सोमवार, 31 दिसंबर 2018

#नववर्ष

नया साल जैसे जैसे क़रीब आता जाता है, उसी गति के समानुपाती मस्तिष्क की सारी सोई हुई नसें आपातकालीन जागृत अवस्था को प्राप्त होती हैं। यही वो दुर्भाग्यपूर्ण समय भी है जो आपको स्वयं से किये गए उन वायदों की सूची का फंदा लटकाये मिलता है जिसे देख आप शर्मिंदगी को पुनः बेशर्मी से धारण कर बहानों का नया बुलेटिन जारी करते हैं। यहाँ पिछली जनवरी से अब तक किये गए कारनामों की झांकी साथ चलती है।
आप उन पलों को याद कर भावुक हो उठते हैं कि कैसे बीती जनवरी के पहले ही दिन आप सुबह- सुबह उठकर नहाने और सूर्योदय देखने का पुण्य कमा लिए थे। चूँकि मम्मी ने बचपन में बताया था कि साल के पहले दिन सब काम अच्छे से करो तो पूरा साल अच्छा बीतता है। यही सोच उस दिन पुरुष पोहे में जली हुई मूंगफली को काजू समझ चुपचाप गटक लेते हैं। माँ बच्चे को बिल्कुल भी नहीं डाँटती और अपना गुस्सा सप्ताहांत के लिए होल्ड कर देती है। बच्चे थोड़े अलग स्मार्ट टाइप होते हैं तो मनचाहा काम बेख़ौफ़ होकर करते हैं।
पर एक बात तो तय है कि हर उम्र जाति के लोगों के मन में 1 जनवरी को सारे उत्तम विचार उसी तरह छटपटाते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में मेंढक उचक उचककर बाहर निकलते हैं।
खैर! अभी तो इतना ही कहूँगी कि इन विचारों की उत्पत्ति व्यर्थ न जाए और आने वाला वर्ष आप सबको ख़ूब मुबारक़ हो!
- प्रीति 'अज्ञात' 

#नववर्ष

किसी वर्ष का गुजर जाना उन अधूरे वादों का मुँह फेरते हुए चुपचाप आगे बढ़ जाना है जो प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में स्वयं से किये जाते हैं. 
ये उन ख्वाहिशों का भी बिछड़ जाना है जो किसी ख़ूबसूरत पल में अनायास ही चहकने लगीं थी कभी. ये समय है उन खोये हुए लोगों को याद करने का, जिनसे आपने अपना जीवन जोड़ रखा था पर अब साथ देने को उनकी स्मृतियाँ और चंद तस्वीरें ही शेष हैं! कई बार बीता बरस कुछ ऐसा छीन लेता है जो आने वाले किसी बरस में फिर कभी नहीं मिल सकता!

ये अक्सर ही होता है और सबके ही साथ होता आया है कि वर्ष के आख़िरी लम्हों को जीने का अहसास मिश्रित होता है. जैसे ही सुख की एक झलक आँखों में चमक बन उभरती है ठीक तभी ही समय, दुःख की लम्बी चादर ओढ़ा उदास पलों की एक गठरी बना मन को किसी एकाकी कोने में छोड़ आता है. 
बीतते बरस और आने वाले बरस के बीच का लम्हा 'प्रेम' जितना होता है, प्रेम का असल जीवन भी इतना ही होता है. एक साल उसे पा लेने के ख्वाबों में जाता है और दूसरा उसे जीने की ख़्वाहिशों में.
बीच का ये पल जितना बड़ा दिखता है, उतना होता नहीं.....पर सारा खेल इसी क्षण का हैं. यही एक क्षण नई उम्मीदों, नई योजनाओं, नई महत्त्वाकांक्षाओं को जन्म देता है साथ ही पुरानी ग़लतियों को न दोहराने की सीख भी देता है. कुल मिलाकर बारह माह बाद आत्मावलोकन की अनौपचारिक, अघोषित तिथि है यह....वरना नए साल में रखा क्या है!

हम उत्सवों के देश में रहते हैं. जहाँ हर कोई ख़ुश होने एवं तनावमुक्त रहने के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता है. हमें उल्लास की तलाश है, हम मौज-मस्ती में डूबना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हमें कोई न टोके. ऐसे में कोई त्योहार, छुट्टी या फिर ये नया साल अवसर बनकर आते हैं, जिसे दिल खोलकर मनाने में कोई चूकना नहीं चाहता. अन्यथा इन बातों के क्या मायने हैं? सब जानते हैं कि साल बदल जाने से किसी के दिन नहीं फिरते और न ही भाग्य की रेखा चमकने लगती है. कुछ नया नहीं होता! पुरानों को ही झाड़-पोंछकर चमका दिया जाता है.

नववर्ष कैलेंडर में तिथि का बदल जाना भर है! शेष सब बाज़ार के बनाये उल्लास हैं, भीड़ है, लुभाने में जुटे व्यापार हैं. मनुष्य का इन सबकी ओर आकर्षित होना उसके सामाजिक होने का प्रथम लक्षण है. अपने सुख-दुःख के चोगे से बाहर निकल नववर्ष का स्वागत एक आवश्यक परम्परा है, जिसे सबको निभाना चाहिए क्योंकि यही प्रथाएँ हमें जीवित रखती हैं, मनुष्य की मनुष्यता से मुलाक़ात कराती हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

#MirzaGhalib #ग़ालिब

दिल के टूटने पर जहाँ दीवाने, आशिक़ ख़ुद को शराब के नशे या सिगरेट के धुंए में क़ैद कर 'कूल' लुक देने की stupid कोशिश किया करते हैं वहीं कुछ हमसे सिरफ़िरे भी हैं जो इन हालातों में ग़ालिब की गलियों में ठंडी पनाह पाते हैं. हमारा तो ये भी मानना है कि-
"वो दिल ही क्या जो टूटने पर
ग़ालिब की चौख़ट पे दस्तक़ न दे!"
- प्रीति 'अज्ञात'
#MirzaGhalib #ग़ालिब
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हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है.....!

"बल्लीमारान के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह! वाह!
चंद दरवाज़ों पर लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां
चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक कुराने सुखन का सफा खुलता है
असदुल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है"
गुलज़ार साब ने ग़ालिब का पता इतनी ख़ूबसूरती से बताया हुआ है कि वह हरेक के ज़हन में शब्दशः गढ़ गया है और जिसने ग़ालिब का लिखा कभी पढ़ा नहीं, वह भी इस अद्भुत अंदाज़ में लिखे परिचय को पढ़ उन्हें जानने को बेताब हो उठेगा.

अक्सर देखने में आता है कि 1975-85 के बीच जन्मे लोग पुराने दिनों को याद कर बेहद भावविह्वल हो उठते हैं. सचमुच वो भी क्या दिन थे! महाभारत, रामायण सीरियल के दौर में दूरदर्शन का क्रेज़ अपने चरम पर था और उसी समय मियाँ ग़ालिब से हमारी पहली मुलाक़ात हुई. मामला कुछ-कुछ 'Love at first sight' जैसा ही था. गुलज़ार द्वारा लिखित धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का प्रसारण शुरू हुआ. नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता, तन्वी आज़मी, शफ़ी इनामदार, सुधीर दलवी जैसे मंजे हुए कलाकारों के अभिनय ने इस धारावाहिक की उत्कृष्टता में चार चाँद लगा दिए थे. वो पीढ़ी जिसे ग़ालिब की ऊँचाई का अंदाज़ा तक न था, उसके लिए गुलज़ार का यह धारावाहिक किसी तोहफ़े से कम न था. अपनी क्या कहें! बस यूँ समझिये कि जहाँ बच्चे स्कूलों में तमाम शैतानियाँ करते हैं और हम जैसे किताबी कीड़े को दीन-दुनिया से ज्यादा मतलब नहीं हुआ करता था. उस किशोरवय में हम ग़ालिब और जगजीत सिंह से एक साथ ही इश्क़ कर बैठे; जो अब तक बदस्तूर जारी है. ग़ालिब के अल्फाज़ और उस पर जगजीत की मखमली  आवाज़ ने सिर्फ़ हमें ही नहीं, न जाने कितने दिलों को उनका दीवाना बना दिया था. फ़िर तो ये पागलपन इस हद तक बढ़ा कि उनसे जुड़ी क़िताब और कैसेट (नई पीढ़ी इसको गूगल पे समझ ले) हम ढूंढ-ढूंढकर ख़रीदते. अच्छा-ख़ासा कलेक्शन था हमारे पास, जो अब भी सहेजा हुआ है.

लोग कहते हैं कि इश्क़ में डूबे, टूटे, चकनाचूर हुए लोगों को शराब सहारा देती है और हम जैसे नामुराद इन हालातों में ग़ालिब को गले लगा लेते हैं. 
"हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और"

ग़ालिब न होते तो कई टूटे हुए दिल, नए दिलों से जुड़ गए होते. ये ग़ालिब का ही जादू है जो प्रेम की पीड़ा को भी सेलिब्रेट करवा सकता  है. ग़ालिब के अल्फ़ाज़ और उस पर जगजीत/चित्रा की आवाज ज़ालिम आशिक़ी पर जो क़हर ढाती है कि उफ्फ!! बानगी देखिये-

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का ह़द से गुजरना है दवा हो जाना 

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के 

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए 
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

ज़िन्दगी की जद्दोज़हद पर भी ग़ालिब ने ख़ूब लिखा है -
न था कुछ तो ख़ुदा था,
कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने 
न होता मैं तो क्या होता


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे 
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

ग़ालिब हमारे जीवन में इस क़दर घुल चुके हैं कि बात करते हुए उनके लफ्ज़ जुबां से ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर निकलते हैं. हरेक भारतीय ने अपने जीवन में कई बार उनके ये शेर जरुर दोहराए होंगे -

हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले 

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन 
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है 

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं

मिर्ज़ा ग़ालिब की शख्सियत ही इतनी विशाल है कि उसे चंद लफ़्ज़ों में बाँध लेना नामुमकिन है. आज उनकी जयंती पर उनका ही शे'र उन्हें समर्पित -
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता 
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

वही घिसा-पिटा किस्सा!

हम चोरी, उठापटक, गुटबाजी, धोखे, झूठ और कॉपी पेस्ट के उस दौर में लिखे जा रहे हैं जहाँ लेखक सर्वाधिक असहाय प्राणी नज़र आता है. उसकी लिखी रचना मंचों पर पढ़ी जाती है, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा ली जाती है, तोड़-मरोड़कर उन्हें मौलिक रूप देने का प्रयास किया जाता है. बीते कई वर्षों से यह प्रचलन इतना अधिक देखने को मिल रहा है कि देश की अन्य समस्याओं की तरह हमारे system ने अब इसे भी digest करना सीख लिया है. अति 'आदत' ही तो बन जाती है न! चोरों को चुराने की आदत और हमें इसे पचाने की! लेकिन अब लगने लगा है कि तकनीक के इस युग में एक ऐसा भी समय आएगा जब मूल रचनाकार को ही अपनी रचना की मौलिकता सिद्ध करने के लिए दर-दर भटकना होगा और उसे अपनी कह देने वाला वाहवाही के प्रतिभाशाली दरबार में सम्मानित होगा.
यूँ ऐसी कई घटनाओं के हम समय-समय पर साक्षी होते भी रहे हैं.

विचारणीय बात यह है कि ऐसा करने वाले किस दुनिया में जी रहे हैं और क्यों? आख़िर एक लेखक के हिस्से आता ही क्या है? इस सच को सब जानते हैं कि आज भी लेखन को एक जॉब की तरह नहीं किया जा सकता! कुछ प्रतिष्ठित नामों को छोड़ दिया जाए तो 'हम होंगे क़ामयाब' का जाप करते हुए अधिकांश निशुल्क ही लिख रहे हैं. या फिर कुछ अच्छी पत्रिकाएँ अगर पारिश्रमिक दे भी रहीं हैं तो वह राशि दो दिन का ख़र्च भी नहीं निकाल सकती. प्रकाशक और लेखक के बीच की जंग किसी से छुपी नहीं! लाखों कमाने वली websites भी हिन्दी लेखकों को एक रुपया तक देने की आवश्यकता नहीं समझतीं, उन्हें तो हम बेवकूफ़ लगते हैं...शायद हैं भी!
*कुछ पत्रिकाओं की सदस्यता के नाम पर की जा रही ठगी का किस्सा कभी अलग से लिखेंगे. 😎
तात्पर्य यह कि चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक या कला के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा इंसान हो, उसकी अभिव्यक्ति को वह क़ीमत/सराहना/ पहुँच  नहीं मिलती जिसका कि वह हक़दार है तो फिर उसके पास बचा क्या? चलो, इसके बाद भी वह आत्मसंतुष्टि हेतु सृजनशील रहता है जिसे हम और आप 'स्वान्तः सुखाय' कहकर तसल्ली पा लिया करते हैं. अब वो लिखा भी कोई और उठा अपना लेबल लगा ले तो रचनाकार की तो 'जय राम जी की' हो गई न! 😡
मैंने स्वयं अपनी मित्रता-सूची के कई लोगों के साथ ऐसा होते देखा है और उन्हें यह कह समझा भी चुकी हूँ कि "सागर से कुछ बूँदें लेने भर से सागर रीता नहीं हो जाता, वह फिर भी सागर ही रहता है." पर इस बात को समझने की भी एक सीमा होती है.

