बुधवार, 24 सितंबर 2014

मुझे 'प्रेम' से 'प्रेम' है !

प्रेम' क्या है ? अहसासों की अभिव्यक्ति, अनुभूति, दर्द, टीस, जीने की वजह या ज़रूरत से ज़्यादा ही इस्तेमाल होने वाला महज एक शब्द। जो कभी सच्चा, कभी झूठा, कभी स्वार्थ-निहित, कभी मजबूरी भी हो जाया करता है। क्या प्रेम को समझने के लिए 'प्रेम' करना जरूरी है? शायद हाँ, इसे आत्मा को छूना जरूरी है, इसका रूह तक पहुँचना भी जरूरी है। न जाने कितने आडंबरों से घिरा हुआ है ये 'प्रेम'। पर यह किसी भी कोण से मात्र स्त्री-पुरुष के शारीरिक-आकर्षण तक ही सीमित नहीं। यह भी सच है कि जब इश्क़ की बात आए तो हम सभी लैला-मजनूं, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद, सोहनी-महिवाल की बातें करते हैं। कभी चर्चा होती है, राधा-किशन की तो कभी मीरा-घनश्याम की। यानी ये भी सदियों से तय है कि प्रेम में प्राप्य की इच्छा रखना बेमानी है। तो फिर हम सभी 'प्रेम' से 'प्रेम' क्यूँ नहीं करते? क्यूँ आजकल लोग मोहब्बत के नाम पर ख़ुद को तबाह कर लिया करते हैं और कुछ तो ऐसे भी किस्से होते हैं, जहाँ उम्र-भर साथ निभाने का वादा करने वाले आशिक़ अस्वीकृत हो जाने पर अपने ही प्रेमी/प्रेमिका को बर्बाद करने से नहीं चूकते। प्रेम का यह रूप कितना वीभत्स और घिनौना है। दरअसल ये 'प्रेम' है ही नहीं।

'प्रेम' को परिभाषित करना आसान नहीं, पर मेरा तो यही मानना है कि जीवन-अभिव्यक्ति का सबसे सार्थक रूप प्रेम ही है। यदि इस अहसास को पूरी तरह से जी लिया जाए, तो आपसी वैमनस्य, ईर्ष्या, कटुता, मन-मुटाव जैसे भाव स्वत: ही समाप्त हो जाएँगे। प्रेम एक सुखद अनुभूति है, जिसमें हमें पाने से ज़्यादा देने में सुख का अनुभव होता है। जिससे हम स्नेह करते हैं, उसकी खुशी अपनी-सी लगती है और उसकी ज़रा-सी परेशानी से मन जार-जार रोता है। उन पलकों से आँसू गिरने के पहले ही दुख को भाँप लेना और उसे दूर करने के लिए दिन-रात एक कर देना भी तो इसी प्यार का ही एक सुनहरा रूप है। आँखों में हर वक़्त अपने प्रिय की छवि और उसकी चाहत को दिल में बसाते हुए जीना कितना सुंदर अहसास होता है। 'प्रेम' मानव-जीवन की एक मिठास है, जिसकी प्रथम अनुभूति माता-पिता के अपार स्नेह और देखभाल से होती है। कहते हैं, जो हम दुनिया को देते हैं; हमें भी वही मिलता है तो फिर क्यूँ न हम सब स्नेह भरी वाणी से ही इस दुनिया का दिल जीत लें। कोशिश तो की ही जा सकती है, न ! जितनी वरीयता हम दूसरों को अपनी ज़िंदगी में देंगे, उतनी या उससे ज़्यादा प्राथमिकता शायद वो भी हमें दे दें ! न भी दें, पर हम तो अपना कार्य निश्छलता से करें. समर्पण भी तो प्रेम का एक व्यापक रूप ही है। बच्चों की परवरिश में प्रेमपूर्ण वातावरण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार के ऊपर प्यार का पलड़ा हमेशा भारी रहा है। कभी इन्हीं नन्हे-मुन्नों पर आज़माकर देखिए।

