चलिए, चैनलों की ख़ातिर...झूठ को ही सही पर किसी गणितीय व्युत्पत्ति की तरह एक बार मान लीजिए कि रिया चक्रवर्ती निर्दोष साबित हो जाती हैं. फिर???
ये जो मानसिक लिंचिंग चल रही है उसकी भरपाई कौन करेगा?
आख़िर किसने चैनलों को ये हक़ दिया कि वे दिन रात बाल की खाल निकालते रहें! क्या उन्हें देश की न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं? या उन्हें ऐसा लगने लगा है कि सीबीआई के पास उन जैसी महान बुद्धि नहीं और वह उनके दिए प्रमाणों के आधार पर ही चलेगी? यदि ऐसा है तो फिर ये चीखपुकार बलात्कारी नेताओं और बाबाओं के विरोध में क्यों नहीं सुनाई देती? मानती हूँ कि सुशांत की हत्या की जाँच होनी चाहिए लेकिन काश! आपने दिशा की हत्या/ आत्महत्या पर ये बिगुल बजाया होता तो आज सुशांत जीवित भी हो सकते थे! यह बात केवल उदाहरण भर के लिए कह रही हूँ, सन्दर्भ व्यापक है.
दरअसल परेशानी यह है कि चर्चा का विषय किसी राजनीतिक लाभ के लिए ही बनता है, उसी आधार पर चुना जाता है. अन्यथा सरेआम आँखों देखी हत्याओं पर भी कोई चूं तक नहीं करता!
इसी बात का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि क्या उन्हीं को न्याय मिलेगा जिनके लिए देश चीखेगा? हमारी पुलिस और न्याय-तंत्र का यह दायित्व नहीं कि वे हर केस को उतनी ही गंभीरता से लें, जितना किसी व्यक्ति विशेष को लिया जाता है? निर्भया के लिए पूरा देश एकजुट हो गया तो सालों खींचने के बाद अंततः उसे मरणोपरांत न्याय मिला लेकिन बाक़ी रेप केसेस का क्या हुआ? हुआ ये कि हम चीखे-चिल्लाये नहीं तो कुछ कैसे होता भई? अपराधी मौज में हैं. लेकिन क्या हर समस्या पर ध्यान आकर्षित करवाना जनता की जिम्मेदारी है? सम्बंधित विभाग का स्वतः ही, अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता?
बारिश है, बाढ़ है या कोई भी आपदा...जब तक जनता सिर पटक-पटककर रोएगी नहीं, कोई पलटकर नहीं देखता! कहीं वर्षों से स्ट्रीट लाइट ख़राब है तो कहीं गड्ढों के मध्य सड़क का भान होता है. गटर के ढक्कन खुले पड़े हैं. यदि कोई गिर जाये तो उसका दोष! क्योंकि उसे तो पता होना चाहिए था न कि इस डूबी हुई सड़क के बायीं ओर बीस कदम चलते ही एक गटर था और वो खुला भी हो सकता है! अब चूँकि किसी भलेमानुष ने उसमें पेड़ की डाल फंसाकर जनता को सचेत नहीं कर पाया था तो इसमें विभाग की क्या गलती!
तात्पर्य यह है कि यदि सब अपना-अपना काम पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से करें तो तनाव और सिरदर्द से पूरा देश बच सकता है. जबकि हो ये रहा है कि हम अपना छोड़ दूसरों को उनके काम याद दिलाने में अपना समय अधिक जाया कर रहे हैं. विपक्ष सत्ता को कोसता है और सत्ता उन्हें दोषी ठहराने का सुख प्राप्त करती है. अधिकांश चैनल, देश की अन्य समस्याओं को भुला, पुलिसिया कार्यवाही में लगे हुए हैं. पुलिस, व्यवस्था को दोष देने लगती है. लेखक, निष्पक्षता छोड़ राजनीति में घुस अपने-अपने पालों को चमकाने में लगे हैं. पत्रकार सब कुछ भूल नौकरी बचाने की जद्दोज़हद में है. तथाकथित साधु/ बाबा सांसारिक मोह में तर बैठे हैं और शिष्य उनके पाँव पकड़ कर इस उम्मीद में हैं कि एक दिन बिना कुछ करे वो भी मालामाल हो जाएंगे! जनता, नित न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठ अपना फ़ैसला सुनाने लगी है. झूठ को तोड़ मरोड़कर, सच की तरह पेश किया जा रहा और सच दबा दिया जाता है.
तालियाँ हर दृश्य में बजती है, हर बार बजती हैं. आख़िर हम सब बंदर ही तो हैं! एक डुगडुगी बजी और सब कुछ एक तरफ़ रख देश का नाचना शुरू! हमारे रोल बदल गए हैं और इस समाज के उत्थान में हमारी भूमिका क्या है वो भूले से भी याद नहीं आ रहा है!
- प्रीति 'अज्ञात'
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जवाब देंहटाएंयदि न्यायपालिका सख्त हो तो इन बेढंगे वाचाल चैनलों पर एक पल में नकेल कस जाए। मनघडंत ढंग से खुद ही जज खुद ही न्यायालय बने इन बदजुबान पत्रकारों की इस प्रवृत्ति पर यदि रोक ना लगी तो कमजोर तबियत वाले अनेक आरोपी इन लोगों की इस
जवाब देंहटाएंज़ुबानी क्रूरता के चलते आत्महत्या करने लगेंगे। आखिर सबकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी है और आत्मसम्मान भी। सुशांत की संमस्याओं को उनका परिवार भी समझ नही पाया, ये भी कड़वा सच है
तीर कहीं नजर कहीं चहिये बस अब एक धनुष नहीं चाहिये
जवाब देंहटाएंवोट माता की जय :) हर रास्ता अब पहुंचता है तुझी तक ।
विचारणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंखुद ही रिपोर्टर, खुद ही वकील, खुद ही जज और खुद ही जल्लाद! इस सब में तथ्य गायब. बढ़िया लिखा.
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