समझ नहीं आता कि झूठी वाहवाही से किसी का क्या भला होता है और क्या हासिल होता है? कोई इन्हें ज्ञानी समझकर मंच दे भी देगा पर मुँह खोलते ही सच तो बाहर आना ही है. वैसे भी इनकी पीठ पीछे सबको पता होता है कि ये कितने पानी में हैं. दुःख तो तब भी होता है जब सच्चाई सामने आने के बाद भी इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती और इनकी मित्रमंडली भी इनके क़दमों में बिछी जाती है. क्यों, भई? ऐसा क्या मिल जाता है? मित्रों की इसी चाटुकारिता (कहीं भय भी) के चलते इन चोरों के हौसले बुलंद हैं. आत्मग्लानि, जैसे शब्द तो इनके लिए बने ही नहीं! तभी तो ये किसी के भी शब्द उठाकर वाहवाही लूटने में नहीं हिचकते और साथ में निर्लज्ज बन खींसे निपोरते हुए त्वरित धन्यवाद भी दे देते हैं. कुछ ओवरस्मार्ट लोग नीचे नाम तो नहीं लिखते पर दोनों हाथों से प्रशंसा बटोरते हुए भूले से भी यह नहीं कह पाते कि ये उनका लिखा नहीं है. कुछ तो भावविभोर होकर बदले में 'दिल' भी चिपका आते हैं. 😂

क्या 'साहित्य' की गिरती साख़ को बचाने और इस प्रदूषित वातावरण को थोड़ा स्वच्छ बनाने के लिए अब समय नहीं आ गया है इन लोगों को बाहर निकाल फेंकने का? इनसे मुक्ति का? 
आपके पास कोई नाम हो तो बताइये
'SWAG से करेंगे सबका SWAGAT!' 😜
हाँ, भई! ये अंतिम पंक्तियाँ (swag वाली) साभार हैं. अब हमपे ही केस मत कर देना. 😕
#लेखक_और_चोरी!
- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

#सूरज और चाँद

रात के माथे पर दमकता चाँद अपने साथी सितारों के साथ गपशप करते हुए भरे गले से दिन की बेरुख़ी की तमाम शिक़ायतें करता है. इस गोलमटोल चंदा को इस बात का बेहद मलाल है कि जब सूरज उसके इलाके में आता है तो सारा दिन ऐसे क्यूँ पसरकर बैठता है कि कोई बेचारे चाँद को नोटिस भी नहीं करता! 
सूरज को इस बात का ग़रूर है कि उसकी मौज़ूदगी के बिना चाँद का कोई वज़ूद नहीं और यही चाँद का दुःख भी है. वो इसी ग़म में ही सदियों से डूबता आया है कि सूरज का आगमन और विदाई कैसी भावभीनी होती है कि आसमान की खिड़कियों पर टँगी सारी रंगीन चादरें उसके स्वागत में बिछने लगती हैं जबकि चाँद का जाना उदासी की सारी मनहूसियत ओढ़ बिना किसी गाजे-बाजे के चुपचाप विलीन हो जाना भर है.
सूरज को नदी से निकलते और उसमें उतरते सबने देखा है पर चाँद अपने ही पानी को चुपचाप गटकता आया है, सूरज जब पहाड़ों से अठखेलियाँ करता है तो चाँद का दिल भर आता है. लोग जब सूरज को सलाम करने उसके इंतज़ार में सौ खिड़कियाँ खोल तकते हैं....चाँद एकटक देखता है, भीतर से कटने लगता है और फ़िर बिन कुछ कहे विदाई लेना ही उचित समझता है.
#सूरज और चाँद 
- प्रीति 'अज्ञात' 

बुधवार, 28 नवंबर 2018

फ़ुरसतिया लोग

आप इन्हें चाहें कितने ही ऊँचे पदों पर बिठा दें लेकिन इनके दिमाग की सुई सीधा जाति पर ही पहुँच अटक जाती है और उसके बाद बहकी-बहकी बातों का धार्मिक मौसम शुरू होता है. हम फ़ुरसतिया लोग हैं और ऐसी चर्चाओं से ही अपना जीवन पूर्णतः सार्थक मानते हैं. मंदिर वहीं बनायेंगे, सबसे ऊँची मूर्ति लगायेंगे के मनोहारी, पावन और सद्भावना से ओतप्रोत नारों ने इस बार भी न केवल इस धरती को धन्य किया है बल्कि देशवासियों को भी उतना ही भावुक कर दिया है.....उतना ही भावुक कर दिया है, जितना कि वे कई वर्षों से अपनी मर्ज़ी से लगातार होते आ रहे हैं. इसमें चिंता जैसी कोई बात ही नहीं, दरअस्ल हम बड़े भावुकता और आहत पसंद लोग हैं. हमारे कोमल ह्रदय और संवेदनशील मन ने हमें यही सुघड़ भाव जागृत करने की टुच्च शिक्षा दी है. ओह, सॉरी उच्च पढ़िएगा. 
यूँ भी आम इंसान को और करना ही क्या है वो तो अपनी सुध-बुध भूल कल्लू दीवाने की तरह दिन रात इसी सोच में डूबा रहता है कि जब मंदिर बनेगा तभी उसकी नैया पार होगी. बिटिया का ब्याह होगा, बेटे की बेरोज़गारी दूर हो जायेगी, गाँव में बिजली आएगी, अपना घर होगा, जिसमें जगमग लट्टू जलेगा और घरवाली को दूर कुँए से पानी भरकर नहीं लाना पड़ेगा क्योंकि चौबीस घंटे नल से टनाटन पानी मिलेगा... उस पगले ने तो दूध की नदियों के ख़्वाब भी सँजो लिए हैं. कल ही मरघिल्ली गाय को बेच स्टील की पूरे पाँच लीटर की कैपेसिटी वाली टंकी खरीद लाया है. अब तो घर की ही बनी रबड़ी खायेगा जी. 
कुल मिलाकर सांध्य -आरती की पूरी तैयारियाँ हैं और रामराज्य की झीनी रौशनी में, गरमागरम बनती कुरकुरी जलेबियों की महक़ ने सबको एडवांस में ही दीवाना बना डाला है. इमरती बाई ने तब तक समोसे की मैदा गूँध, कड़ाही में पतंजलि का कच्ची धानी का शुद्ध सरसों तेल चढ़ा दिया है. बस, सिलबट्टे पे दरदरी पिसी हरे-धनिये मिर्च की चटपटी चटनी और मिल जाए तो जीवन सफ़ल है. किरपा की चेरापूँजी बरसात होगी. 
अरे हाँ, अदरक की चाय भी add कर ल्यो...उसके बिना तो जिनगी भौतई बरबाद है. 
इतना काफ़ी है न कि और भी कुछ चैये? 👿
- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

चाँद और बारिश

वो बात करता है तो जवाब में पक्षी चहचहाते हैं, हँसता है तो फूलों की सुगंध तेजी से पसरने लगती है, इश्क़ की दुआ करता है तो तितलियाँ उसके बालों से अठखेलियाँ कर खिलखिलाने लगती हैं. खुश होता है तो तारे थोड़ा और पास आकर बैठ जाते हैं लेकिन इस चाँद को जब भी देखती हूँ, बेहद अकेला और उदास पाती हूँ. मुझे लगता है कि जैसे वो इस बड़ी दुनिया में नदी के किनारे बैठे उस निराश प्रेमी की तरह है जिसके इश्क़ की कोई मंजिल नहीं और उसके फूटे नसीब में बुदबुदाता, निरर्थक एकालाप ही लिखा है.

लोग अपनी प्रेम कहानियां उससे बाँटते हैं, अपने महबूब का अक्स उसमें झांकते हैं, उसकी क़सम खाकर आहें भरते हैं पर ख़ुद चाँद के हिस्से में ही कोई महबूब नहीं! सदियों से सबकी मोहब्बत के साक्षी रहे इस चाँद के पाले में उसका चाँद कभी आया ही नहीं! सबके बीच भी वो कितना अकेला है. तमाम तारे उसे अपना कहते जरुर हैं पर दिल से मानते नहीं! कभी उसकी भरी आँखों में अपनी उमंगों की परछाई तक नहीं पड़ने देते. वो उस पल बेहद हारा हुआ महसूस करता है. दुःख अब उसके चेहरे पर झाइयाँ बन उभरने लगा है.
तभी तो कितनी मर्तबा वो भीतर-ही -भीतर ख़ुद को सिकोड़, डबडबाई पलकों से अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर चुपचाप बैठ जाता है. सुना है, उस रात फिर ख़ूब बारिश होती है. - प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 19 नवंबर 2018

#पुरुषदिवस

पुरुष होने के भी अपने फ़ायदे हैं. जब भी दिल करे आप जब चाहें, जहाँ चाहें, बे-रोकटोक आ-जा सकते हैं. आपके आने-जाने, सुरक्षा-संबंधी फ़िक्र करने और बेतुके प्रश्न पूछने वाला कोई नहीं होता. 
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ घर से निकलती नहीं पर उस समय भी उन्हें बहुत कुछ manage करके जाना पड़ता है और आने के बाद भी वही प्रक्रिया दोहरानी होती है. मसलन पति, बच्चे, सास-ससुर कोई भी बाहर जाए तो वही है जो सभी घरेलू कार्यों के साथ-साथ सबका खाना पैक करके देगी, हर वस्तु का ख्याल रखेगी और किसी मशीन की तरह धडाधड लगी रहेगी. दिक्कत यह है कि जब वो बाहर जाए तब भी उसे यही सब करके जाना होता है. वो कहीं भी चली जाए, बार-बार फ़ोन करके निश्चिन्त होना चाहती है कि उसके पीछे सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं! दुःख यह है कि घर में घुसते ही उसे पानी की पूछने वाला भी कोई नहीं होता, चाहे कितनी ही लम्बी/छोटी, थकान/परेशानी भरी यात्रा हो...घर में घुसते ही सब यूँ फरमाइशें करते हैं, गोया अभी पांच मिनट पहले ही बगीचे से टहल घर में घुसी हो!
कुछेक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कहीं कम; कहीं और भी ज्यादा पर कुल मिलाकर आम भारतीय स्त्री की यही कहानी है. पर मैं इसका दोष घरवालों से कहीं अधिक स्वयं स्त्रियों को ही देती हूँ क्योंकि -
* हमने ही अपने मन को इस चारदीवारी से इस क़दर बाँध रखा है और इस भरम में जीने लगे हैं कि हमारी अनुपस्थिति में ये सब असहाय हो जाते हैं. बेचारों को चाय भी बनानी नहीं आती, बाहर का खाने की आदत नहीं इत्यादि, इत्यादि. जबकि सब ख़ूब मस्त रहते हैं और हमारे घर में प्रवेश करते ही पुराने फॉर्म में लौट आते हैं.
*हमें अपने-आप पर आवश्यकता से अधिक गर्व है और अपने perfectionist होने का अहसास भी भरपूर हिलोरें मारता है. इसलिए हम यह भरोसा कर ही नहीं पाते कि हमारे बिना सब ठीक रहेगा.
*हमने इसे अपना कर्त्तव्य मानकर पूरी तरह ओढ़ लिया है, इतना कि अपने लिए जीना ही भूल चुके हैं. हमें त्याग और बलिदान की मूर्ति बनना ही भाता रहा है. फिर उसके बाद अपने दुखड़े रोना भी नहीं भूलते कि शादी न की होती तो मैं ये कर सकती थी, वो कर सकती थी. मज़ेदार बात ये है कि जिन सदस्यों को हम अड़चन समझ कोसते रहे हैं, उनके बिना न तो रह सकते हैं और न ही कहीं कोई ठौर है.
*हम बड़े डरपोक क़िस्म के जीव हैं और आजकल के हालातों में कहीं आने-जाने में हमारे ही पसीने छूट जाते हैं और हम पुरुष का साथ चाहते हैं. जबकि पुरुषों ने भी कोई मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग नहीं ली हुई होती है, न ही उनकी चमड़ी बुलेट प्रूफ है. गोली लगने या लूटपाट होने पर उनको भी वही दर्द होगा जिससे हम हाहाकार मचाते हैं. 'मर्द को दर्द नहीं होता' वाली कहावत कितनी ही हिट हो गई हो पर सच यह है कि 'मर्द को भी ख़ूब ज़बर दर्द होता है, बस इस डायलाग के बोझ तले दब वो बेचारा कह ही न पाया कभी! पर फिर ये क्या है कि उनका साथ हममें साहस भर देता है, सुरक्षित होने का अहसास कराता है? कहीं ये इश्क़ वाला लव तो नहीं!
जो भी है, स्त्री होना बहुत अच्छा भी लगता है और नहीं भी...ये सोच भी बड़ी situational चीज है. जब देखो, नेताओं की तरह पाला बदल लेती है.