स्त्री-पुरुष का प्रेम जितना सुंदर है, उतना ही क्लिष्ट भी। यहाँ अपेक्षाएँ रिश्तों पर हावी हो जाया करती हैं। कहीं अहंकार तो कहीं अवसाद घुन बनकर सारी सुंदरता को नष्ट कर देते हैं। संभवत: इसीलिए ज़्यादातर प्रेम-कहानियों का अंत दुखद ही होता है। मन से किसी से जुड़ना, विचारों-भावों का मिलन, साथ बीते कुछ हंसते-हँसाते पल इतना प्रेम ही काफ़ी है, जीवन जीने के लिए लेकिन इसके बिना भी तो जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इस ढाई आखर के शब्द ने पूरा साहित्य रच डाला है। 'प्रेम' न होता, तो किस पर लिखते? क्या लिखते? कैसे लिखते? न कविता होती, न कहानी, न गीत, न ग़ज़ल। हम सबके पास ऐसे न जाने कितने पल हैं, जो जीना सिखा देते हैं और अनायास ही हम उन्हें चाहने भी लगते हैं फिर लिख डालते हैं, इन्हीं मधुर-स्मृतियों को प्रेम की स्याही में डुबोकर। कभी मन भावुक हो उठता है, तो कभी प्रसन्न। कभी आँखें दुःख में बरसती है, तो कभी खुश हो छलकती हैं। 'प्रेम' ही 'साहित्य' है और 'साहित्य' ही 'प्रेम' है। 'प्रेम' शिक्षक भी तो है। यही हमें सिखाता है कि सब दिन एक से नहीं होते। सुख और दुःख दोनों ही को समान रूप से लेना चाहिए। परिस्थितियों में समय के साथ परिवर्तन अवश्य होता है, पर इंसान भीतर से वही रहता है। प्रेम विश्वास भी सिखाता है। दुनिया में कितनी खूबसूरती व्याप्त है, इसे सिर्फ़ एक स्नेहिल हृदय ही महसूस कर सकता है। अपने अंतर्मन से पूछिए,

क्या आपको प्रेम है -

बारिश की बूँदों से,
मिट्टी की खुश्बू से,
नदिया की कलकल से,
लहरों की हलचल से,
जंगल के हिरणों से
सूरज की किरणों से,
बहते इन झरनों से
पलते इन सपनों से
फूलों और कलियों से
गाँव और गलियों से
होली के रंगों से
घर के हुड़दंगों से
दीपक की बाती से
बगिया की माटी से
पेड़ों के झूलों से
कच्चे इन चूल्हों से
बच्चों की टोली से
मीठी उस बोली से...... और न जाने ऐसे कितने ही अद्भुत क्षण।

प्रकृति ने हर तरफ से अपने स्नेहांचल में ही तो हमें घेरे रखा है। हरे-भरे वृक्ष से झुकी हुई डालियां, उन पर बैठे खुशी में फुर्र से इधर-उधर फुदकते पंछी और फूलों पर मंडराते हुए भंवरे किसका मन नहीं मोह लेते। झील के किनारे घंटों यूँ ही बैठे रहना, कभी आसमान तो कभी पानी में उसकी छवि निहारना, सब कुछ शामिल है, इस प्रेम में।

हाँ, मुझे इस 'प्रेम' से 'प्रेम' है और आपको??

- प्रीति 'अज्ञात'
* 'साहित्य-रागिनी' वेब पत्रिका के लिए, फ़रवरी'२०१४ में लिखा गया मेरा 'संपादकीय' http://www.sahityaragini.com/rachna.php?id=209

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

यादें !

