हम सबके मन के भीतर एक कोना ख़ालिस अँधेरे से भी भरा होता है. इस कोने में तमाम टूटे सपने, दबी हुई ख्वाहिशें, खोए हुए रिश्ते और कुछ ऐसी विषाक्त तस्वीरें ठसाठस भरी होती हैं जिन्हें इंसान चाहकर भी भुला नहीं सकता. उदासी और निराशा भरे दौर में इसी कोने की खिड़कियाँ अनायास ही धीरे-धीरे फिर खुलने लगती हैं. इससे जुड़ी बुरी स्मृतियाँ चारों ओर से घेर बेतहाशा प्रहार करती हैं. अब मन ये मान लेना चाहता है कि 'मेरा कोई नहीं!' यही वो पल है जब इंसान अपने जीवन का सबसे मुश्किल और ख़तरनाक निर्णय ले लिया करता है. अपने-आप से दूरी बनाने की इस सोच में उसे 'आत्महत्या' ही एकमात्र तरीक़ा नज़र आता है. वो यह भूल जाता है कि उसके जाने के बाद उन लोगों का क्या होगा, जिन्होंने अपना जीवन उससे जोड़ रखा था! क्या मृत्यु सभी शंकाओं का समाधान है? क्या जीवन से हार मान लेना, मृत्यु पर विजय का संकेत है? क्या आत्महत्या संघर्ष से मुँह छुपाकर भागना नहीं होता? लेकिन इस सबके साथ एक प्रश्न और भी उठता है कि इंसान किन परिस्थितियों में मौत को गले लगाता होगा? मर जाना इतना आसान होता है क्या?
आत्महत्या का निर्णय लेते समय, आँखों के सामने माता-पिता का बिलखता चेहरा जरुर झूलता होगा. मन जरुर सोचता होगा कि माँ जाने कब तक आकाश को ताक बादलों में मेरी तस्वीर तलाशेगी. बेसुध हो घंटों रोएगी और एक दिन पागल हो मर ही जाएगी. पिता के सारे सपने भी उन्हीं की तरह उम्र भर के लिए बिखर जाएंगे. दोस्त फूट-फूटकर रोएंगे और उलाहना देते हुए कहेंगे, "कमीने, एक बार तो गले लग दिल का हाल बताता यार!' कितने सपने जो एक इंसान अपने-आप के लिए देखा करता है, क्या वे सब उस एक पल में आँखों के पानी से न बह जाते होंगे! ख़ुशी के मुट्ठी भर पल ही सही, एक बार तो याद आते होंगे. इन सारे पलों से जीतकर, ऊपर उठ व्यक्ति मर जाने की चाह रख पाता है; तो यह भी हिम्मत का ही काम है. मैं इसे महिमामंडित नहीं कर रही पर क़ाश! यही हिम्मत उसने जीने के लिए जुटा दी होती!
पैसा, पद, भौतिक सुख-सुविधाएँ ये सब बातें बेमानी हैं यदि आपके जीवन में आपको प्यार करने या समझने वाला शख्स न हो. हर वो ख़ुशी खोखली है जब आप उसे किसी के साथ सेलिब्रेट न कर पाएँ. वो हँसी भी फ़ीकी ही है जिसमें साथी की आवाज़ मिल ठहाकों में तब्दील न हो जाए. दुःख में झरते उन आंसुओं का भी क्या, जो कोई आगे बढ़ उन्हें पोंछ यूँ न कहे कि 'मैं हूँ न!' एक जादू की झप्पी की तलाश सबको है.
ये अपेक्षा ही इंसानों को भीतर से तोड़ रही है. जबकि होना ये चाहिए कि कोई हमारा न भी बन सका तो क्या! हम तो लोगों के जीवन में खुशियाँ भर दें. किसी ने हमें मुसीबत में बीच राह भले ही छोड़ दिया, हम तो किसी की सहायता कर सकें. दूसरों के सुख-दुःख को अपना समझ जिस दिन जीने लगेंगे, उस दिन सारी परेशानियाँ बौनी नज़र आएंगीं.
समय का रोना सबके पास है. तनाव सबके जीवन में है. डिप्रेशन से बहुत लोग जूझ रहे हैं. इन्हें अपने दुःख का साझेदार न मिला. आसानी से मिलता भी नहीं! ख़ुद को प्यार करना ही इससे निकलने की सरल, सुलभ दवा है. मन कहे तो ढूंढिए किसी ऐसे शख्स को, जो आपकी ख़ुशी का मोल समझे, कुछ लोग आप ही की तरह होते हैं. ग़र ख़ुशकिस्मती हुई तो अनायास मिल भी सकते हैं. न हों तो आप किसी की ख़ुशी बन जाइए. जीवन ऐसे ही जीता जा सकता है.
मैं बार- बार आपको कह रही हूँ कि कभी नाउम्मीद न हों. जीवन में रहकर ही इसकी मुश्किलों से लड़ा जा सकता है. समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है. ‘जीवन से बेहतर कोई विकल्प नहीं!’ किसी हाल में नहीं!
- प्रीति 'अज्ञात'
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अवसाद ग्रस्त के लिये वो भी जो दवा पर हो बहुत मुश्किल हो जाता है। दवाइयाँ भी कभी उकसाती हैं। पता था सुशाँत अकेला रहने लगा है वही खतरे की घंटी थी पर सुनता कौन? मौत के बाद प्रश्न रह जाते हैं बस। श्रद्धाँजलि।
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