वैसे कई फ़ायदों के बावजूद भी पुरुष होने की कई दिक्कतें हैं -
* बचपन से ही अच्छी नौकरी पाने की टेंशन वरना घरवालों को चिंता कि इस नाकारा से कौन ब्याह रचाएगा।
* नौकरी मिल गई तो सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने की जी-तोड़ कोशिश. यद्यपि यह हमेशा नाकाम ही होती पाई गई है.
* घर-परिवार, बॉस-नौकरी में सामंजस्य बिठाने की कोशिश उसे चकरघिन्नी बना डालती है. उस पर भी किसी-न-किसी का मुँह फूला हुआ मिलना तय है. 
*छुट्टियों की मारामारी से जूझता यह प्राणी अपने सारे शौक़ भूल चुका होता है और उसका पूरा जीवन घर-बच्चों को खुश करने में बीतता चला जाता है, हालांकि सब अंत तक असंतुष्ट ही बने रहते हैं.
*वो जो शादी से पहले एक गिलास पानी तक भी न लेता था, आज बोतलों में पानी भर फ्रिज़ में रखना सीख गया है.
*अपना जन्मदिन भले ही भूल जाए पर बाक़ी सबकी तिथियाँ रटनी पड़ती हैं उसे.
* कहाँ दस हजार में भी अकेले ठाट से रहता था अब लाखों भी जैसे नित कोई अज़गर निगल लेता है.
*कितनी भी थकान हो, pick & drop करने की ड्यूटी तो उसी की लकीरों में रच दी गई है.
*उसके जीने का एकमात्र उद्देश्य अपने परिवार का भरण-पोषण है और उसके बाद के लिए भी वह जुटाकर रखने की लाख कोशिशें करता है.
*और हाँ, इन्हें भी मशीन समझा जाता है. कौन सी? ATM ...
हाय ख़र्चा कर-करके हम लोग इनका जीना मुहाल कर देते हैं.

पर चूँकि प्रथा है तो 'पुरुष दिवस' मुबारक़ हो! 🤣- प्रीति 'अज्ञात'
#Repost #पुरुषदिवस

बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने?

उन दिनों अच्छे स्कूलों का एक ही मतलब  हुआ करता था....न्यूनतम छुट्टियाँ, जमकर पढ़ाई और जबरदस्त अनुशासन (+ कुटाई किसी inbuilt app की तरह). आजकल की तरह नहीं कि जितनी अधिक फ़ीस, उतना बढ़िया स्कूल! और हाँ, ये कुटाई भी आवश्यकता पड़ने पर पर्याप्त समय लेकर पूरी तसल्ली से ऐसे की जाती थी कि क़ब्र में उतरते समय तक के लिए उसका कलर्ड नक़्शा बालक के ज़हन में छप जाए! मज़ेदार (ही,ही अब लग रही) बात ये थी कि बच्चों को अपने लक्षणों और बदलते मौसम को देख पहले से ही ज्ञात होता था कि आज किसका खेला जोरदार होगा!
 
बड़े सर के आते ही वातावरण में गंभीर हवाएँ चलने लगती थीं. उड़े हुए चेहरों को देख किसी नए उत्सुक बच्चे को उनके बारे में मुँह पर हाथ रख जानकारी कुछ यूँ दी जाती थी कि जैसे कोई कह रहा हो, "मुख्तार सिंह का नाम सुना है तुमने? उसके नाम से शहर की पुलिस भी काँपती है और पब्लिक भी." या फिर वही गब्बरी आवाज़ गूँजती थी, "यहाँ से पचास-पचास कोस दूर......" कुल मिलाकर स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में नज़र आती थी. यद्यपि एक करारे थप्पड़ की मासूम ध्वनि के पश्चात बुहहाआआ, बुहहाआआ की दर्दीली चीत्कार इसी नीरवता को पल भर में तहस-नहस कर कक्षा का इतिहास और भूगोल एक साथ बदल देती थी. उन बच्चों में से दस प्रतिशत के भविष्य का ख़ाक़ा तो बस एक थप्पड़ ही तत्काल खींच देता था लेकिन शेष नब्बे प्रतिशत के लिए यह क्रम किसी धारावाहिक (डेली सोप) की तरह चला करता था, जहाँ बीस-पच्चीस एपिसोड तक तो स्टोरी लाइन आगे बढ़ती ही नहीं थी लेकिन हर एपिसोड के अंतिम दृश्य में सबका मुँह खुला का खुला रह जाता था. क्या?क्या?क्या? (आज फिर पिटा?) की साइलेंट ध्वनि के साथ.

मुख़्तार सिंह के जाने के बाद किसी परंपरागत रस्म की तरह बाक़ी बच्चे उस कुटे-पिटे बच्चे को पुचकारते हुए, अपनी दर्दभरी कहानियाँ जमकर साझा करते कि उसका ग़म कुछ हल्क़ा हो सके. भाईचारे और वातावरण को सौहार्द्रपूर्ण बनाये रखने में क्षणिक एकता बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी. प्रायः ये घटनायें भीतर-ही- भीतर दबा ली जातीं थीं और घरों तक इस प्रकार के ऐतिहासिक किस्से तब ही पहुँचते थे जबकि उनके साक्ष्य लाख बार धो लेने के बाद भी चेहरे पर टिके रहते या फिर अंक सूची में से अंक नदारद होते और बस सूजे मुँह के साथ सन्नाटा लिए ख़ाली 'सूची' ही घर पहुँचती.
इधर माँ सूजी का हलवा लिए इंतज़ार कर रही होती थी. परीक्षा परिणाम हाथ में आते ही वो हलवे में काजू-बादाम-किशमिश का गद्दा बनाना भूल जातीं. बेचारा बच्चा उस दिन चुपचाप ही बिना मेवे वाला हलवा गटक अपना गुजारा कर लेता.  
- प्रीति 'अज्ञात'
#बाल_दिवस पे बड़े हो गए बच्चों को और क्या याद आएगा!
#बाल_दिवस 

बच्चों की मासूमियत और भोलेपन का उड़ता रंग

परिवर्तन के इस दौर में विकास की चाल यदि कहीं द्रुतगति से चलती नज़र आती है तो वह है 'बचपन'। समय और सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए बच्चों की मासूमियत और भोलेपन का चटख़ रंग कबका उड़ चुका है। आज जिसे हम 'समय के साथ चलना' कहकर धीरज धर लेते हैं, वास्तविकता में वह समय को फ़र्लांगकर ली गई मजबूर उड़ान ही है। अब बचपन की बात करते ही वो सुनहरा चित्र कहीं नहीं खिंचता जिसमें रंग-बिरंगे गुब्बारे और उसमें भरी तमाम खुशियाँ घर-बार को रौशन कर उनमें जीवन भर दिया करतीं थीं। 'बाल-दिवस' स्कूल में बंटती मिठाईयों को खा लेने या जमकर मस्ती और खिलंदड़ी करने का नाम भर ही नहीं था अपितु यह उस बचपन को जी भरकर जी लेने का एक अतिरिक्त और विशेष दिन हुआ करता था। हाईस्कूल तक न भी सही पर आठवीं कक्षा तक तो हर घर में बचपन यूँ ही गुलाटियाँ मार आँखों में तमाम खुशियाँ भर इतराता फिरता था। लेकिन आज जब हम इस बचपन का चेहरा टटोलते हैं तो बमुश्क़िल इक्का-दुक्का जगह ही इसकी मुस्कान उपस्थित दिखाई देती है अन्यथा यह तो निर्धारित समय से पूर्व ही अपने स्थान से हटकर कभी भय, कभी समझदारी और कभी तनाव के स्टेशन पर पैर टिकाए बड़ा होने की राह जोहता नज़र आता है। वही यक्ष प्रश्न फिर उठ खड़ा होता है...आख़िर दोष किसका है? पर दोषी का नाम लेने से बेहतर यही होगा कि हम कारणों पर विचार कर इस समस्या के समाधान की ओर प्रयास करें।

हमारी शिक्षा-प्रणाली ने बच्चों को 'सक्सेस' का ही पाठ पढ़ाया है। 'टॉप' किया तो सही और 'फ़ेल' हुए तो समाज में रहने लायक नहीं! नियम यह है कि बनना चाहे कुछ भी हो, पर हर विषय में अच्छे अंकों से पास होना बेहद जरुरी है। चूँकि विद्यालयों / विश्वविद्यालयों में प्रवेश का मापदंड भी यही है इसलिए व्यावहारिक योग्यता से कहीं अधिक प्रतिशत मायने रखते हैं। उस पर माता-पिता का 'हॉबी-क्लास' के लिए बच्चों को पूरे शहर में दौड़ाना उनके ज़ख्मों पर नमक मल देता है। इन मासूमों के पास समय ही नहीं बचता कि वे कुछ पल अपने लिए संभाल सकें। होमवर्क, प्रोजेक्ट, सबमिशन, मासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक और अभ्यास परीक्षाओं की लम्बी सूची के साथ दुनिया भर की एक्टिविटीज और अन्य प्रतियोगिताएँ इन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से इस हद तक थका देती हैं कि फिर वे टोकाटाकी और रोज की वही घिसीपिटी सलाहों से भागकर एकांत की ओर बढ़ने लगते हैं। इधर माता-पिता, समाज और बच्चे के भविष्य को लेकर कुंठित होने लगते हैं और 'न जाने, इसके भविष्य का क्या होगा?' जैसा गंभीर प्रश्न उनके चेहरे पर असमय झुर्रियों के रूप में उभरने लगता है। 

दरअस्ल हम लोग दिखावे की मानसिकता के गुलाम बन चुके हैं. वो देश जो अभी भी गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है वहाँ दूसरे से स्वयं को बेहतर प्रदर्शित करने की होड़ ने कई प्रकार की कुंठाओं और अपराधों को जन्म दिया है। कहीं यौन शोषण से जूझते बच्चे रोज घुट रहे हैं तो कहीं ये अपराधी के रूप में जघन्य अपराध को अंज़ाम दे रहे हैं। हैरानगी की बात है कि रेप और हत्या जैसे जुर्म के हत्यारों को उम्र के आधार पर नाबालिग़ क़रार कर दिया जाता है जबकि इनके कृत्यों की उम्र वयस्कों से कहीं ज्यादा वीभत्स हुआ करती है। डर है कि इस उदारता को देखते हुए अपराध की न्यायिक उम्र कहीं किशोरावस्था ही न समझ ली जाए, जहाँ अपराध तो संभव है पर सज़ा की कोई गुंजाइश नहीं। कमाल है, वे बच्चे तो परिपक्व हो चुके पर उनकी मासूमियत अब न्यायपालिका की सोच में पाई जाती है। 

टीवी चैनल पर बच्चों को उनके पढ़ने, खेलने की उम्र में उस स्टारडम का पाठ पढ़ाया जा रहा है जिसको बड़े-बड़े स्टार भी संभाल नहीं सके। ये बच्चे माता-पिता के स्वप्नों को पूरा कर अपना वर्तमान खो रहे हैं या कि इस वर्तमान की चकाचौंध से प्रभावित हो अपना भविष्य धुंधलाने में लगे हैं यह भी स्पष्ट नहीं। पर क्या इनके नाज़ुक कंधे इस व्यवसाय से जुड़े तनाव और अपेक्षाओं के भार को उठा पाने में समर्थ होते हैं? जब हम 'बाल-श्रमिकों' को (जो कि अपने परिवार का पेट भरते हैं) अपराध मानते हैं तो फिर ये बच्चे 'सेलेब्रिटी' की श्रेणी में कैसे आते हैं? इस विषय पर तमाम सामाजिक संगठनों की आँखें क्यों नहीं खुलतीं?

दुःख इस बात का है कि माता-पिता की व्यस्तता, कार्यभार का खामियाज़ा ये मासूम भुगतते हैं। बच्चों को हम भौतिक सुख-सुविधाएँ न दे सकें चलेगा, पर उन्हें उनके हिस्से का स्नेह, बचपन की मासूमियत और स्वतंत्रता तो देनी ही होगी। साथ ही यह विश्वास भी कि हम हर हाल में उनके साथ है। हमारा प्रेम उनके पास या फेल होने की शर्तों पर नहीं टिका हुआ है। सबसे जरुरी कि हम उनके सपनों को जीवित रखें और उन्हें पूरा करने के लिए अपना समय और बेशर्त प्रेम दें जिसके कि वे जन्म से ही हक़दार हैं।
- प्रीति अज्ञात
'हस्ताक्षर' नवम्बर 2017 में प्रकाशित (सम्पादकीय)
http://hastaksher.com/rachna.php?id=1136
#हस्ताक्षर #बाल_दिवस

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018

#करवा चौथ

आज सुबह ही तेजस ने पूछा था कि "दीदी, करवा चौथ पर कुछ क्यों नहीं लिखा?" और शायद मेरे व्रत सम्बन्धी जवाब को सुनकर उन्हें और भी ताज्जुब हुआ. किचन में काम करते-करते उनसे msg पर बात हो रही थी और मैनें लिख दिया था कि "हमारे यहाँ ये नहीं होता". लेकिन उसके बाद मैनें विचार किया कि ये तो कोई कारण ही नहीं! क्योंकि बहुत से ऐसे पर्व हैं जो हमारे घरों में नहीं मनाये जाते पर हम ख़ूब उल्लास से उचक-उचककर उन्हें मनाते आये हैं. कई ऐसे भी हैं जो कि सब पूरे उत्साह से मनाते हैं (होली टाइप) और मैं उस समय विलुप्त हो जाना पसंद करती हूँ. निष्कर्ष ये कि भैया, हमाये यहाँ तुमाये यहाँ जैसा कुछ नहीं होता.....पूरा खेल मन का है!