यादें ! दिल की अलमारी में करीने से सजाया गया वो सामान, जिन्हें हम खुद ही तितर-बितर कर सहेजा करते हैं. कुछ भूले-बिसरे पल, कुछ खुश्बू देते फूल, कुछ आँसू कुछ मुस्कान, किसी का छूटा हुआ रुमाल, कहीं मुड़ा-तुडा कागज, कोई किताब, कोई कविता, किसी का टूटा पेन, बस की टिकट, इस्तेमाल किया हुआ सामान, पसंदीदा रंग, कोई तस्वीर या फिर उसके द्वारा खींची गई बस एक लकीर, लेकिन हर हाल में यादों के इस गुलाबी झोंपड़े में हम सब कितने अमीर ! ये बित्ते भर का दिल; पर इसकी सब कुछ सहेजने की क्षमता अपार है ! हम सब के पास, न जाने कितनी अजीबो-ग़रीब यादें और उनसे जुड़ा सामान बरसों सुरक्षित रखा रहता है, जो कि ज़मीन के बढ़ते भाव की तरह बरस-दर-बरस और कीमती होता जाता है ! किसी की धड़कनें एक ख़ास गीत को सुनकर ही बढ़ जाती हैं, तो कभी उसके शहर का नाम ही दिमाग़ में घूमता रहता है. साथ में पी हुई उस चाय की खुश्बू और वो लकड़ी की बेंच भी कितना याद आती है. एक ही थाली में खाना और फिर चुपके से उसके गिलास से पानी पी लेना इतना रोमांटिक हो सकता है, किसे पता था. सफ़र में बस का अचानक से रुकना और फिर उन दोनों का मन-ही-मन ये सोचना कि बस वहीं खराब होकर खड़ी रहे तो कितना अच्छा हो ! प्रेम की यह सोच कितनी मासूम और अद्भुत है. कभी-कभी तो इस दिल पर ही तरस आता है. कैसे संभाल लेता है ये इतनी यादें, वो भी आजीवन. या ये कहूँ कि इस दिल और इसमें बसी यादों के सहारे ही लोग बरसों जी लेते हैं. न जाने क्या सच है और कितना, पर जैसा भी है; है बड़ा ही खूबसूरत ! जीवन में कुछ बातें यकायक ही होती हैं, हाँ..प्रेम भी ! पर यह अहसास ही अनगिनत मधुर स्मृतियों का जन्मदाता भी है और संरक्षक भी !

यादों की महत्ता उन बूढ़ी आँखों से पूछो, जो आज भी संजोया करती हैं. बच्चे का जन्म, उसकी उंगली थामकर चलना सिखाना, स्कूल का पहला दिन. रिपोर्ट-कार्ड और असंख्य यादगार पल ! पिता कैसे दिन-रात मेहनत कर उनकी शिक्षा के लिए एक-एक पाई जोड़ा करते थे और माँ की आँखें आज भी उन दिनों को याद कर भीग जाती हैं, जब बच्चे को दोस्त के घर से आने में देरी हुई थी. आते ही कैसे डांटा था उसे और फिर खुद ही फफककर रो दी थी, ये कहते हुए.." जानता नहीं, कितनी चिंता हो जाती है ?' बच्चे सच में नहीं जानते-समझते ये सब बातें, जब तक वो खुद माँ-बाप नहीं बन जाते ! उस समय तो कंधे उचकाकर निकल जाते हैं. पर बाद में इन्हीं बातों को याद कर आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वो भी तब, जब उनका नंबर आ चुका हो. समय उन्हें पूरी तरह से जकड़े रखता है. काश, ये भी कभी अपने परिवार के साथ उन यादों को ताज़ा करें !

अकेलेपन में यादों का बड़ा सहारा होता है. यदि दिमाग़ पर ज़ोर न भी देना हो तो एलबम से अच्छा कोई दोस्त नहीं, यहाँ हर चित्र एक कहानी कहता है. इसकी एक और  ख़ास बात यह भी है कि इसमें ज़्यादातर खुशियों के पल ही क़ैद होते हैं. पूरा दिन कैसे मुस्कुराते हुए निकल जाता है, पता ही नहीं चलता ! लेकिन चित्र तब भी ख़त्म नहीं होते. क्योंकि हम रुक जाते हैं, हर इक तस्वीर पर.......एक सिरा पकड़ा नहीं, कि मीलों दूर का रास्ता तय कर लिया जाता है. दोस्तों के साथ स्कूल, कॉलेज की मजेदार बातें, किसी दूसरे का टिफिन उसके खाने के पहले ही खाली कर देना, एक की नोटबुक दूसरे के बेग में चुपके से डाल देना और खी-खी कर हँसना, किसी का अपनी टीचर पर ही क्रश देख उसकी खिल्ली उड़ाना फिर खुद ही जाकर उस टीचर को ताड़ना और न जाने ऐसी कितनी ही बेवकूफ़ियाँ ! कैसे जी लिया करते थे उन दिनों ! जिन्हें नींद नहीं आती, वो इन्हीं सुंदर पलों का तकिया लगाकर, मुस्कुराते हुए चैन से सो सकते हैं !

