गुरुवार, 9 जनवरी 2014

बस यूँ ही....

बड़ा ही अज़ीब सा मूड है आज...कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा ! एक उदासीनता सी है, "जीवन क्या है, क्यूँ है? किसके लिए जीना है?", जैसे सवालों ने दिमाग़ को घेर रखा है. कुछ सवाल उम्र भर अनुत्तरित रहने के लिए ही बने होते हैं, उनके जवाबों की खोज में इंसान खुद भी गुम हो सकता है. फिर भी हम सब अपनी आदत से मज़बूर हो तलाशते रहते हैं. जीवन का एक सच और भी है, जो मैनें महसूस किया है..."दूसरों के लिए जीना बेहद आसान है, बजाए इसके कि हम अपने बारे में सोचने लगें". ना जाने स्वार्थी लोग साँस कैसे ले पाते हैं? पर ये उनकी परेशानी है, अगर इस पर भी हम सोचने लगे, फिर तो गये काम से ! 
 
अपने और पराए की परिभाषाएं ही बदल चुकी हैं. जिस पर आपको अपने आप से भी ज़्यादा विश्वास होता है, वो बड़ी ही आसानी से पलट जाते हैं और जिन्हें हम अपनों में नहीं गिनते, वो अचानक ही अपनापन दे जाते हैं ! जीवन की राहों में कई बार किसी से हुई मुलाक़ात, सपनों को नया रूप देने लगती है..और कभी-कभी उन्हीं सपनों को चकनाचूर करने में भी कोई परहेज़ नही करती ! किस्मत आपके साथ है या बदक़िस्मती ने अब भी आपका दामन थामे रखा है, ये तभी तय होता है. पर कहते हैं ना.."उम्मीद पे दुनिया कायम है" तो फिर डर किस बात का ! लगे रहो, जुटे रहो...कम से कम कोशिश करने की खुशी तो रहेगी ! 
 
जब दिमाग़ घूम रहा हो, तो अपने दोस्तों से ज़रूर बात कर लेनी चाहिए, पर आज की व्यस्त दुनिया में हम ही फालतू से प्रतीत होते हैं. घर की ज़िम्मेदारी, बाहर का सारा काम, कुछ समाज-सेवा भी; इसके बाद भी ना जाने क्यूँ दोस्तों के लिए समय निकाल ही लेते हैं. लोग कहते हैं कि फ़ुर्सत के पलों में टी. वी. देख लेना चाहिए, पर हमें लिखने की ऐसी लत लगी है कि और कुछ सूझता ही नहीं !! हाँ, दोस्तों के पास वक़्त का बड़ा अभाव है. कृपया इसे मेरी शिक़ायत मत समझिएगा, बस यूँ ही लिख दिया है. आप सबकी मज़बूरियों से हम भी वाक़िफ़ हैं !कुछ पंक्तियाँ बन गयी हैं, यकायक..जिनका इस विषय से कोई लेना-देना ही नहीं, फिर भी लिख रही हूँ -
 
"सबसे ज़िक्र किया, उनकी हर इक अदा का 
बस उनसे ही,अपनी बात नहीं होती ! 
यूँ मिला करते हैं,ख्वाबों में आके हमें 
वैसे आजकल हमारी मुलाक़ात नहीं होती !" 

बाहर मौसम का मिज़ाज़ भी बदल रहा है. सुबह-शाम की ठंडी हवा के साथ डालियों पर झूलते फूल-पत्ते माहौल को कैसा 'रोमांटिक लुक' देते हैं! पर रात को खिड़की से झाँकती वही डाली, अचानक ही भयावह लगने लगती है! जैसा कि मुझे जानने वाले समझ ही गये होंगे, मैने खिड़की बंद कर ली है !
 
प्रीति'अज्ञात' 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें