जब भी घर से बाहर निकलते हैं ,कुछ घटनाएँ रोज़ ही हुआ करती हैं. हम सभी लापरवाह से अपनी ही धुन में या काम पर पहुँचने की जल्दी में उन्हें दरकिनार कर दिया करते हैं या फिर देखते हुए भी कंधे उचकाकर, ज़्यादा हुआ तो अफ़सोस ज़ताकर आगे बढ़ जाते हैं. उन सपनों पर गौर ही नहीं किया कभी, जिनके पूरे होने की आशा तो शायद उन्हें देखने वालों को भी नहीं...पर फिर भी वो पलकों तले उन ख्वाबों को संजोए हुए हैं. हम उन्हें हौसला क्या देंगे; जीने का ज़ज़्बा तो उन आँखों में है,जिनमें उम्मीद की पतंगें अब भी उड़ा करती हैं. और एक तरफ़ हम जैसे लोग हैं जो ज़रा-ज़रा सी बातों पर दिल को दुखा लिया करते हैं. लेकिन जब किसी के लिए कुछ करने का वक़्त आया, तो निगाहें फेर लेते हैं. ज़्यादा नहीं बोलूँगी, कुछ पंक्तियाँ आप सभी के लिए.........
गली में या गलियारों में
मंदिर की सीढ़ियों तले
रोज ही हर चौराहे पर
या किसी पार्किंग में मिले
कभी ट्रेन के डिब्बों में
तो कभी फ़ुटपाथ पर
सिनेंमाघरों के बाहर
या होटलों की चौखट पर
कभी सिर पर बोझा ढोते
कभी सड़क के गड्ढों में सोते
रेत के टीलों में शंख है, तलाशती
ईंटों के टुकड़ों को,बेफिक्री से उछालती
अक़सर ये बिलखती है
अक़सर ये तरसती है
आसमान के छज्जे से लटके
तारों को गिना करती है
आम सी हो गई है
हर कदम पर पाई जाती है
हमें देख,कितनी दफ़ा
उम्मीद से मुस्कुराती है
बरसों से हर राह में भटकती
जीने का सपना संजोती
हर आते-जाते को देख,अब भी
दौड़ती आती है...वो नन्ही सी 'ज़िंदगी' !!
प्रीति'अज्ञात'
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