यादें धुंधली पड़ जाती हैं, पर कभी साथ नहीं छोड़तीं ! ये न मिटती हैं, न रूठती हैं, न लड़ती-झगड़ती हैं. हर हाल में दामन थामे रखतीं हैं ! कचोटती भी बहुत हैं, कुछ खुश्बूदार-सी यादें अकेलेपन की क़सक जीवित रखती हैं. पर जो यादें जीवन-पर्यंत अपना रूप नहीं बदलतीं, वो हैं बचपन की यादें ! नानी-दादी के यहाँ कुलाँचें भरकर दौड़ना. अपनी पसंद के खाने की फरमाइश करना, उनके साथ ज़िद मचाकर हर जगह जाने के लिए तैयार रहना, वो भागकर पलंग के नीचे घुसकर चुपचाप से अपनी चप्पल पहन आना और उनके पूछने पर हँस के कह देना कि "हम भी साथ जाएँगे". माँ पल्लू के नीचे से बोला करती कि रहने दे, क्यूँ परेशान कर रहे हो उन्हें ! और ऐसे में अचानक से दादाजी का ये कहना, "कोई बात नहीं, ले जाता हूँ". सुनते ही चेहरा कैसे चमचमाने लगता था ! बात-बेबात अपने ही माता-पिता को धमकाए रखना और फिर चुपके से दादी के पीछे छिप ऐसा मुँह बनाकर देखना, कि वो दोनों खुद ही आगे बढ़ गले लगाने को विवश हो जाएँ !
  
हम सब कभी-न-कभी बल्कि ज़्यादातर ही, ज़िंदगी को कोसा करते हैं..अपने संघर्ष, मुश्किल भरे दिन, आर्थिक हालात और बचपन की खोई मासूमियत को याद कर अपने-आप को और भी परेशान करते हैं. पर दरअसल हमें इसी बचपन का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, क्योंकि इसी ने हमें जीना सिखाया ! पूरे वर्ष आप कहीं भी घूमें,पर ग्रीष्म-अवकाश  में बच्चों को ननिहाल-ददिहाल ज़रूर ले जाएँ ! जीवन और इससे जुड़े कितने ही लोग , कितनी यादें दे जाते हैं, वक़्त के साथ कभी वो ज़ख्म बनती हैं, कभी मरहम...लेकिन बचपन की यादें कभी अपना रंग नहीं बदलतीं, ये जीवित ही रहती हैं, मरते दम तक...ज़िंदा रखें इन्हें, अपने-अपने घरों में ! कुछ ऐसी यादें, जिनके सहारे आप जी सकें.....! ये जब तक साथ हैं, मरने नहीं देंगीं ! चाहें वो एक दिन की हों या बरसों की...... !
तो क्यूँ न सॅंजो लिया जाए, कुछ और सुनहरी यादों को, जी लेते हैं कुछ और बेहतरीन पल, जोड़ लेते हैं कुछ और मधुर स्मृतियाँ, अपने वर्तमान को भरपूर समय देकर, इसे और भी सुंदर बनाकर ! क्योंकि ज़िंदगी अभी बाकी है.......!

- प्रीति 'अज्ञात'
तस्वीर : एक मित्र से साभार !

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

यूँ भी तो होता है....



चित्र - गूगल सर के गॉगल
क्लेमर : नीचे दी गई घटनाएँ पूर्णत: सत्य हैं और इनका हर 'जीवित' या 'मृत' व्यक्ति से सीधा संबंध है. इसे पढ़कर आपका किसी अपने को याद करना महज़ संयोग नहीं, बल्कि हक़ीक़त है. इसे खुद से जोड़कर ज़रूर देखें ! :D

'शिक्षक-दिवस' पर याद आते हैं सभी गुरुजन, आचार्य जी, सर, मेडम और कुछ बेतुके नाम भी, जो हम सभी मस्ती मज़ाक में अपने प्यारे शिक्षकों को दे दिया करते थे. इससे उनको दिया जाने वाला सम्मान कम नहीं होता था, वो तो बस हमारा 'कोड-वर्ड' हुआ करता था... सबको आगाह करने के लिए. इस मामले में लड़कियाँ भी कम नहीं होतीं. पढ़ाई में काफ़ी अच्छी रही हूँ, पर ऐसी बातों में भी खूब दिमाग़ लगता था. तब हमारी टोली के अलावा ये नाम किसी को पता नहीं होते थे, तो हम बड़ी ही सहजता से सबके सामने भी वो नाम ले लिया करते थे. कई बार तो 'टीचर' के सामने भी ! :P असली नाम तो आज भी नहीं बताऊंगी, क्योंकि उनके लिए हृदय में अभी भी उतना ही सम्मान है और जैसी भी इंसान बनी हूँ, अपने माता-पिता और शिक्षकों द्वारा दी गई सीख को अपनाकर ही.

