यदि सुरक्षित रहना है तो अब हमें आँखों की भाषा समझनी होगी!
पूर्ण लॉकडाउन हटने के पश्चात् देखने में आया है कि कोरोना महामारी को लेकर इंसानों में अब पहले-सा डर नहीं रह गया है. वे पिछले महीनों की अपेक्षा कुछ कम तनाव में हैं. कभी-कभार हँस भी लिया करते हैं. प्रसन्न रहना अच्छा है परन्तु बीमारी के प्रति लापरवाह न रहा जाए!
बिना मास्क पहने लोगों का सडकों पर दिखाई देना चिंता का विषय है. शायद इन्होंने बीमारी की गंभीरता को भुलाकर यह मान लिया है कि जैसे धूप है, सर्दी-गर्मी है, बारिश है...वैसे ही कोरोना भी है. एक तरह से यह दिनचर्या का हिस्सा बन गया है. लगता है, तमाम मुसीबतों के बीच रहने तथा प्राकृतिक आपदा से जूझने को अभ्यस्त हम भारतीयों ने कोरोना के साथ भी सहज हो जीना सीख लिया है.
लौट रही है बाज़ार की खोई चमक
कहते हैं 'आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है' एक ओर तो कोरोना महामारी ने मौत का तांडव मचा रखा है, वहीं दूसरी ओर इसने सुरक्षा कवच 'मास्क' का एक अच्छा-खासा बाज़ार भी खड़ा करवा दिया है. यही नहीं, सैनिटाइज़र और साबुन के विक्रय में भी वृद्धि हुई है. अन्य उत्पादों में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए 'कोरोना फ्री' लेबल संजीवनी का कार्य कर रहा है तथा इस लेबल के साथ सजी वस्तुएँ हाथों-हाथ बिक रही हैं. महीनों से निराश विक्रेताओं के चेहरों की खोई चमक धीरे-धीरे लौटने लगी है.
सुपर स्टोर चालू हो चुके, अन्य दुकानें भी चलने लगी हैं. जहाँ काउंटर हैं, वहाँ दुकानदारों ने अपनी-अपनी दुकान के आगे टेबल लगाकर सीमा-रेखा खींच दी है. जहाँ नहीं हैं, वहाँ रस्सी बाँधकर सोशल डिस्टेंसिंग बना ली गयी है. सुपर स्टोर में अधिक भीड़ न हो अतः लाइन में लगकर अपनी बारी की प्रतीक्षा धैर्य के साथ की जाती है. रेस्टोरेंट में 'डाइन इन' भले ही न्यूनतम हो पर 'टेक-अवे' धड़ल्ले से चल रहा है.
जहाँ जाइएगा, हमें पाइयेगा
मास्क, केवल केमिस्ट के यहाँ ही मिलेगा और एक विशेष प्रकार का ही, ये बीती बात हुई. सच तो यह है कि जैसे होली के समय रंग, पिचकारी या फिर दीवाली पर दीये, रंगोली के ठेलों से सड़कों के किनारे रौनकें सजती हैं, कुछ ऐसा ही नज़ारा इनका भी है. 'जहाँ जाइएगा, हमें पाइयेगा' की तर्ज़ पर यह अब ठेलों से लेकर स्टेशनरी तक की दुकानों में उपलब्ध है. यह चप्पल के ठेले और चाय की किटली पर है. कुछेक सब्जी वालों ने भी इसे लटका रखा है. छोटी-मोटी दुकानों पर तो खैर है ही! कहीं प्लास्टिक में पैक है तो कहीं खुला ही लटका हुआ है, जिसे हर आने-जाने वाला पलटकर देख सकता है! कपड़े के बने इस रंगीन मास्क का रेट ऐसा है कि कोई भी खरीद लेगा लेकिन खुला मिलने के कारण यह भी संक्रमित हो सकता है, यह बात ग्राहकों को समझनी होगी.
क्या जीवन पटरी पर लौट आया है?
अप्रैल-मई के मध्य एक ऐसा कठिन समय आया था, जब लगने लगा था कि न जाने अब जीवन कभी पटरियों पर लौटेगा भी या नहीं! फ़िलहाल यह पूर्णतः तो नहीं पर एक सीमा तक लौटता प्रतीत हो रहा है. स्थिति सामान्य न होते हुए भी सामान्य होने का भरम देने लगी है. अब इसे लापरवाही मानिए या अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर अत्यधिक विश्वास कि एक तरफ तो लोग अपना बहुत ध्यान रख रहे हैं तथा पूरी सुरक्षा के साथ ही बाहर निकलते हैं वहीं कुछ लोग बिना मास्क पहने 'आत्मनिर्भर' बने घूमते हुए भी देखे जा सकते हैं. आप इन्हें फ़ाइन या सुरक्षा की बात कहेंगे तो ये लड़ने पर उतारू हो जाते हैं.
अब आप कुछ ख़ास महसूस करते होंगे
स्टोर में प्रवेश करते ही, कहीं-कहीं वीआईपी फ़ील भी मिल जाता है. जहाँ एक व्यक्ति द्वार खोलता है और दूसरा सैनिटाइज़र स्प्रे कर आपके हाथ के कीटाणुओं को नष्ट करता है. उसके बाद ही आप वस्तुओं को स्पर्श कर सकते हैं. दुकानदार पहले की अपेक्षा अधिक विनम्र और मृदुभाषी भी हो गए हैं.
हवाई यात्रा आपको एस्ट्रोनॉट का लुक अलाइक बना देती है. इसी से याद आया कि अभी पिछले हफ़्ते एक मित्र के परिवार के दो सदस्यों को आकस्मिक यात्रा करनी पड़ी. वो बोली कि मैंने तो कह दिया है पूरी किट संभालकर ले आना. बाद में आने वाली पीढ़ियों को बताएंगे कि 'देखो! कोरोना काल में ऐसे जीते थे!' यह सुनकर एक पल को मुझे यह विचार भी आया कि कुछ तस्वीरों में जिन्हें हम 'एलियन' कहते हैं कहीं वो भी हमारी तरह किसी 'कोरोना महामारी' के शिकार सामान्य मनुष्य ही तो नहीं थे? इस समय हमारी तस्वीरें कहीं दूसरे ग्रह के लोग देख लें तो उन्हें भी यही लगेगा कि अरे! पृथ्वी की तो जेनेटिक कोडिंग ही बदल गई! हाहाहा.
याद रहे कि इस लड़ाई में हमारा सुनिश्चित हथियार 'मास्क' है, जिसका साथ अभी लम्बा चलेगा. ये तय है. थोड़ी असुविधा होगी. 'लुक' ख़राब लगेगा लेकिन यदि सुरक्षित रहना है तो अब हमें इसी मास्क के साथ जीना सीखना होगा और आँखों की भाषा समझनी होगी!
- प्रीति ‘अज्ञात’
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