यूँ बहुत बार ऐसा होता है कि घर के, बगीचे के या कहीं और व्यस्तता भरे काम में सारा दिन निकल जाता है और पेट में अन्न का एक दाना पहुंचाने का भी समय नहीं मिलता. वो अलग बात है कि बाद में फिर थाल भर भोजन लेके असुरों की तरह हम उस पर टूट पड़ते हैं साथ में एक केतली चाय गटक जाते, सो अलग! लेकिन जहाँ व्रत की बात आई ...हम स्वयं को तुरंत शर्मिंदा कर लेना ही उचित समझते हैं. मतलब 5.30 पर उठने के बाद भी रोज 9 बजे के आसपास ही अपन अन्न-जल ग्रहण कर पाते हैं लेकिन जो व्रत की सोच ली..ओ हो हो! फिर तो केस हाथ से गया ही समझो. क़सम से, आँख खुलते से ही पूरे पाचन तंत्र में जैसे त्राहिमाम मचने लगता है. आहार नलिका किसी सूखे रेगिस्तान की तरह स्थान-स्थान पर चटकने लगती है आंतें सिकुड़कर भीतरी दीवारों से कुछ यूँ चिपक जाती हैं कि जैसे आज ही वे इस तंत्र को सदैव के लिए अलविदा कह देंगीं, आमाशय स्वयं को अकालग्रस्त क्षेत्र घोषित कर देता है, समस्त एंजाइम एक सुघड़ राजनीतिज्ञ की तरह आरोप-प्रत्यारोप का खेल  खेलने में मस्त हो जाते हैं और ये सभी मिलकर जो संगठित संदेसा मस्तिष्क के चौथे प्रकोष्ठ को भिजवाते हैं उसका सीधा तात्पर्य यही है कि "बेटा, तू तो रहन ही दे!" वरना आँख खुलते से ही हमारी आँखों के सामने अँधेरा यूँ न छाता!
क्या करें! भौत मुश्किल है. एक तो भगवान ने ही हमें थोड़ा कम interest लेकर बनाया है उस पर कुछ गुण हमने स्वयं विकसित कर लिए. फलस्वरूप न तो सजने संवरने में कभी दिलचस्पी रही और न ही बहुत ज्यादा शौक़ है कोई. जैसे हैं सो हैं. अब हमारा कुछ नहीं हो सकता जी! हम अपनी तरह के एक ही पौधे हैं जो अभी तक पूरा उगा ही नहीं!

जहाँ तक 'करवा चौथ' का किस्सा है तो मेरा मानना है कि इसे जन-जन तक पहुँचाने और लोकप्रिय बनाने में बॉलीवुड का अमूल्य योगदान रहा है. यहाँ "छनन छन चूड़ियाँ खनक गईं देख बालमा, चूड़ियाँ खनक गईं हाथ मां" जैसे सुमधुर गीत नारी शृंगार की बात करते हैं तो पूरी तरह से करवा चौथ को समर्पित 'चांद छिपा बादल में' (हम दिल दे चुके सनम) , 'लैजा लैजा' (कभी खुशी कभी गम) ने कुंवारी लड़कियों को भी भविष्य में इसके लिए प्रोत्साहित किया. वो जो इस त्यौहार के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे, उन्हें 'सरगी' की पूरी व्याख्या भी पता चल गई.
अब हम भले ही डिफेक्टिव पीस निकल गए पर एक बात है कि हमें व्रत, पूजा-पाठ करती और खूब सजी-धजी स्त्रियाँ बेहद प्यारी लगती हैं. त्योहारों में इनमें एक अलग ही नज़ाकत और शर्मीलापन-सा भर जाता है. पति के छेड़ने पर जब ये मुस्कुराते हुए "चलो, हटो" कहती हैं तो उस समय उनकी ये अदा देखते ही बनती है. आस्था-विश्वास से भरे इन प्यारे चेहरों और इनके मेहंदी भरे हाथ देखना बेहद अच्छा लगता है. इसलिए मैं तर्क-वितर्क में नहीं पड़ती. यदि कोई ख़ुश है तो इस ख़ुशी पर उसका पूरा अधिकार है. यही वे लोग हैं जो भारतीय संस्कृति की सबसे ख़ूबसूरत तस्वीर के रूप में उभरते हैं. मुझे ऐसे सभी लोग बहुत अच्छे लगते हैं और इनकी नज़र उतारने को जी चाहता है. ईश्वर आप सबको ख़ूब प्रसन्न रखे.
- प्रीति 'अज्ञात'
#करवा चौथ #स्त्रियाँ #व्रत 

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

यूँ ही...

ये जीवन भी बड़ी अजीब सी स्थिति में बनाये रखता है जब मन अच्छा हो और दिल ख़ुश तो सब कुछ बेहद आसान, सरल, सुंदर दिखाई देता है लेकिन जब मूड के ठीक 12 बजे हों तो इससे अधिक जटिल, दुरूह और बदसूरत कुछ नहीं दिखाई देता! कुल मिलाकर हमारी यह धारणा उस आधार पर बनती है जो हम प्रतिदिन देख सुन रहे हैं या जो हम पर ही सीधा बीत रहा है. आज यदि हर तरफ नकारात्मक वातावरण , दुःख और परेशानी दिखाई दे रही है तो इसका यह मतलब क़तई नहीं कि दुनिया में कहीं कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा! ख़ूब हो रहा है, लोग अपनी दुनिया में छमाछम, मस्त नाच गा रहे हैं. उन्हें न ढोंगी टीवी में दिलचस्पी है, न अख़बार में. सोशल मीडिया से कोसों दूर रहने वाले इन लोगों की ज़िंदगी आम 'जागरूक' लोगों से बेहतर और कहीं अधिक चैन की कट रही है. 😌
फिर भैया! सच तो जस का तस होता है सो सकारात्मक घटनाओं में चटपटा वाला तड़का नहीं डल पाता इसलिए वे उतनी बिकती ही नहीं! तभी तो पिंक पेंट वाला लड़का, दुबई वाली लड़की, बिग बॉस में श्रीसंत की हरक़तें और आधी रात को भटकते भूत की ख़बरें सारी भीड़ बटोर लेती हैं 😈. बेचारी अच्छाई हमेशा प्रतीक्षा सूची में अंतिम पायदान पर नज़र आती है. अच्छे लोगों की भी कोई क़दर ना रही! 😥

अरे हाँ! ल्यो अच्छाई से याद आया कि चाहे कुछ भी हो पर 'रामायण' ने यह सिद्धांत तो प्रतिपादित कर ही दिया था कि बड़बोले और घमंडी इंसान का सर्वनाश सुनिश्चित है. रावण दहन उसी का ही प्रतीक है. फिर काहे कुछ लोग अपनी बेमतलब की ठसक में मरे जाते हैं जी? 😮
वे जो मर्यादा पुरुषोत्तम से मर्यादा में रहना ही नहीं सीख सके वे उनके भक्त नहीं कछु औरई हेंगे. 😤
रावण दहन से क्या होगा जी?
राम को भी तो जीवित रखना होगा!
इश्श! चुनाव में नहीं रे...ह्रदय में पगलू! 😍
सियावर रामचंद्र की जय! पवनसुत हनुमान की जय!
'चला जा रहा था मैं डरता हुआ....' उफ़्फ़! हाय राम! ये काहे याद आ गया! 😳😎😜
- प्रीति 'अज्ञात'
#विजयादशमी #दशहरा 

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

#MeToo श्श! किसी को बताना मत!

कुछ भी कहने के पहले मैं उन सभी स्त्री-पुरुषों को सलाम करती हूँ जो इस विषय पर बेझिझक साथ खड़े हैं.
#MeToo Campaign के समर्थन में स्त्रियों का होना स्वाभाविक है क्योंकि यही वह वर्ग है जिसने यौन शोषण की गहन पीड़ा उम्र के हर दौर में झेली है और नियम यह था कि 'मौन' रहना होगा! ये जो चुप्पी है न, ये कभी सिखाई नहीं जाती! दरअसल बचपन से ही स्त्री के इर्दगिर्द एक ऐसा वातावरण बना दिया जाता है या यूँ कहिये कि हम उसमें ही जन्म लेते हैं जहाँ देह को इज़्ज़त/मान-सम्मान से जोड़ दिया गया है और फिर इसको तार-तार करने वाला चाहे कोई भी हो, पर इज्ज़त तो ज़नाब 'स्त्री' की ही जाती है. चाहे घर के भीतर किसी रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र ने भी उसके साथ गलत व्यवहार किया है; पर परिवार की नाक सलामत रहती है लेकिन यह उसी वक़्त कटी घोषित कर दी जाती है ग़र यह बात घर से बाहर चली जाए! चूँकि बेटी तो घर की लाज होती है तो यह किस्सा घर में ही दबा दिया जाता है. इसे बहुधा संस्कार, प्रतिष्ठा और अनुशासन के भारी लेबल के साथ सलीक़े से इस तरह स्थापित किया जाता है कि बदनामी, अपनों को खो देने का भय, उनकी चिंता, परिवार का सम्मान, कौन शादी करेगा? जैसे प्रश्नों की विभिन्न परतें उसके अस्तित्त्व पर लिपटती चली जाती हैं.  

"किसी को बताना मत!" की सलाह के साथ कर्त्तव्य निभा लिया जाता है पर कोई एक पल भी नहीं सोचता कि उम्र भर उस घिनौने इंसान को अपनी आँखों के सामने कुटिलता से मुस्कुराते देख वो रोज कितनी दफ़ा टूटती होगी! भयभीत हो सिहर जाती होगी! ख़ुद को कमरे में बंद कर घंटों अकेले रहती होगी! उस लिजलिजे, घृणित स्पर्श को याद कर चीत्कार मार रातों को उठ-उठ बिलखती होगी! शायद उस घटना से कई और बार भी गुज़रती होगी! पर स्त्री है, इसलिए चुप रहना होगा!

यदि उसने एक अच्छा और सुखी बचपन जिया है तब भी वह स्वयं को एक सभ्य समाज में रहने लायक़ बनाने के लिए इन सारी बातों को उम्र-भर गाँठ बाँधे रखती रही है.
तभी तो घर से बाहर जाते समय बीच राह कोई उसे टोकता, छूता, सीटी मारकर गंदे शब्द कहता...वह आँखें नीची कर चुपचाप निकल जाती. बोलने का मतलब, तमाशा और फिर घर की नाक का सवाल जो ठहरा. घर, ऑफिस, बस, ट्रेन, लम्बी लाइन, धार्मिक स्थल, शादी-ब्याह, पारिवारिक कार्यक्रम....हर परिचित/अपरिचित स्थान पर ऐसा होना और बर्दाश्त करना उसने अपनी नियति मान लिया. 

मैं यह पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ कि हर स्त्री ने कम/ज्यादा ही सही पर अपने जीवन में शारीरिक शोषण कभी-न-कभी न अवश्य ही झेला होगा! याद कीजिये बस/ट्रेन में वो अचानक से किसी कोहनी का स्पर्श, जाँघों पर हाथ या लाइन में किसी का सटकर खड़ा होना...पलटकर देखने पर वही गन्दी निग़ाह और भद्दे इशारे....और हमारा भीतर ही भीतर गड़ जाना!

हमारी पीढ़ियाँ एक-दूसरे को चुप रहना सिखाती रहीं. उनकी सिसकियाँ घर की खोखली चारदीवारी के भीतर ही सम्मानित होती रहीं. स्त्रियाँ हर बात पर झट से यूँ ही नहीं रो देती हैं, ये कुछ दफ़न किये हुए किस्सों से उपजी गहन पीड़ा का वो भरा समुन्दर है जो जरा सी दरार देख बह उठता है. 

लानत है उन लोगों पर जो हाल के घटनाक्रम से बौखलाए हुए ऊलजलूल कहे जा रहे हैं. जिन्हें स्त्री के अब बोलने से इसलिए आपत्ति है कि वो 'तब' क्यों नहीं बोली? जिन्हें सबूत की दरक़ार है, वे ये सवाल कभी अपने घर की स्त्रियों से करकर देखें! उनकी आँखों की नमी और आवाज़ की कंपकंपाहट आपके नीचे की ज़मीन खिसका देगी. 
वो जिन्हें लगता है कि स्त्री उनकी बदौलत आगे बढ़ी और अब उसकी जुबां निकल आई है तो वे भी जान लें कि किसी की मदद कर देने से वे उसके शरीर के अधिकारी नहीं हो जाते. इनका एक गलत स्पर्श उस इंसान का जीवन तबाह कर देता है.
देह के परे एक इंसान भी है उसमें कहीं, उसका सम्मान करना सीखिए. 

आशंका है कि अब कोई नया भीषण मुद्दा योजनाओं की कड़ाही में खलबलाया जा रहा होगा जिसे जल्द ही सबके सामने परोस इस मुद्दे का मुँह शीघ्र ही बंद कर दिया जाएगा क्योंकि यदि इसके दोषियों को सज़ा मिलने लगी तो देश की जेलें कम पड़ जायेंगी.
सज़ा!! मैं भी क्या सोच रही हूँ!