खैर..इस लिस्ट में सबसे ऊपर नाम आता है, हम सबके पसंदीदा 'पॉपिन्स' सर का..उनकी आँखें खूब गोल-मटोल थीं और हर विषय पर बखूबी बोलते थे, मैं उनकी प्रिय विद्यार्थी थी, सो अपनी पसंदीदा गोली का नाम ही हमने उन्हें दे डाला. नये जमाने के लोगों को बता दें, कि ये संतरे के स्वाद वाली अलग-अलग रंगों की खट्टी-मीठी गोलियाँ हुआ करती थीं, जो बाद में और फ्लेवर में भी आने लगीं थीं. इतने ही शानदार थे, हमारे 'पॉपिन्स' सर ! :)

'कन्हैया' सर साँवले-सलौने, प्यारी-सी मुस्कान वाले हुआ करते थे, ये हमें पढ़ाते भी नहीं थे. लेकिन कॉलेज में आते-जाते बस एक बार इनके दर्शन हो जाते, तो बस...हम सबका दिन बन जाता था. कई बार किसी मित्र को वो नहीं दिखते, और हमें पूछ बैठती तो हम बड़े ही आराम से बता देते..अभी नहीं मिलेंगे. वो तो फलानी क्लास में बाँसुरी बजा रहे हैं. वैसे इसे सामान्य भाषा में 'पीरियड लेना' भी कहा जा सकता था ! :D

'मधुमती' और 'चिड़िया' जी भी थीं. एक के लड्डूनुमा केशों की, मोगरे के महकते फूल बाउंड्री बना दिया करते थे, पढ़ाई के साथ-साथ बगीचे की खुश्बू से हम सब खूब मंत्र-मुग्ध हो उठते. जिस दिन वो गजरा लगाना भूल जातीं, उनसे ज़्यादा अफ़सोस तो हमें होता..यूँ लगता था, मानो रेगिस्तान में ऊँट की तरह घिसटते हुए चले जा रहे हैं.  :( वक़्त काटे न कटता ! बार-बार घड़ी को घूरते, तो वो हमें घूरने लगती. गोया कह रही हो,' मैं तो एक मिनट में ६० बार ही चलूंगी, तेरा मन हो :/  तो ब्लेंडर में घुमा दे. 'चिड़िया' जी भी बहुत अच्छी थीं. बस, उनकी फिक़्र बहुत होती थी. वो डाँटने के बाद मुँह बंद करना भूल जाती थीं. हम सबको डर लगता, मच्छर वगेरा न चला जाए. Well, It was a serious concern, you know ! सोचो, क्या हाल होता होगा, उस स्टूडेंट का..जिसको ज़्यादा हँसने की वजह से खड़ा किया गया हो और उसके खड़े होते ही हम भोलेपन में टीचर से कहें..'मेम, देखिए ना वो पेड़ पर कित्ती सुंदर चिड़िया बैठी है' :P ...उफ्फ, उसकी विवशता पर कलेजा मुँह को आता था. क़िस्मत है कि पूरी स्कूल, कॉलेज लाइफ में कभी किसी से कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ. इन फॅक्ट, सबको हमारी इस कला पर बड़ा नाज़ था ! :D

'बैंगन राजा' का त्वचा के रंग से कोई लेना-देना नहीं है, हाँ, बैंगनी उनका पसंदीदा रंग लगता था और मजेदार बात ये थी कि वो स्कूटर से उतरने के बाद भी हेल्मेट नहीं उतारते थे,  :( इसलिए मजबूरी में उन्हें ये नाम देना पड़ गया था. उनके बारे में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
Volcano हमारे H.O.D.हुआ करते थे, भयानक गुस्सा और उसके बाद सब एकदम शांत..और फिर उर्वर भूमि में हम सब खूब दिल लगा पढ़ते थे.

