बीते सप्ताह एक ख़बर ने हमें चौंका दिया, ख़बर यह थी कि इस मुई Covid-19 महामारी के चलते 7 मिलियन अतिरिक्त अनपेक्षित गर्भधारण (unintended pregnancies) की आशंका है. जब मैं भारतीय परिवारों के परिप्रेक्ष्य में इस न्यूज़ को देखती हूँ तो बाक़ी सब ठीक पर ये unintended pregnancy शब्द में मुझे गहरी आपत्ति नज़र आती है. मल्लब हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ प्रेग्नेंसी इन्टेन्डेड हुई ही कब है भला! बच्चे तो भगवान् की देन है, हो जाते हैं जी! कई बार पता ही न चलता कि ग़लती हो गई और फिर उस ग़लती को ढोल-मज़ीरे के साथ घर लाने की गौरवशाली परंपरा का निर्वाह भी तो हमारी ही देन है. कुल मिलाकर हमाए देश में तो मज़ाक-मज़ाक में बच्चा हो जाता है जी. ये यू. एन., फ्यू. एन. सब फ़ालतू की चोंचलेबाज़ी है. इन्हें का पता, हियाँ के जलवे.
अब दिक़्क़त ये हो गई कि हमाई फ़िरेन्ड ने ये और कह दिया कि सेक्स के मामले में भारतीय शहरों की कुछ मुट्ठी भर महिलाएं ही खुद को लिबरेट कर पाई हैं. इसलिए तुम इस विषय पर आर्टिकल लिखो. वो बोल रई थीं और हमारा मुँह तो भयंकर घबराहट शो करने लग गया कि न जी. हम तो ये शब्द बोल भी न सकते, लिख कैसे दें!
अजी, लिबरेट तो छोड़ो अपन हिन्दुस्तानियों को तो इस मामले में एजुकेट तक न किया जाता. जैसे ही हमने से...बोला, चार लोगों के मुँह से हाय, दैया निकल जाएगा. औरों की का कहें, ख़ुद हमाये मुँह से भी अभी जेई निकल रहा.
हमको याद है कि स्कूल में जब जनसंख्या वृद्धि के कारणों पर निबंध लिखने को आता था तो उसके पूरे आठ बिंदु हमें धुआंधार रटे पढ़े थे, अशिक्षा, बेरोज़गारी वग़ैरा-वग़ैरा लेकिन उसमें एक प्रमुख कारण था, मनोरंजन के साधनों का अभाव. क़सम से हमें ये पॉइंट लिखने में इत्ती लाज आती कि चार नंबर कटवा लेते पर मारे सरम के जे ना लिख पाते. मने हद्द ही हो गई अब तो. अरे, लंगड़ी खेल लो, गिल्ली डंडा खेल लो, लूडो- साँप सीढ़ी भी तो होते थे टाइम पास को. तुमाए मनोरंजन के चक्कर में अगले बरस निरंजन और रंजना हमाए आँगन में बेफालतू का धमाल करते हैं.
इधर अपने वात्स्यायन अंकल जी ने कामसूत्र रचकर दुनिया भर की प्रशंसा तो अपनी झोली में डाल ली लेकिन contraceptives की बात बताना भूल ही गए. खजुराहो वालों ने भी नहीं बताया कुछ. अब अपने यहाँ तो ग्रंथों का अक्षरशः पालन होता और जो तुम उनके विरोध में एक अक्षर भी उल्टा सुल्टा बोल दिए तो बेटा! तुम्हारी खैर नहीं! देश की भावनाएँ आहत होंगी सो अलग! अब इसी चक्कर में बहुत सारे भारतीय पुरुष कंडोम का इस्तेमाल नहीं करते और महिलाओं को गोली की सलाह देने में एक बार भी न हिचकते. कारण ये कि उनको लगता आनंद में कुछ कमी रह जायेगी तो वे सारा बोझ स्त्रियों पर ही डाल देते हैं. अब अपने यहाँ तो स्त्रियाँ त्याग और बलिदान की परमानेंट मूर्ति के रूप में स्थापित हैं ही, तो वे सारे साइड इफ़ेक्ट झेलते हुए पति पमेश्वर के सुख में कोई कमी न आने देने का बीड़ा खुद ही उठाती हैं. पुरुष के लिए तो वैसे भी सुरक्षा की सोचना झंझट का ही काम है क्योंकि उसको थोड़े न भुगतना कुछ. एबॉर्शन महिला कराएगी, दवा भी वो ही खाएगी, बच्चा भी उसे ही पैदा करना. जब गर्भ की स्थिति आती है तो दोनों के रास्ते और सोच अलग-अलग राह पकड़ लेते हैं. स्त्री की न केवल शरीर की दुर्गति होती है बल्कि मानसिक तौर पर भी वह टूट जाती है. तात्पर्य यह कि समस्या कोई भी हो, भुगतेगी वो ही. कहे न देवी है जी देवी.
अब लॉकडाउन में फंसे परिवारों के लिए एक तरफ कोरोना है और दूसरी तरफ घर का शांत कोना है. स्त्री काम से थकी हारी और इधर पुरुष मुस्कियाते हुए मूड बनाए बैठे हैं. स्त्री भले ही केमिस्ट्री पर चलती है और हर समय इनके जैसे एक ही बात नहीं सोच पाती लेकिन हियाँ तो biological demand है और पुरुष का तो क्या, वे प्रसन्न हों, दुखी हो, तनाव में हो...हर मूड में सेक्स कर सकते हैं सिवाय भय के.
उस पर सरकार ने शराब की दुकानें खुलवाकर सारा दोष इस नशे पर मढ़ने का फुल्टू इंतजाम और कर दिया है. बाक़ी दुकानें बंद हैं तो इस समय contraceptive लेने कौन जाएगा और उस पर shortage भी इत्ती चल रही. टीवी पर रामायण भी आकर ख़त्म हो चुकी, बाक़ी चैनल तो पहले से ही मटका भर-भर आंसू बहा रहे तो वही बात हो गई न जो हम पहले निबंध में लिखने से बचते रहे थे, 'मनोरंजन के साधनों का अभाव'. लो कर लो मनोरंजन, करके दंतमंजन.
हम तो ये सोच हलकान हुए जा रहे कि दैया रे दैया, का कहेंगी वो अपने रोमांटिक साहिब जी से कि 'इश्श! चलो, हटो न! हमको प्यार से डर लगता है जी!'
गो कोरोना गो!
- प्रीति 'अज्ञात' 6th May 2020
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