ध्यान से अपने आसपास देखिये कि हर बात पर गालीगलौज पर उतर आने वाले नेताओं/प्रवक्ताओं की बोलती इस विषय पर कैसे बंद है? वे पत्रकार/ साहित्यकार जो जरा-जरा सी बात में क्रांति का उद्घोष कर रणक्षेत्र में कूद पड़ते हैं, इस समय मैदान छोड़ क्यों भाग खड़े हुए हैं?
बड़े-बड़े नामों के गले में ये कौन-सी हड्डी फंसी हुई है जिससे उनसे न बोलते बन रहा है न उगलते?
- प्रीति 'अज्ञात'
#MeToo  #iChowk
आप इसे यहाँ भी पढ़ सकते हैं -
https://www.ichowk.in/society/metoo-has-given-strength-to-women-to-speak-against-harassment-they-faced/story/1/12739.html

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2018

इस 'एंग्री यंग मेन' ने हँसाया भी ख़ूब है!


सदी के महानायक, बॉलीवुड के शहंशाह और सभी सिनेप्रेमियों के आदर्श एंग्री यंग मेन, अमिताभ बच्चन के व्यक्तित्त्व में इतने चमकदार पहलू हैं कि एक साथ उनकी चर्चा कर पाना संभव ही नहीं! यह तो हम सभी जानते हैं कि चाहे जंजीर, शोले, दीवार, कालिया, मर्द, डॉन, शहंशाह जैसी फिल्मों का एक्शन हीरो हो; या कि सिलसिला, कभी-कभी, मुक़द्दर का सिकंदर के गंभीर प्रेमी की भूमिका; आनंद का संज़ीदा बाबू मोशाय, माँ और परिवार के लिए मर मिटने वाला खुद्दार इंसान हो या फिर लीक से हटकर अक्स, मैं आज़ाद हूँ, अग्निपथ, पीकू, सरकार, 102 नॉट आउट, पिंक, चीनी कम जैसी फ़िल्मों को अपनी शानदार अभिव्यक्ति से यादगार बना देने वाला कलाकार; अमिताभ हर रंग में खरे उतरे हैं. बात इनकी कॉमिक टाइमिंग की हो या भावुक संवेदनशील दृश्यों की; ये अपने हर चरित्र में भीतर तक जान फूँक देते हैं. अमिताभ संभवतः वह अकेले कलाकार होंगे जिसकी प्रशंसक एक ही घर की तीनों पीढ़ियाँ हैं. मात्र फ़िल्में ही नहीं बल्कि टीवी और विज्ञापनों की दुनिया में भी वे नंबर वन हैं.
हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं पर अमित जी की ऐसी पकड़ है कि अच्छे-अच्छे भी उनके सामने पानी भरते नज़र आते हैं. मेहनत, लगन और अनुशासन से अपने जीवन को कैसे सफ़ल और सार्थक बनाया जा सकता है, यह बात कोई अमिताभ से सीखे!

बॉलीवुड के इस चहेते 'एंग्री यंग मेन' ने अपनी कॉमेडी फिल्मों के माध्यम से भी न केवल बॉक्स-ऑफिस पर ही धूम मचाई बल्कि अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन कर ख़ूब वाहवाही भी लूटी है. कुछ दृश्य तो इतने गहरे उतर चुके हैं कि 30-40 वर्षों बाद भी किसी चलचित्र की भांति चलते हैं. इनका एक-एक डायलॉग आज भी लोगों को जुबानी याद है.

'सत्ते पे सत्ता' में तरबूज के जमीन पर गिरकर फटने के साथ ही अमिताभ के दिल के बिखरने वाला दृश्य हो, हेमा मालिनी को कैलेंडर के हिसाब से फ़ेमिली का  परिचय कराने वाला या फिर बुक्का फाड़कर यह गाना 'प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया'...इस फ़िल्म का हर एक दृश्य और गीत यादगार बन गया था. 
उन दिनों हर बच्चा 'चैन खुली की मैन खुली की चैन' कहकर अपनी 
लड़ाई का उद्घोष करता था. 
इसी फ़िल्म में जब अमिताभ (रवि); अमज़द खान के सामने 'दारु पीता नहीं अपुन, मालूम है क्यूँ? शराब पीने से लीवर ख़राब हो जाता है. इधर (ज्ञान बांटते हुए लीवर की पोजीशन दिखाते हैं). उस दिन क्या अपुन एक दोस्त की शादी में गया था'....इस संवाद को दसियों बार कुछ इस अंदाज़ में दोहराते हैं कि हर बार दर्शक और जोरों से ताली पीटने पर मज़बूर हो गया था.

'नमक हलाल' भी ऐसी कई मजेदार दृश्यों की साक्षी रही है. एक तो वो जब वे अर्जुन सिंह के चरित्र में अपने मालिक शशिकपूर की चाय में मक्खी गिरने से बचाते हैं (यहाँ वे दरअसल उनके होटल को धोखेबाजों के हाथों बिकने से बचाना चाहते हैं). और दूसरा ये जिसने सबको अंग्रेज़ी में बात करने का कॉन्फिडेंस (ओवर ही सही) दिया. याद कीजिये, "अरे, बाबूजी ऐसी इंग्लिस आवे है देट आई कैन लीव अंग्रेज़ बिहाइंड. यू शी सर, आई कैन टॉक इंग्लिश, आई कैन वॉक इंग्लिश, आई कैन लाफ इंग्लिश बिकॉज इंग्लिश इज ए वेरी फनी लैंग्वेज. भैरों बिकम्स बैरो बिकॉज देयर माइंड्स आर वेरी नैरो. इन द ईयर 1929 सर व्हेन इण्डिया वाज़ प्लेयिंग अगेंस्ट ऑस्ट्रेलिया इन मेलबोर्न सिटी....." उसके बाद उन्होंने जो कमेन्ट्री सुनाई है उसने लोगों को हँसा- हँसाकर पागल कर दिया था. बात यहीं नहीं रुकी, उसके बाद वे पूरी मासूमियत से रंजीत से पूछते भी हैं कि "मेरे इस सामान्य ज्ञान पर आप कुछ विशेष टिप्पणी करेंगे?"

शोले में यद्यपि उनकी भूमिका गंभीरता ओढ़े हुए थी लेकिन जब वे बसन्ती की नॉन-स्टॉप बकबक के साथ उसके ये कहने पर कि "यूँ कि आपने हमारा नाम तो पूछा ही नहीं!"...बड़ी सादगी और शांत भाव की मुद्रा अपनाते हुए जब उससे पूछते हैं " तुम्हारा नाम क्या है, बसन्ती?" या फिर बसन्ती के लिए वीरू का रिश्ता जब मौसी के पास लेकर जाते हैं और पूरा सत्यानाश करने के बाद भोलेपन से कहते हैं "क्‍या करूं, मेरा तो दिल ही कुछ ऐसा है, मौसी!" तो दर्शक यकायक खिलखिला उठते हैं. उस पर वीरू का टंकी पर चढ़ चक्की पीसिंग एंड पीसिंग का ड्रामा चलता है तो वे आराम से टाँगें फैलाकर बैठे रहते हैं और बड़ी अदा से कहते हैं, "घड़ी-घड़ी ड्रामा करता है, नौटंकी साला!" दर्शक उसी पल इनके दीवाने हो गए थे.

'खुद्दार' में अपने भाई का ड्रामा देखने जाते हैं वहाँ उनका अपनी टाँगों को एडजस्ट करना और फिर अंग्रेजी न समझने के कारण दूसरों के  हिसाब से हँसना, इतना ही नहीं भाई को पिटते देख स्टेज पर चढ़ सब मटियामेट कर डालना भी क्लासिक बन पड़ा है. इसमें उन्होंने अपनी 
टैक्सी के साथ भी बहुत गुदगुदाते दृश्य दिए हैं.

'जलवा' में अतिथि भूमिका में होते हुए भी अपना जलवा दिखा गए थे. याद है न जब सतीश कौशिक जी गप्प हाँकते हैं कि वो अमिताभ बच्चन को जानते हैं, उसी समय उनका पीछे से आकर वो ज़बरदस्त अभिनय करना!
बड़े मियां छोटे मियां में गोविंदा के साथ तो ऐसी शानदार ट्युनिंग  बैठी कि दोनों ने डबल रोल में ऐसा डबल धमाल किया कि दर्शक भी हँस-हँस दोहरे हो गए. "डाकू मोहरसिंह को किसने पकड़ा?" और माधुरी दीक्षित से ब्याह रचाने का ख्व़ाब जोरदार बन गया था.

चुपके-चुपके में जया जी को बॉटनी पढ़ाते हुए जब वे उदाहरण सहित व्याख्या करते हैं कि "गोभी का फूल, फूल होकर भी फूल नहीं, सब्‍जी है। इसी तरह गेंदे का फूल, फूल होकर भी फूल नहीं है." कोरोला और करेला को मिलाकर उन्होंने जो स्वाद बनाया था, उसके चटखारे आज तक लिए जाते हैं.

कहीं मूँछों का ज़िक्र हो और शराबी में मुकरी साब के साथ अमिताभ के इस संवाद की बात न हो, यह तो हो ही नहीं सकता! "भाई मूँछे हों तो नत्थूलाल जी जैसी हों वरना न हों. बड़प्पन उसका, जिसकी मूँछें बड़ी हों! हमारा तो कोई पन नहीं, देखिये सफाचट"
इसी फिल्म में जब अपने चमचों के साथ विकी (अमिताभ) घटिया शायरी "जिगर का दर्द ऊपर से कहीं मालूम होता है, जिगर का दर्द ऊपर से नहीं मालूम होता है" सुना रहा होता है तो उसी समय उसे मुंशी जी (ओमप्रकाश) से जो लताड़ पड़ती है उसका असर आज भी कई आशिक़ों की अधूरी ग़ज़लों में नज़र आता है. बेबस और जबरन बने शायर आज भी अमित की इस बात से जूझते हैं कि "बस यही तो बात है मुंशी जी, ये कमबख्त वज़न कहाँ से लायें? रदीफ़ पकड़ते हैं तो काफ़िया तंग पड़ जाता है, काफ़िये को ढील देते हैं, वज़न गिर पड़ता है, ये वज़न मिलता कहाँ है?"

कुली में मूर्ति बनकर रति अग्निहोत्री के सामने खड़े होना और फिर "लो हम जिंदा हो गए" कहते हुए छाता उछाल कूद पड़ना तथा योग और आमलेट की मिक्सिंग का दृश्य भी कम लुभावना नहीं था. 
 'याराना' का "कच्चा पापड़, पक्का पापड़" आज भी tongue twister के उदाहरण में पेश किया जाता है.

अब आपकी आँखों में भी न जाने कितने नाम तैर रहे होंगे जो इस सूची में आने से रह गए. बॉम्बे टू गोवा, मि. नटवरलाल, नसीब, दोस्ताना, कभी ख़ुशी कभी ग़म, मोहब्बतें, कभी अलविदा न कहना, खून पसीना, परवरिश, हेराफ़ेरी....ये लिस्ट थमेगी नहीं!

"एइसा तो आदमी लाइफ में दोइच टाइम भागता है, ओलंपिक का रेस हो या पुलिस का केस हो" (अमर अकबर एंथोनी)
आपकी कर्मठता यूँ ही बनी रहे और प्रेरणा देती रहे.
जन्मदिवस की अनंत शुभकामनाएँ अमित जी!
- प्रीति 'अज्ञात'
#KBC #अमिताभ बच्चन #ज्ञान का दसवाँ अध्याय #कौन_बनेगा_करोड़पति # जन्मदिवस_11_अक्टूबर #BIG_B #ichowk

इसे आप इंडिया टुडे ग्रुप के ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म, ichowk पर भी पढ़ सकते हैं -
https://www.ichowk.in/cinema/celebrating-amitabh-bachchan-birthday-remembering-his-iconic-comedy-roles/story/1/12716.html

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

#सत्य घटनाओं पर आधारित #KBC

सत्य घटनाओं पर आधारित 

टाटा स्काई ने सोनी पिक्चर्स और टीवी टुडे नेटवर्क के सभी चैनलों को अचानक बंद कर देश भर को जिस सदमे की हालत में पहुँचा दिया था, अब लोग धीरे-धीरे उससे उबर रहे हैं. कुछ हम जैसे दुखियारे भी हैं जो अब तक केबीसी का बिनीता जी के एक करोड़ रुपये जीतने वाला एपिसोड नहीं देख पाए हैं. चूँकि हम सदैव ही स्वयं के लिए पनौती सिद्ध होते रहे हैं तो पहले-पहल तो जब रात्रि के 8.59 बजे टीवी स्क्रीन पर टाटा स्काई का संदेश देखा तो हमारे चेहरे पर 12 तो बजे पर रत्ती भर भी आश्चर्य नहीं हुआ. क्योंकि यह हमारा इतिहास रहा है कि "हमने जब-जब किसी चीज़ को शिद्दत से पाने की कोशिश की है, सारी क़ायनात ने उसे हमसे दूर हटाने की कोशिश की है." इसलिए दुःख तो अपार हुआ पर यह लीला भी सह गए! वो तो कुछ समय बाद जब पता चला कि सबके साथ ही यही हो रहा तो सच्चे भारतीय की तरह थोड़ी शांति अवश्य मिली कि चलो, टाटा स्काई ने हमें ही टाटा नहीं किया है; पीड़ितों का एक लंबा कारवाँ साथ खड़ा है. कुल मिलाकर टाटा स्काई ने सबको 'लाइफ झिंगालाला' का सही अर्थ समझा दिया. अब तक सब इस शब्द को बड़ा funny समझते थे.   

