके दिल का बोझ कैसे हट पायेगा? यह किस्सा उनके बाल मन पर किसी गुदने की तरह नहीं रह जाएगा? कितने प्रश्न उठे होंगे उनके मन में उस वक़्त पैदल चलते हुए! कौन देगा उन्हें उत्तर उनके इस दुर्भाग्य का? किस पर सारा दोष मढ़ा जाएगा?
भूख से मरते समय, मालगाड़ी से कुचलते समय की चीखें कैसे भुलाई जा सकेंगीं? कौन देगा उनके दर्द की इबारतों का हिसाब? आपदा की यह घड़ी, गहन शोक की भी है. जिसमें शहर के पुराने बाज़ार की और भी पुरानी इमारतों के बीच ज़र्ज़र शरीर को लेकर अब भी भटक रहे हैं कुछ लोग, इनमें हर माल दस रुपये में बेचने वाले 'व्यापारी' हैं, कोई सेठों के जूते चमकाता है, कोई प्लास्टिक की टूटी-फूटी बोतलें बीन लेता है, तो कहीं फटे हुए कपड़े सुधारते लोग भी शहर, मोहल्ले, की तंग गलियों में प्रायः मिल जाते थे. इस आपदा के बाद फुटपाथ पर रेंगते ये लोग अचानक विलुप्त हो गए. इनकी भूख आपदा से भी बड़ी थी. तभी तो ये उससे लड़ने चले थे और ये भूख ही उन्हें खा गई. अब निशान हैं पटरियों पर और खाली पेट की कहानी कहती कुछ रोटियाँ उनकी सविनय यात्रा की बेबसी कहती हैं. ये क्यों हुआ,कैसे हुआ...इस पर बहस लम्बी चलेगी. लेकिन यह प्रश्न सदियों तक झकझोरेगा कि ग़रीब की मौत इतनी आसानी से कैसे एक किस्सा बन दब जाती है. पटरियों पर बिखरी रोटियों की तस्वीर और कटे हुए शरीर; 2020 की त्रासदी को एक झटके में बयां कर देते हैं. कैसे भूल सकेंगे हम ये तस्वीर जो अब करवट बदलती रातों की बेचैनी का सबब बन चुकी है?
जहाँ देखिए, बातों के विषय में केवल और केवल कोरोना है. कौन किस अपने से नहीं मिल पा रहा, किसके एरिया में सब्जी नहीं है, कहाँ फल नहीं मिल रहे. ग्रॉसरी शॉप कब खुल रहीं, डेयरी कब खुलेगी, हेल्पर्स आ रहे या नहीं, ट्रेन, प्लेन कब चल रहे, कौन सी फ्लाइट कैंसिल हुई, कौन लक्ष्य से भटका, किसने डबल किराया वसूला, कौन किसी अपने की मौत में नहीं जा पाया, किसके आने से वायरस और फ़ैल गया हर तरफ बस यही चर्चा है.
इन सबके बीच यदि कोई एक चीज़ यथावत है तो वो है राजनैतिक कबड्डी, आरोप-प्रत्यारोप, आपदा को अपने हितों में साधने के अवसर! सरकार और विपक्ष दोनों अपने दाँवपेच में लगे हुए हैं, मामला हर बार की तरह वही पुराना श्रेय लूटने वाला है.
इस समय यदि मैं आपसे कुछ शब्द बोलने को कहूँ तो यक़ीन मानिये कि आप सोशल डिस्टेंस, क्वारंटाईन, आइसोलेशन, मास्क, सैनिटाइज़र, हैण्ड वाश, सेफ्टी यही सब कहेंगे. यही शब्द दिमाग में चल रहे हैं. चेहरे भी जो याद रह जाते हैं, असल में उनका कोई चेहरा ही नहीं. पूरे शरीर को एक प्लास्टिक के खोल में लपेटे लोग हैं. सर से पाँव तक ढके लोग, लेकिन फिर भी आप उनकी आँखों का भय पढ़ सकते हैं.
