सोमवार, 3 अगस्त 2020

#विश्व संस्कृत दिवस: संस्कृत और संस्कृति

'संस्कृत' यह शब्द सुनते ही मंत्रोच्चार की मधुर ध्वनि संगीत की तरह तरंगित बजने लगती है. विद्यार्थी दिनों के रटे हुए श्लोक स्वत: ही उच्चरित होने लगते हैं. आँख मीचते हुए, खाना खाने के पूर्व का श्लोक हो या कक्षा के अंतिम पाठ के समय का, ये सभी हमारे बचपन का एक अटूट हिस्सा रहे हैं.

ॐ असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

इसके अतिरिक्त भी कई शांति/ वैदिक मन्त्र हैं जो हम सबको अभी तक कंठस्थ होंगे. ये प्रभाव है 'संस्कृत' का, उस भाषा का जो आपको सभ्यता और मनुष्यता के प्रथम चरण से साथ लिए चलती है. यह मात्र भाषा ही नहीं, सम्पूर्ण संस्कृति है जिसने इसे आत्मसात कर लिया उसने न केवल स्वयं को, बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी सुरक्षित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

अब प्रश्न उठता है कि 'संस्कृत' ही क्यों?
इसमें कोई शंका नहीं कि हर भाषा की अपनी विशिष्टता और मधुरता है. जहाँ हिन्दी पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करती है वहीं उर्दू की अदा, नज़ाक़त और मिठास जीवन में शहद-सी घुल जाती है. प्रादेशिक भाषाओं की अपनी महत्ता, उपयोगिता और सहजता है. हमें इन सबके अस्तित्व का न केवल सम्मान ही करना है अपितु इनका संरक्षण भी हमारा उत्तरदायित्व बनता है. 'संस्कृत' भारतीय भाषाओं की जननी है और भारतीय संस्कृति में 'माँ' का स्थान सबसे ऊपर रखा गया है. जननी, जन्मभूमि और पोषित करने वाली धरा को भी हम नित दिन प्रणाम करते हैं तो क्या इसके संरक्षण की जिम्मेदारी हमारी नहीं?

कई बुद्धिजीवी वर्ग  हिन्दी भाषा के सरलीकरण एवं उसमें अन्य शब्दों के प्रवेश पर चिंता व्यक्त करते हैं, वे भाषा की क्लिष्टता और उससे ही निर्मित लेखन को साहित्य की कसौटी पर रखे जाने के समर्थन में भी हैं. वहीं उन बुद्धिजीवियों की संख्या भी कम नहीं जो आजकल की युवा पीढ़ी के दृष्टिकोण को समझते हुए भाषा की सहजता, सरलता और सर्वग्राह्यता पर जोर देते हैं. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दोनों ही श्रेणियों के चिंतकों को भाषा के बचे रहने की चिंता सता रही है. कारण स्पष्ट है, 'संस्कृत' भाषा का विलुप्तीकरण हम सबने देखा है. यहाँ विलुप्तीकरण से अभिप्राय, इसके न्यूनतम एवं विशिष्ट स्थानों पर ही प्रयोग से है.

'संस्कृत' इतनी महत्वपूर्ण क्यों है?
संस्कृत को देवों की भाषा कहा गया है. समस्त वेद, वेदान्त, उपनिषद एवं पुराण इसी भाषा में रचे गए हैं. यह सम्पूर्ण जगत की सर्वाधिक प्राचीन और समृद्ध भाषा है. पाणिनि द्वारा रचित व्याकरण आज भी प्रकाण्ड विद्वानों और भाषा वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित कर देता है. संस्कृत का शब्दकोष अक्षय और अक्षुण्ण है.

NASA की बात पर विश्वास करें तो इस अमेरिकन संस्थान ने अंतरिक्ष में सन्देश भेजने के लिए संस्कृत भाषा को ही सर्वोत्तम माना है. वहीं फोर्ब्स पत्रिका (1985 में) के अनुसार अनुवाद हेतु उपलब्ध भाषाओं में संस्कृत ही सर्वश्रेष्ठ है तथा कंप्यूटर में भी इसका इस्तेमाल अत्यन्त सरलता से संभव है.
एक शोध के अनुसार मानव-स्वास्थ्य पर भी संस्कृत का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इस भाषा के प्रयोग से तंत्रिका तंत्र सक्रिय एवं शरीर ऊर्जावान रहता है.  
जिस भाषा के आगे सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक है, क्या हमें उस पर गौरव नहीं होना चाहिए?