अब तमाम बुद्धिजीवियों की भौंहें प्रश्नवाचक मुद्रा में 'टाटा थैया' कर रही होंगी कि इतना हाहाकार किसलिए? एक ठो फ़ोन ही तो करना था न! तो भैया, जब मुसीबत आती है न तो चहुँ दिशा से प्रक्षेपास्त्र की तरह दनादन बरसती है.
सोचिये यदि वो रजिस्टर्ड नंबर आपके पतिदेव के साथ विदेश यात्रा पर गया हो और अभी-अभी लगेज बेल्ट पर अपना बैग उठाते मिस्टर की जेब में घनघना उठे तो आप किस मुँह से कहेंगे, "सुनो, जरा इस नंबर पे मिस्ड कॉल कर देना." शास्त्रों में लिखा है कि थके-हारे बंदे को सबसे पहले चाय पिलाई जाती है, उसके बाद तमाम घर की चुगलियाँ, अपने दुखड़े, तत्पश्चात राष्ट्र की समस्या पर बात करते हुए चुपके से एक काम सरका दिया जाता है. यदि तब भी बात न बने तो बीवी-बच्चों द्वारा कलेश करना बेशक़ जायज़ है.
मज़े की बात ये है कि उस दिन मिस्ड कॉल देने वाला नंबर केबीसी की तरह इतना हसीन हो गया था कि 'ये वो आतिश था ज़ालिम, जो लगाए न लगे' मुआ, बुझ तो जाता था! और जब लगा तो....THE GAME WAS OVER! 
*अगले दिन की कहानी और भी दुःख भरी है, तनिक ठहरिये; Moral के बाद बताते हैं.

मोरल: इस देश में पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दाम ही एकमात्र समस्या नहीं है और न ही प्रेम अकेला है जो सुख कम और पीड़ा अधिक देता है. कुछ मासूम दिल अपने प्रिय कार्यक्रम को न देख पाने पर भी एवीं तबाह टाइप फ़ीलिंग ले लेते हैं. 

* हुआ यूँ कि जब हम टाटा स्काई को घड़ा भर-भर कोस रहे थे, उसी समय श्रीमान जी ने सूचित किया कि "टाटा स्काई की तरफ़ से संदेश आया है कि हम चाहें तो अपना सर्विस प्रोवाइडर बदल सकते हैं." उसके बाद हम ग्लानि और पश्चाताप की जिस गहरी खाई में गिरे हैं कि उससे अब जैसे-तैसे करके खुद ही निकलना होगा. लग रहा कोई परेशानी होगी न उनको, तभी तो इतनी ज़िल्लत झेलने को मजबूर हुए होंगे. इस तरह स्वयं की महानता की पुष्टि कर हमने उन्हें माफ़ कर दिया. हम तो अब भी 'टाटा स्काई' ही रखेंगे, इतने सालों से उनकी बेहतरीन सर्विस के प्रशंसक रहे हैं और payment method तो, अहा! Too good! जियो रे!
आप टाटा, सोनी टाइप बड़े-बड़े लोग काहे पैसे के द्वंद्व में फंसे रहते हो जी? सब मोह माया है, जब तक ये काया है! उसके बाद जो नीरज जी ने कहा वही अंतिम सत्य है -
"खाली-खाली कुर्सियां हैं / खाली-खाली तंबू हैं /खाली-खाली घेरा है 
बिन चिड़िया का बसेरा है
न तेरा है, न मेरा है..........!"
- प्रीति 'अज्ञात'

#मेरे प्यारे देशवासियों, तुम तो बड़े चूज़ी निकले!

बापू का ये मतलब था कि "बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो" 

"बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो"
निस्संदेह गाँधी जी ने यह बात देशवासियों को शांति और अहिंसा का संदेश देते हुए एक सकारात्मक और आशावादी जीवन जीने की प्रेरणा देते हुए कही थी. लेकिन मनुष्य तो आख़िर नालायक मनुष्य ठहरा और जो बात सीधे-सीधे समझ ले तो फिर बेचारा अपने इस पचास ग्राम दिमाग का क्या करेगा! इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए कुछ मानवों (कृपया मा को दा पढ़ें) ने यह तय किया कि "चलो, हम बुरा नहीं सुनेंगे." और जो भी हमारी बुराई करने का इत्तू-सा भी प्रयास करेगा, हम उसे देशद्रोही कहकर इत्ती लानतें भिजवायेंगे, इत्ती लानतें भिजवायेंगे कि अगली बार 'चाय' बोलने से पहले भी वो सौ बार सोचेगा कि कोई इसे personally तो न ले लेगा! यही मानकर आम जनता का EGO भी GO नहीं हो पा रहा. उनकी किसी बात पर आप टोकिये, फिर देखिये कैसे टसुए भर-भर रोना-पीटना मचता है! उन्हें भी बस अपनी तारीफ़ ही चैये, भले ही वो झूठी हो तो क्या!

"बुरा मत कहो" को सबसे सही ढंग से अगर किसी ने समझा और पालन किया है तो वो हैं टीवी शो के जज मंडल! ये अंतरिक्ष में बैठकर चुस्की या मटका कुल्फ़ी खाने की उम्मीद लिए वे प्राणीसमूह हैं जिन्हें कुछ जँचता ही नहीं! परफेक्ट में भी डिफेक्ट निकाल देना इनका प्रिय शग़ल है. न न न न... अब आप ये न समझें कि इन्हें बुरा कहने में मज़ा आता है! कदापि नहीं! बल्कि ये तो अपनी बात इस तरह से लपेटकर पेश करते हैं कि प्रतियोगी भी कन्फ्यूज़िया जाता है कि अभी मैं उदासी वाला पोज़ दूँ या कि ख़ुशी की बत्तीसी चमकाऊँ! कान को घुमाकर पकड़ने का आदरणीय जज साब/मेमसाब का इश्टाइल देखें -
"मुझे लगता है आज आपने आपका 100% नहीं दिया!" काहे लगता है रे? क्या वो 30% लॉकर में रखकर यहाँ गुल्ली-डंडा खेलने आया है?
"आप इससे बेहतर कर सकते हैं...हमें आपसे बहुत उम्मीदें हैं!" अरे, पर अभी तो बताओ न! हमने ऐसा का कर दिया! अब का हम देश से ग़रीबी हटायें! तुम तो भैया,हर साल ऐसी पचास उम्मीदों को पलटकर पूछते भी नहीं!
"अच्छी कोशिश थी!" मितरों...इसके बाद और इंसल्ट करने को कुछ शेष ही नहीं रहता. प्रतियोगी जान जाता है कि "ये गलियाँ ये चौबारा, यहाँ आना न दोबारा."

"बुरा मत देखो" इसका दर्शक रत्न पुरस्कार उस भीड़ को जाता है जो अपराध को होते देख तुरंत वहाँ से ख़िसक लेना ही उत्तम कर्म समझती है. कभी-कभी वो इतनी मासूम भी बन जाती है कि अपनी आँख उठाकर देखने की बजाय मोबाइल के लेंस की दिशा उस तरफ़ कर देती है पर मजाल है कि नंगी आँखों से उसने कभी कुछ बुरा देखा हो! इस विधा का प्रयोग अपने बात से पलटते ग़वाह भी वर्षों से करते आ रहे हैं और हमने भी ऐसे कई निर्णय देखे हैं कि लाश सामने है पर हत्यारा तो कोई है ही नहीं..किसी ने देखा ही नहीं!

मेरे प्यारे बापू, मैं अहिंसा और शांति की कट्टर वाली समर्थक हूँ पर आजकल 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते'. आपको लाठी घुमाते हुए इन चूज़ी नासमझों को आपके सन्देश का सार डायरेक्टली ही समझा देना था कि "नासपीटों अपने ही देश और देशवासियों का ....बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो! हुँह, कभी नहीं!"
- प्रीति 'अज्ञात'

#महात्मा गांधी, #अहिंसा, #समाज #iChowk
आप इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं -
https://www.ichowk.in/politics/gandhi-jayanti-special-we-accepted-ideals-of-mahatma-gandhi-in-our-own-style/story/1/12622.html

शनिवार, 22 सितंबर 2018

ज्ञान का दसवाँ अध्याय सिर्फ़ बुद्धि नहीं, प्रेरणा का स्त्रोत भी है.#सुधा वर्गीस #कर्मवीर #KBC #KBC21सितम्बर2018

कर्मवीर एपिसोड जो कि हर शुक्रवार को आता है,इस बार (21सितम्बर) इसमें पद्मश्री सुधा वर्गीस जी तथा उनका साथ देने के लिए अनुष्का शर्मा, वरुण धवन उपस्थित थे. सुधा जी महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अत्यधिक मेहनत और गंभीरता से कार्य कर रही हैं.उनकी कर्मठता को सलाम कि वे 30 सालों से मुसाहर जाति के उत्थान के लिए प्रयासरत हैं. इसके लिए वे साईकिल से गाँव-गाँव जाकर उन महिलाओं को जागरूक कर रहीं हैं.... जो शिक्षा का अर्थ तक नहीं जानतीं. उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि स्त्रियों पर अत्याचार करना/सहना गलत है, जिन्हें अपने अधिकारों का इल्म तक नहीं! जो ये कहती हैं "पति है तो मारेगा ही न!" ये महिलाएँ यह मानकर मौत से बदतर ज़िंदगी जी रहीं थी कि "शराब पीने के बाद पुरुष द्वारा शोषण होना सहज है". ये आमदनी ख़त्म हो जाने के भय से शराब बेचना बंद नहीं करना चाहतीं थीं.

उफ़, यह जानकर ही दिमाग झन्ना उठा कि "औरतों को इतना भी नहीं पता था कि बलात्कार अपराध है और पीड़िता को इसकी शिकायत करनी चाहिए". सुधा जी ने उनमें यह चेतना जागृत की. उन्होंने शराब, घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़, महिलाओं के समवेत स्वर को गुंजायमान करने के उद्देश्य से 'नारी गुंजन' संस्था की स्थापना की. स्त्रियों को आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाया. आज उनका अपना बैंड भी है. सुधा जी 'प्रेरणा' स्कूल के माध्यम से बच्चों को शिक्षित कर रही हैं तथा आत्मरक्षा हेतु उन्हें कराटे का प्रशिक्षण भी दिलवा रही हैं.
वरुण और अनुष्का के साथ से साईकिल वाली ये दीदी आज  25 लाख जीतीं. जिस अंदाज़ से उन्होंने "देखा है पहली बार...." के जवाब में "देखेंगे बारम्बार...." गाया, उनकी यह अदा दिल जीत लेने वाली थी.

सचमुच ज्ञान का दसवाँ अध्याय सिर्फ़ बुद्धि नहीं, प्रेरणा का स्त्रोत भी है.
- प्रीति 'अज्ञात
#KBC #KBC21सितम्बर2018 #अमिताभ_बच्चन #बिग_बी #कर्मवीर #कौन_बनेगा_करोड़पति #ज्ञान का दसवाँ अध्याय #सुधा वर्गीस 
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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

#KBC20सितम्बर2018 #देवेन्दर_सिंह #जितेंद्र_प्रसाद



20 सितम्बर का एपिसोड देवेन्दर सिंह के नाम रहा. वे 6,40,000 जीतकर गए पर बात यहाँ सिर्फ़ ज्ञान के दसवें अध्याय की ही नहीं है। देवेन्दर जी की विनम्रता और संवेदनशीलता भी बेहद प्रेरणादायी थी। उनकी माँ उनके बारे में बात करते हुए जब भावुक हुईं तो वह उनका अपने बेटे के प्रति गर्व की सुखद स्मृतियाँ भी थीं कि कैसे वे अपना भोजन दूसरे को दे देते थे और देखिये देवेन्दर जी के इसी भाव ने उन्हें कम्युनिटी किचन की स्थापना की उम्दा सोच भी दे दी. 
इससे भी अच्छी बात यह थी कि वे भरपेट भोजन के लिए मात्र पाँच रुपए लेते हैं, वो भी इसलिये कि भोजन करने वालों का स्वाभिमान बना रहे! सचमुच ऐसे समय मे अपने देशवासियों पर अत्यधिक गर्व का अनुभव होता है. देवेन्दर जी को मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएं! कभी अवसर मिला तो उनके इस किचन में मदद अवश्य करना चाहूँगी.
उनकी फ़रमाईश पर “आज खुश तो बहुत होगे तुम! जो आज तक तुम्हारे मंदिर की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ा, जिसने कभी तुम्हारे सामने हाथ नहीं जोड़े; वो आज तुम्हारे सामने हाथ फैलाये खड़ा है ……" अमिताभ की इस संवाद अदायगी के बाद तो दर्शकों का ख़ुश होना बनता ही था.