हर तरफ़ तसल्ली का बाज़ार है जो पहले केस पर मिली, फिर दूसरे, पचासवें, सौंवे, हजार, दस हजार और लाखों तक पहुँच चुकी है. इतना समझ में आ गया है कि हमें अपनी सुरक्षा आप ही करनी है. लेकिन कौन, कितना अच्छे से कर रहा है वो मंज़र और भी भयावह है. अब सब खुले मैदान में कूद पड़े हैं.
एक तरफ कुछ लापरवाह लोग हैं जिन्होंने खतरों के खिलाड़ी बनने की क़सम खा रखी है और दूसरी तरफ वे भी हैं जो जीवन की कद्र करना जानते हैं. वे अपने आपको एक वायरस के हवाले यूँ ही नहीं कर सकते! क्यों करें! अभी हमारे भीतर बहुत जीवन शेष है.
बस यही है हाल.....जीवन को बचाने का संघर्ष, दो वक़्त की रोटी जुटाने का संघर्ष, बच्चों की हँसी लौटा लाने का संषर्ष, अपनों की एक झलक पाने का संघर्ष.
लाख से ऊपर हुए वे लोग जो इसकी गिरफ़्त में हैं. सैकड़ों हारकर दूसरी दुनिया में चले गए. पर अभी कई करोड़ हैं जिन्हें लड़ना है हर रोज़ अब! देखते हैं, कितने बचेंगे, कितने हँसेंगे और कितनों का जीवन अब पहले सा होगा! न जाने कौन सा वो पल था जब हम सब मिलकर मुस्कुराए थे. न जाने कब ये होगा कि हम फिर साथ बैठेंगे, ठहाके लगायेंगे.
बस एक वादा करें अपने-आप से कि किसी मरीज़ को अपराधी की तरह कभी नहीं देखेंगे. उसके प्रति शब्दों और व्यवहार से संवेदनशील रहेंगे. बहुत दुःख होता है जब कोरोना वायरस से पीड़ित मरीज़ों के साथ इतना बुरा बर्ताव किया जाता है. जैसा कि एक समय में कुष्ठ रोगियों के साथ किया जाता था. आधा तो इंसान अपराध-बोध कराकर ही मार दिया जाता है जबकि हम अपने स्थान से कब उनकी जगह पहुँच जायेंगे, कोई नहीं जानता!
इन दिनों स्वयं को बोरियत से बचाने के लिए सोशल मीडिया पर बहुत सारे हैशटैग चल रहे हैं. कोई अंताक्षरी खेल रहा तो कोई फ़िल्म, वेब सीरीज़ या पुस्तकों में अपना दिल लगा रहा. ऑनलाइन कार्यक्रम चल रहे. वीडियो कॉल्स हो रहे हैं. अच्छा है, जिसे जिसमें ख़ुशी मिले, वो कर ही लेना चाहिए. यूँ तो मेरा यह भी मानना है कि निराशा के दौर को हम गहरी उदासियों में डूबकर नहीं हरा सकते! उन्हें हमारा उत्साह ही मार सकता है. जोश और गिरकर उठ खड़े हो जाने की जिजीविषा ही दुःख की काली परछाई को मिटा सकती है. तमाम दुखों के बीच हँसी की एक किरण फूट सकती है. ये किरण ही हमारे दिलों में रोशनी भरेगी. मैं इतना सब कह तो रही हूँ पर न जाने क्यूँ फिर भी मन उदास सा है.
इतना तो तय है कि ये दुनिया रहेगी अभी. चलिए, एक कोशिश और करते हैं इसी में फिर से जीने की! अपने हौसलों को एक मौक़ा और देते हैं जीतने का. उम्मीद का एक और दीया प्रज्ज्वलित करते हैं कि कभी तो लौटेंगे बीते हुए दिन! बस,ध्यान रहे कि अपनी सुरक्षा आप करना ही एकमात्र उपाय है.
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'हस्ताक्षर' मई अंक, संपादकीय -
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