भारतीय संस्कृति में 'संस्कृत' कितनी शेष है?
यह प्रश्न विकास और आधुनिकता की दौड़ में एक प्रश्नचिह्न बनकर झूलने लगा है. हम अपने आसपास, दूर और देश के कोने-कोने को भी छान आएं तो संस्कृत भाषा कहीं दिखाई नहीं देगी. आप इसे भारतीय जीवन बीमा निगम के विज्ञापन में लगे लोगो 'योगक्षेमं वहाम्यम्' और पर्यटन विभाग के 'अतिथि देवो भव:' में अवश्य देख सकते हैं. इसके बाद यह केवल सरकारी लोगो में ही दिखाई देती है. भारत सरकार का 'सत्यमेव जयते', दूरदर्शन का 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्', डाक तार विभाग का 'अहर्निशं सेवामहे', केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का 'असतो मा सद्गमय' और ऐसे सभी logo में संस्कृत की उपस्थिति इसके जीवित रहने और जड़ों में बसे होने का पुष्ट प्रमाण देती है. वर्तमान पीढ़ी का इस भाषा से सम्पर्क बस इतना भर ही है! हाँ, विवाह, धार्मिक आयोजनों, पूजा-पाठ में भी इसका प्रयोग होता है. लेकिन इसका अर्थ मात्र बोलने वाले पण्डित जी को ही समझ आता है. इसीलिए आज का युवा इन कार्यक्रमों से दूरी बनाकर खिसक जाना उचित समझता है. क्योंकि यदि वह टोककर प्रश्न करता है, तो आस्था की दुहाई देकर उसे चुप करा दिया जाता है और यदि अपने मित्रों, परिवार के सदस्यों के साथ बार-बार 'स्वाहा' बोलकर हँसता है तो उसे जाने को कह दिया जाता है. दोष किसका है? अंग्रेज़ी सिखाने की होड़ में हमने अपने बच्चों की हिन्दी भी सुरक्षित नहीं रख पाई, ऐसे में उनसे 'संस्कृत' समझने और उसे सम्मान देने की उम्मीद!!! ये स्वयं से कैसी अपेक्षा है हमारी? वो शिक्षित समाज, जो हिन्दी बोलने में ही ग्लानि का अनुभव करता है, संस्कृत का तो सोचना ही उसके लिए डूब मरने वाली बात हो जाएगी.
आप किसी से संस्कृत में बात करके देखिए. वो या तो आपका मजाक उड़ाएगा या फिर मुँह ताकता नज़र आएगा. क्योंकि अब यह हमारे आसपास से इस हद तक विलुप्त हो चुकी है कि जनसामान्य की न होकर किसी और ग्रह की भाषा लगती है. स्वयं को सौभाग्यशाली समझें और धन्यवाद दें कि हिन्दी हमारे साथ है.

हम क्या कर सकते हैं?
समस्त धर्मांध, कट्टरपंथी, साम्प्रदायिकता का विष उगलने वाले गुटों और विघटनकारी समूहों से यह विनम्र अनुरोध है कि आप संस्कृत को किसी धर्म विशेष से न जोड़ें क्योंकि जैसे यह देश सबका है, योग सबका है, उसी तरह भाषा पर भी सबका समान अधिकार है और इसे बचाए रखने का कर्त्तव्य भी हम भारतवासियों का ही है.

हमारा यह कर्त्तव्य बनता है कि जो संस्कृत पढ़ रहे हैं या इसके प्रचार-प्रसार में योगदान दे रहे हैं; उन्हें उनके हिस्से का सम्मान दें. उन सभी शिक्षकों, विद्यार्थियों, विद्यालयों को भी धन्यवाद कहें जिन्होंने अब तक इस भाषा से स्नेह बनाए रखा है. हमें अपने घर, परिवार, मित्र और आसपास के सभी लोगों को संस्कृत पढ़ने और बोलने के लिए प्रेरित करना होगा. उन्हें यह समझाना ही होगा कि यह शर्मिंदा होने का नहीं बल्कि स्वाभिमान का विषय है, गौरव की बात है.

लेकिन, इतना सब भी पर्याप्त नहीं होगा जब तक कि सरकार इसमें हस्तक्षेप न करे. सरकार को 'संस्कृत' को विश्वविद्यालय स्तर तक अनिवार्य भाषा घोषित करना होगा और इसके शिक्षण के लिए प्राध्यापकों को उचित प्रशिक्षण देना भी उतना ही अनिवार्य करना होगा. सभी सरकारी, गैर-सरकारी प्रपत्रों में हिन्दी, अंग्रेज़ी के साथ संस्कृत का भी विकल्प होना उतना ही आवश्यक है.
'सोने की चिड़िया' का तो पता नहीं, पर देश की एक मुस्कुराती तस्वीर जरूर सामने आएगी, ऐसा मेरा विश्वास है.
आपके क्या विचार हैं, अवश्य कहिए.
- प्रीति 'अज्ञात'

#preetiagyaat #Sanskkrit #दोपहर की धूप में  #विश्व_संस्कृत_दिवस

2019 में प्रकाशित पुस्तक #दोपहर की धूप में से 



3 टिप्‍पणियां:

  1. समस्या ये है कि जो आप की तरह सोच रहा है उसके लिये आज जगह कहाँ है? सटीक आलेख।

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  2. अब तो इस बात की वैज्ञानिक पुष्टि हो गयी है कि भारत की भूमि पर पनपी संस्कृत और वैदिक संस्कृत में रचे गए वेद के तत्वों को लेकर भारतीय आर्य पश्चिम एशिया में गए और उन्होंने मितानी, सुमेरियन, मेसोपोटामिया और ईरानी अवेस्ता संस्कृति को प्रभावित किया। वाल्मीकि ने वैदिक संस्कृत से साहित्य को निकालकर पहली बार लौकिक संस्कृत में रामायण रचकर इसे लोक भाषा बनाया। कालांतर में मुग़लों और अंगरेजों के लम्बे शासन काल में धीरे-धीरे संस्कृत अपनी साहित्यिक सत्ता से बेदख़ल हो गयी तथा वर्तमान की दयनीय दशा को प्राप्त हो गयी। संस्कृत दिवस की शुभकामनाएँ!

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  3. ज्ञानवर्धक लेख है प्रीति जी | आभार और संस्कृत दिवस की शुभकामनाएं|

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