उनके बाद बुद्धिमानी और ज़ज़्बे की अनूठी मिसाल लिए जितेंद्र प्रसाद जी हॉट सीट पर आए, जिनकी शिक्षा के लिए उनके भाई औऱ पिता ने दिन-रात एक कर दिया. पिता की चाय की दुकान है. मित्र के भाई ने भी उन्हें बिना फ़ीस लिए पढ़ाया.  जितेंद्र जी बहुत अच्छा खेल रहे थे और 25 लाख के प्रश्न तक पहुंच चुके थे. और इसी प्रश्न पर पक्का उत्तर न पता होने और अमिताभ का quit का विकल्प याद दिलाने के बाबजूद भी वे खेल गए और 3,20,000 से ही उन्हें संतोष करना पड़ा. 
बहुत अफ़सोस हुआ क्योंकि उन्होंने यह बात साझा की थी कि वे अपने पैरों की shape के कारण बहुत परेशान रहे हैं और वे इसे ठीक करके जूते पहन पूरे गाँव में घूमना चाहते हैं. एक तरफ जहाँ लोग दुनिया भर की सुख-संपत्ति की चाहत रखते हैं वहाँ 'संतोष' की सही परिभाषा जितेन्द्र जी की इसी छोटी सी अभिलाषा से व्यक्त होती है. 
KBC सिर्फ़ धन से ही नहीं, सोच से भी समृद्ध कर रहा है. हम इसे यूँ ही नहीं देखते हैं भई! क्या समझे? हईं 
-प्रीति 'अज्ञात'
#KBC #KBC20सितम्बर2018 #अमिताभ_बच्चन #बिग_बी #देवेन्दर_सिंह #जितेंद्र प्रसाद #कौन_बनेगा_करोड़पति #ज्ञान का दसवाँ अध्याय 
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परमाणु बम पर बैठी दुनिया से शांति की उम्मीद!

इस समय विश्व भर में जो हालात हैं और जिस तरह गोला-बारूद बनाते-बनाते विकास ने हमें मानव-बम तक पहुँचा दिया है उसे देख 'शांति' की बात करना थोड़ा अचरज से तो भर ही देता है! पहले नुकीले पत्थर, भाले इत्यादि का प्रयोग जंगली जानवरों से स्वयं की सुरक्षा हेतु किया जाता था. चाकू-छुरी ने रसोई में मदद की. लेकिन फिर आगे बढ़ने की चाहत और स्वार्थ के लालच में मनुष्य ने इन्हें एक-दूसरे को घोंपने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इससे भी उसे शांति प्राप्त नहीं हुई तो ऐसे अत्याधुनिक हथियारों का निर्माण हुआ, जिससे एक बार में ही कई लोगों को सदा के लिए सुलाया जा सकता है. मानव अब भी खुश नहीं था और स्वयं को सबसे अधिक ताक़तवर सिद्ध करने की फ़िराक़ में रहने लगा. इसी प्रयास को मूर्त रूप देने के लिए उसने परमाणु बम का निर्माण कर डाला, जहाँ एक ही झटके में शहर और सभ्यता को समाप्त किया जा सकता था और उसने ये किया भी. भय से या फिर 'हम किसी से कम नहीं' की तर्ज़ पर धीरे-धीरे सभी देश इस दिशा की ओर बढ़ने लगे और इस तरह मानवता ने अपनी क़ब्र खुद ही खोद ली. विश्व-युद्ध हुए और इसका असर तथा पुनः होने की आशंका अब तक जारी है.

हम लोग कबूतर उड़ाते-उड़ाते 'कबूतरबाज़ी' तक पहुँच चुके हैं अतः शांति की बात कर लेने भर से ही शांति नहीं आ जायेगी. पहले हथियार फेंकने होंगे, विध्वंसक तत्त्वों से दूरी बनानी होगी. 'इक मैं ही सर्वश्रेष्ठ' के भ्रम से बाहर निकलना होगा. यदि शांति के इतने ही प्रेमी या मसीहा हैं तो सभी देश मिल-जुलकर परमाणु हथियारों से दूरी बनाने का निर्णय क्यों नहीं ले पाते? हर समय हमले की फ़िराक़ में क्यों रहते हैं? इन उपकरणों ने सिर्फ़ मानव और सभ्यता का ही नहीं बल्कि प्रकृति का भी समूल विनाश किया है. 'विश्व-बंधुत्व' में यक़ीन है तो किसी को भी अपनी सीमाओं पर सेना क्यों रखनी है? आख़िर पूरा विश्व एक परिवार की तरह क्यों नहीं रह सकता?

रही बात मानसिक शांति की! तो यह उतना मुश्किल नहीं! बस इसके लिए मनुष्य को अपने स्वभाव में कुछ मूलभूत परिवर्तन करने की आवश्यकता है. यह मानव की विशेषता रही है कि वह अपने दुःख से कहीं ज्यादा दूसरे के सुख से व्यथित रहता है. किसी के पास आपसे बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, उसके बच्चे अच्छे से सेट हो गए या विवाह अच्छे घरों में हो गया, कोई आपसे ज्यादा प्रतिभावान है या उसे वह सम्मान मिल गया जिसके लिए आप स्वयं को बेहतर उम्मीदवार समझते थे, किसी का स्वास्थ्य अच्छा तो कोई आपसे ज्यादा ख़ूबसूरत/आकर्षक है.... यही सब बातें हैं, जिन्होंने मनुष्य को जलन और द्वेष के चक्रव्यूह में उलझाए रखा है. वह स्वयं को बेहतर बनाने से कहीं अधिक दिलचस्पी इस बात को जानने में रखता है कि सामने वाला शख़्स उससे आगे क्यों और कैसे निकल गया! यही चिंता, ईर्ष्या भाव ही तनाव और अपने चरम में कभी-कभी अपराध को भी जन्म देते हैं. समय के साथ ये विकृतता चेहरे पर भी उतर ही आती है. समाज को इसी मानसिक दुष्चक्र से बाहर निकलना होगा. मानसिक शांति और सुखी जीवन का यही एकमात्र मन्त्र है कि हमारा मन निश्छल हो और हम सब जीवों के प्रति दया-स्नेह भाव रखें; सबके सुख से प्रसन्न हों और दुःख में उनकी पीड़ा महसूस कर सकें.  
मदर टेरेसा ने सटीक बात कही थी कि "एक हल्की-सी मुस्कराहट से ही शांति आ सकती है". हम शांतिदूत गाँधी जी के देश में रहते हैं और विश्व शांति के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गए पंचशील के सिद्धांत भी हमारी ही धरती की उपज हैं. चिंतन और मनन ही हमें आध्यात्म की ओर ले जाता है, जिसके साथ हम स्वयं और घर-परिवार की मानसिक शांति पा सकते हैं. जब हमारा मन शांति और प्रेम से भरा होगा तो समाज स्वतः ही इस धारा एवं मानव-कल्याण की ओर अग्रसर होने लगेगा. फ़िलहाल उम्मीद रखना ही हमारे हाथ में है. हमारे बच्चों के लिए यह जानना बेहद जरुरी है कि ये दुनिया अब भी रहने लायक है.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्॥
'विश्व शांति दिवस' की असीम शुभकामनाएँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व शांति दिवस #world_peace_day

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

#KBC19सितम्बर2018 #सोमा_चौधरी


KBC हमेशा से ही मेरी पसंद रहा है, इसकी और अमित जी की प्रशंसा इतनी बार कर चुकी हूँ कि अब मैं स्वयं से ही परेशान हो गई हूँ. इस बार मेरा इरादा इसके हर एपिसोड पर लिखने का था. पुराने अभी ड्राफ्ट से आगे नहीं बढ़ सके तो सोचा आज जहाँ हूँ वहीं से क़दम बढ़ा लिए जाएँ.

सच कहूँ तो 19 सितम्बर की प्रतियोगी सोमा चौधरी जी (जो कि 18 को ही हॉट सीट पर आ गई थीं) का पहला इम्प्रेशन अच्छा नहीं था. मेरा मतलब, अमिताभ के फैन तो बहुत हैं पर इस अंदाज़ में भला कौन बात करता है! उनके सपने वाली बात से तो अमित जी भी असहज हो गए थे पर बाद में उन्होंने श्रोताओं का ओपिनियन लेकर माहौल को हल्का कर दिया था. यह देखना भी मज़ेदार था कि किसी के भी सपने में उनके पति नहीं आते!

बाद में जब सोमा जी को खेलते हुए देखा तो उनकी बुद्धिमानी के साथ-साथ, निश्छलता और मासूमियत भी सामने आई. फिर चाहे वो धरम जी से उनकी फ़ोन पर की गई बात हो या केक को देखकर उत्साही होना. 'पूर्व' भारतीय क्रिकेटर को हड़बड़ी में 'ईस्ट' का समझ लेना जितना दिलचस्प था उससे भी कहीं ज्यादा ईमानदारी उनके इस सच को स्वीकारने में थी. वहीं सोमनाथ चटर्जी वाले जवाब में जब वे भोलेपन से कहती हैं कि "हाँ, यही उत्तर है पर (चलो 60 सेकंड हैं तो) टाइम पास करते हैं", तो दर्शक भी अपनी हँसी नहीं रोक पाए थे. उसके बाद जीत की रक़म को बिछाकर उस पर सोने वाली बात पर तो अमिताभ भी ठहाका लगा उठे.
पर जो लोग 'लिफ़ाफ़ा देखकर मज़मून भाँप लेने' का राग अलापा करते हैं, उनकी इस सोच पर पुनर्विचार करने का काम तो सोमा जी ने उन्हें सौंप ही दिया है. एपिसोड रोचक रहा.

#KBC #KBC19सितम्बर2018 #अमिताभ_बच्चन #बिग_बी #सोमा_चौधरी #कौन_बनेगा_करोड़पति #ज्ञान का दसवाँ अध्याय 
@babubasu @richaanirudh @SrBachchan @SonyLIV @SonyTV 

बिग बॉस

'बिग बॉस' जब शुरू हुआ था तो यह कॉन्सेप्ट एकदम नया और कुछ अलग सा लगा था. शायद इसीलिए यह आते ही हिट भी हो गया था. एक घर में अलग-अलग क्षेत्रों, विभिन्न विचारधारा और संस्कृति से जुड़े लोगों का आपस में पटरी बैठाते हुए रहना; साथ ही एक-दूसरे को बाहर निकालने की जुगत भिड़ाते हुए स्वयं अंत तक गेम में बने रहने की कोशिश दर्शकों को ख़ूब भाती थी. मज़ेदार टास्क दिए जाते थे जिन्हें तमाम लड़ाइयों के बावजूद भी टीमवर्क से नियत समय में पूरा करना होता था. यह कहना गलत न होगा कि अपने प्रारंभिक वर्षों में यह जितना रुचिकर प्रतीत होता था, अब उतना ही भौंडा और अविश्वसनीय होता जा रहा है.
विगत वर्षों में इस कार्यक्रम में आने वाली जोड़ियों के रिश्ते बनने से कहीं ज्यादा बिखरते रहे. वाद-विवाद की जगह गालीगलौज़ और हाथापाई ने ले ली, जो जितनी जोर से चीखे-चिल्लाये, वो उतना ही लम्बा टिकता भी था.
पहले मुझे लगता था कि मानव व्यवहार और मनोविज्ञान को समझने के लिए इससे बेहतर कोई शो नहीं! क्योंकि यहाँ अच्छे से अच्छे, संवेदनशील, भावुक और सच्चे लोगों को एक अलग ही रंग में परिस्थितियों के आगे टूटते या जूझते देखा. लड़ाकू और तेजतर्रार लोगों की कितनी श्रेणियाँ संभव हैं उसका ज्ञान भी यहीं से मिला. इसमें रोटी, अंडे के लिए लड़ाई हुआ करती थी, काम के लिए भी यही हाल और सफाई को लेकर भी परस्पर लानत-मलानत का दौर चला करता था. धीरे-धीरे प्रेम कहानियाँ भी पैर पसारने लगीं और विवादास्पद लोगों को ही प्रतियोगी बनाकर चयनित किया जाने लगा. 

हिन्दी में ही बात करने का नियम इस शो का सबसे आकर्षक पहलू था और एक कारण भी जिसने इसे जन-जन तक पहुँचा दिया. सीरियल की दुनिया से उकताए दर्शकों के लिए यह रियलिटी शो एक अच्छा विकल्प बन गया था. 
इस समय जबकि सिरदर्द देने के लिए न्यूज़ और चर्चा के नाम पर चैनलों पर चीख-पुकार का प्रसारण हो ही रहा है, तो ऐसे में 'बिग बॉस' की कोई आवश्यकता रह ही नहीं जाती उस पर KBC के ही समय इसका प्रसारण अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. 

खैर,इस बार का यह बारहवाँ सीजन है और मेरे लिए यह पहली ही बार है कि मैं इसे नहीं देख रही हूँ. जबकि मुझे इसे कुछ वर्ष पहले ही देखना बंद कर देना चाहिए था.
- प्रीति 'अज्ञात'
#बिग_बॉस #Bigboss

सोमवार, 17 सितंबर 2018

#चूर-चूर पराँठा

दूर से देखने पर यह खुला हुआ समोसा लगता है या फिर नाचोस/ स्प्रिंग डोसा जैसा कुछ-कुछ. पर इसे देखकर इसके चटपटे स्वाद का अंदाज़ जरूर हो जाता है. अब अनुमान से तो पेट भर नहीं सकता न! तो क्यों न इसे खा ही लिया जाए! एक बार मस्तिष्क तक जब यह संदेश पहुँच गया तो स्वाद कलिकायें भी जैसे बावरी हो उठीं! उस पर प्यारी सखियों का साथ हो तो कहना ही क्या!
वैसे इसे 'चूर-चूर पराँठा' कहते हैं और इसे जब दाल मखनी और रायते के साथ खाया जाता है उस समय चेहरे पर खिली मुस्कान, तृप्ति के जिस मधुर भाव का संचार कर वातावरण में सरगम की तरह बज उठती है; उसे ही परम सुख कहते हैं जी.
इस दिव्य ज्ञान का आभास होते समय हमें सचेत करते मस्तिष्क विभाग के कुछ तंतु पछाड़ें खा-खाकर याद दिलाते रहे कि प्रीति बेन यह भोजन आपके स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं! पर दिल और दिमाग़ की लड़ाई में जो इंसान सदैव दिल के साथ खड़ा होता आया है वो ऐसे बेहूदा तंतुओं की बातों में क्यों आये भला!
अतः वर्ड ट्रेड पार्क,जयपुर के हे चूर-चूर पराँठे.... जग घूमिया थारे जैसा न कोओई 😍
मोरल: महीने में एक-दो बार यदि आपकी आत्मा आपको धिक्कारे, लानत भेजे और सौ बार कहे कि "तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता!"
तो ज़िंदा हो तुम! 😝😎
- प्रीति 'अज्ञात'
#जयपुर #चूर-चूर पराँठा#हिन्दुस्तानी_स्वाद 

सोमवार, 10 सितंबर 2018

'बंद' आँखों से विनाश की गली में भटकता विकास

'बंद' विकास की रामायण का धुँधला स्वप्न संजोये हुए विनाश के महाभारत की सत्यापित तस्वीर है. यह प्रजा का, प्रजा के लिए, प्रजा द्वारा मचाया गया वह क्रूर आतंक है जिसकी डोर राजा बनने की लालसा पाले हर नेता के हाथ में होती है. बंद किसी एक राजनीतिक दल से सम्बंधित उपक्रम नहीं बल्कि यह सभी दलों का वह साझा प्रयास है जो सत्ता या विपक्ष में रहते हुए परिस्थितिनुसार अपनी-अपनी पाली बदल लेता है.
यह वह सोची-समझी घटना भी है जो निकम्मे, नाकारा लोगों की भीड़ जुटाकर विभिन्न पार्टियों द्वारा स्वहित में समय-समय पर आयोजित की जाती है स्पष्ट है कि इसका जनता की सुख-सुविधा से कोई लेना-देना नहीं होता। बंद का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र्रीय सम्पत्ति को तहस-नहस कर उसी कायराना मुँह से अपने अधिकारों की बात करना है जिससे यह 'हिंसक विरोध' को आंदोलन के रूप में प्रक्षेपित करने का निकृष्टतम प्रयास करता है!

बंद चाहे सत्ता का हो या विपक्ष का.....यह विकास का मार्ग कभी प्रशस्त नहीं कर सकता. तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा को विरोध नहीं गुंडागर्दी कहा जाता है. कैसी विडम्बना है कि जिनके अधिकारों की माँग के लिए इसका आह्वान किया जाता है वही वर्ग इसकी सबसे बुरी मार झेलता है. इस आह्वान को पुष्ट बनाने के लिए बसें जलाई जाती हैं, ट्रेन रोक दी जाती हैं, वाहनों की तोड़फोड़ होती है जाहिर है इस उग्र भीड़ का तो कोई भविष्य है नहीं; पर इनके ऐसे व्यवहार से इंटरव्यू/ परीक्षा के लिए जाते युवा का एक वर्ष ख़राब हो जाता है, अस्पताल जाते मरीज़ों की बीच राह ही साँसें टूट जाती हैं, निर्दोष बच्चे भयभीत हो माँ के आँचल में छुप जाते हैं. हर रोज अपनी रोटी कमाने को घर से निकले मजदूरों को उस दिन भूखे पेट ही सोना पड़ता है. ठेला चलाने वाले का सामान सड़कों पर बिखेर दिया जाता है और इस तरह विकास की आभासी चादर ओढ़े अपने अधिकारों की माँग करते ये दंगाई विनाश की घिनौनी तस्वीर हर जगह चस्पा कर आगे बढ़ लेते हैं. 

विशेषज्ञों द्वारा चर्चाओं में 'बंद' के सफ़ल/ असफ़ल होने की विवेचना प्रसारित होती हैं. प्रायः इस सफ़लता/असफ़लता को आक्रामकता के तराजू में तौला जाता है और इस तरह घनी आबादी वाला यह देश एक और छुट्टी मनाकर स्वयं को धन्य महसूस करता है. इस अवकाश ने देश के विकास में कितना सहयोग दिया उसका आंकलन कर सके; यह साहस कभी किसी में देखने को नहीं मिला.

क्या कभी किसी ने सोचा है कि -
राष्ट्रीय त्योहारों पर बंद का आह्वान क्यों नहीं होता?
धार्मिक उत्सवों (दीवाली, ईद, रक्षाबंधन, संक्रांति इत्यादि) के समय भी किसी बंद की घोषणा नहीं होती! पूरा कमाने के बाद ही लोग साथ देते हैं भले ही फिर दिहाड़ी पर जीने वालों के यहाँ चूल्हा जले, न जले!
चुनाव प्रचार के समय तो बंद भूल ही जाइये, उल्टा दिन-रात का भी पता नहीं चलता!
आंदोलन के नाम पर हड़ताल/ बंद और इस बंद की आड़ में हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी; लगता है हिंदुस्तान की यही नियति रह गई है. अधिकारों की माँग लेकर, 'भले लोग' धरने पर बैठते हैं या दुकानों के शटर गिराते हैं. सारे कामकाज ठप्प करते हैं और इसका अंत पुलिसिया बल-प्रहार, फिर बचाव के लिए जनता का उन पर पथराव, जिसके बदले में गोलीबारी, आँसू गैस और फिर सरकारी संपत्ति को अग्नि के हवाले कर देना! हर बार यही क्रम दोहराया जाता है ! परिणाम ?
विचार कीजिये, 'बंद' का लाभ आख़िर किसे मिलता है? कब मिलता है? और क्या मिलता है??
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 5 सितंबर 2018

#शिक्षक_दिवस

क्लेमर : नीचे दी गई घटनाएँ पूर्णत: सत्य हैं और इनका हर 'जीवित' या 'मृत' व्यक्ति से सीधा संबंध है. इसे पढ़कर आपका किसी अपने को याद करना महज़ संयोग नहीं, बल्कि हक़ीक़त है. इसे खुद से जोड़कर ज़रूर देखें!

'शिक्षक-दिवस' पर याद आते हैं सभी गुरुजन, आचार्य जी, सर, मेडम और कुछ बेतुके नाम भी, जो हम सभी मस्ती मज़ाक में अपने प्यारे शिक्षकों को दे दिया करते थे. इससे उनको दिया जाने वाला सम्मान कम नहीं होता था, वो तो सबको आगाह करने के लिए बस हमारा 'कोड-वर्ड' हुआ करता था. खीखीखी 😁
हाँ, इस मामले में लड़कियाँ भी कम नहीं होतीं. पढ़ाई में काफ़ी अच्छी रही हूँ, तो ऐसी बातों में भी दिमाग़ लगना तय ही था. तब हमारी टोली के अलावा ये नाम किसी को पता नहीं होते थे, तो हम बड़ी ही सहजता से सबके सामने भी वो नाम ले लिया करते थे. कई बार तो 'टीचर' के सामने भी! 😜असली नाम तो आज भी नहीं बताऊंगी, क्योंकि उनके लिए हृदय में अभी भी उतना ही सम्मान है और जैसी भी इंसान बनी हूँ, अपने माता-पिता और शिक्षकों द्वारा दी गई सीख को अपनाकर ही.

खैर..इस लिस्ट में सबसे ऊपर नाम आता है, हम सबके पसंदीदा 'पॉपिन्स' सर का..उनकी आँखें खूब गोल-मटोल थीं और हर विषय पर बखूबी बोलते थे, मैं उनकी प्रिय विद्यार्थी थी, सो अपनी पसंदीदा गोली का ख़िताब ही हमने उन्हें दे डाला. नये जमाने के लोगों को बता दें, कि ये संतरे के स्वाद वाली अलग-अलग रंगों की खट्टी-मीठी गोलियाँ हुआ करती थीं, जो बाद में और फ्लेवर में भी आने लगीं थीं. इतने ही शानदार थे, हमारे 'पॉपिन्स' सर! 😊

'कन्हैया' सर साँवले-सलौने, प्यारी-सी मुस्कान वाले हुआ करते थे, ये हमें पढ़ाते भी नहीं थे. लेकिन कॉलेज में आते-जाते बस एक बार इनके दर्शन हो जाते, तो बस...हम सबका दिन बन जाता था. एकदम धन्य टाइप फीलिंग आ जाती थी. कई बार किसी मित्र को वो नहीं दिखते, और हमें पूछ बैठती तो हम बड़े ही आराम से बता देते..अभी नहीं मिलेंगे. वो तो फलानी क्लास में बाँसुरी बजा रहे हैं. वैसे इसे सामान्य भाषा में 'पीरियड लेना' भी कह सकते हैं. 😌

'मधुमती' और 'चिड़िया' जी भी थीं. एक के लड्डूनुमा केशों की, मोगरे के महकते फूल बाउंड्री बना दिया करते थे, पढ़ाई के साथ-साथ बगीचे की खुश्बू से हम सब खूब मंत्र-मुग्ध हो उठते. जिस दिन वो गजरा लगाना भूल जातीं, उनसे ज़्यादा अफ़सोस तो हमें होता..यूँ लगता था, मानो रेगिस्तान में ऊँट की तरह घिसटते हुए चले जा रहे हैं. 😞 वक़्त काटे न कटता ! बार-बार घड़ी को घूरते, तो वो हमें घूरने लगती. गोया कह रही हो,' मैं तो एक मिनट में 60 बार ही चलूंगी, तेरा मन हो तो ब्लेंडर में घुमा दे. 'चिड़िया' जी भी बहुत अच्छी थीं. बस, उनकी फिक़्र बहुत होती थी. वो डाँटने के बाद मुँह बंद करना भूल जाती थीं. हम सबको डर लगता, मच्छर न चला जाए. Well, It was a serious concern, you know! सोचो, क्या हाल होता होगा, उस स्टूडेंट का..जिसको ज़्यादा हँसने की वजह से खड़ा किया गया हो और उसके खड़े होते ही हम भोलेपन में टीचर से कहें..'मेम, देखिए ना वो पेड़ पर कित्ती सुंदर चिड़िया बैठी है' 😝...उफ्फ, उसकी विवशता पर कलेजा मुँह को आता था. क़िस्मत है कि पूरी स्कूल, कॉलेज लाइफ में कभी किसी से कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ. In fact, सबको हमारी इस कला पर बड़ा नाज़ था! 😞 एक सच यह भी है कि बचपन में हम भी चिड़िया ही थे.

'बैंगन राजा' का त्वचा के रंग से कोई लेना-देना नहीं है, हाँ, बैंगनी उनका पसंदीदा रंग लगता था और मजेदार बात ये थी कि वो स्कूटर से उतरने के बाद भी बैंगनी हेल्मेट नहीं उतारते थे, 😕 इसलिए मजबूरी में उन्हें ये नाम देना पड़ गया था. उनके बारे में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
Volcano हमारे H.O.D.हुआ करते थे, भयानक गुस्सा और उसके बाद सब एकदम शांत..कुछ देर हम कंपकंपाते और फिर उर्वर भूमि में खूब दिल लगाकर पढ़ते.

बहुत-सी बेहतरीन यादें हैं, यादगार किस्से हैं. मैं स्वयं भी एक वर्ष, कॉलेज में बॉटनी पढ़ा चुकी हूँ. सच्ची बोलूं तो, अपने स्टूडेंट्स के अच्छे मार्क्स आने की चिंता के अलावा मुझे इस बात की भी बड़ी उत्सुकता रहती थी, 😰कि इन 'दुष्टों' ने मेरा नाम क्या रखा होगा! अपनी ग़लतियों का फल, इसी जन्म में मिलना चाहिए ना! वैसे अच्छे थे सभी और सम्मान भी खूब करते थे, पर वो गुण तो मुझमें भी थे..तो भी मैं कहाँ मानी!😜
खैर...'गुरु-शिष्य' परंपरा भी सच है और ये भी होता ही है...हर समय, हर कोई सज्जन नहीं हो सकता है, शैतानी इस उम्र का अहम हिस्सा है. आज भी ये 'दिवस' वगैरह मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. अगर ये तिथियाँ और दिवस न हों, तो हमारे और चींटी के जीवन में फ़र्क़ ही क्या? बस मेहनत करो और रेंगते रहो......हँसोगे कब? 😮

* MORAL : हर पल, हर दोस्त, हर रिश्ता बहुत कुछ सिखाता है. एक बच्चा अपनी मासूमियत से बहुत कुछ सिखा सकता है और वृद्ध अनुभवों से. सीखने में झिझक कैसी? यही तो जीवन है....जिसकी कक्षा में प्रतिदिन शिक्षक बदलते हैं! अपने पसंदीदा शिक्षक का साथ कभी न छोड़ना, ताने देंगे..डाँटेगे भी...... पर उनसे ज़्यादा परवाह और कोई नहीं करता! है, न!!
 HAPPY TEACHERS' DAY 😍
- प्रीति 'अज्ञात'.... Repost (2014) 
*चित्र में आँखों के ऊपर जो काँच की दो कटोरियाँ दिख रहीं वो चश्मा है जी.
#TEACHERS_DAY #शिक्षक_दिवस