बहुत-सी बेहतरीन यादें हैं, यादगार किस्से हैं. मैं स्वयं भी एक वर्ष, कॉलेज में प्राध्यापिका रही हूँ. सच्ची बोलूं तो, अपने स्टूडेंट्स के अच्छे मार्क्स आने की चिंता के अलावा मुझे इस बात की भी बड़ी उत्सुकता रहती थी, कि इन 'दुष्ट' लोगों ने मेरा नाम क्या रखा होगा ! अपनी ग़लतियों का फल, इसी जन्म में मिलना चाहिए ना ! वैसे अच्छे थे सभी और सम्मान भी खूब करते थे, पर वो गुण तो मुझमें भी थे..तो भी मैं कहाँ मानी ! :P
खैर...'गुरु-शिष्य' परंपरा भी सच है और ये भी होता ही है...हर समय, हर कोई सज्जन नहीं हो सकता है, शैतानी इस उम्र का अहम हिस्सा है. आज भी ये 'दिवस' वगेरा मुझे बहुत अच्छे लगते हैं..कहने की बात है कि हर दिन, हर दिवस मनाना चाहिए ! कौन मनाता है ? किसके पास इतनी फ़ुर्सत है ? लोग जन्म दिवस भी भूल जाते हैं, आजकल फ़ेसबुक नोटिफिकेशन की कृपा है, कि हम अंजान चेहरों को भी बधाइयाँ दे सकते हैं. वरना अगर ये तिथियाँ और दिवस न हों, तो हमारे और चींटी के जीवन में फ़र्क़ ही क्या ? बस मेहनत करो और रेंगते रहो......हँसोगे कब ? :O

* MORAL : हर पल, हर दोस्त, हर रिश्ता बहुत कुछ सिखाता है. एक बच्चा अपनी मासूमियत से बहुत कुछ सिखा सकता है और वृद्ध अनुभवों से. सीखने में झिझक कैसी ? यही तो जीवन है....जिसकी कक्षा में प्रतिदिन शिक्षक बदलते हैं ! अपने पसंदीदा शिक्षक का साथ कभी न छोड़ना, ताने देंगे..डाँटेगे भी...... पर उनसे ज़्यादा परवाह और कोई नहीं करता ! :)
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 3 सितंबर 2014

शाम की अपनी कहानी है....सारे दिन की व्यस्तता और मन की बेवजह उड़ान एक अनचाही-सी थकान पैदा कर देती है. हृदय की धड़कन, अभी सुस्त है, पर रुकी नहीं. लेकिन फिर भी मन निढाल-सा, मायूस हो ठहर जाता है कहीं ! ये कैसा इंतज़ार है, जो थमता ही नहीं ! हर उदास शाम, यूँ ही बैठ जाना और सुबह होते ही, अचानक पंख फड़फड़ा दुगुनी तेज़ी से उड़ जाना ! न जाने, रोज ही ये हिम्मत कैसे टूटती है और रोज ही इतना हौसला कहाँ से पैदा होता है. खैर, जो भी है ; ज़रूरी है, इसका होना भी ! चलते रहना ही तो जीवन है और जब तक जीवन है, चलो..कुछ क़दम यूँ भी सही! 

- प्रीति 'अज्ञात'
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गुरुवार, 28 अगस्त 2014

शतायु भव:

जीवन, ज़िंदगी, साँसें, धड़कन, आरज़ू, प्रेम, इंतज़ार, मायूसी, कभी खुशी कभी ग़म की तर्ज़ पर डूबती-उतराती ये ज़िंदगानी. चाहे कितनी भी शिक़ायत हो इससे, पर जीने की ललक क़ायम रहती ही है. बहुत सी उम्मीदों का पूरा होना बाकी है, कुछ और नये ख्वाब संजोना बाकी है, ज़िम्मेदारियों को निभाना बाकी है, रिश्तों को अपनाना बाकी है...और भी न जाने कितना कुछ ! पर जिस तरह 'जीवन' एक सत्य है, ठीक वैसे ही 'मृत्यु' भी. आज जिसने जन्म लिया है, उसका जाना भी तय है. सभी लोग एक उम्र पूरी करके ही जाएँ, यह भी नहीं होता. कभी अस्वस्थता, कभी दुर्घटना, कभी प्राकृतिक विपदा और कभी यूँ ही अचानक चले जाना, किसी के भी साथ हो सकता है ! हमारा हर दिन इसी 'क्या खोया, क्या पाया' के हिसाब-क़िताब में निकल जाता है, और ज़्यादातर निराशा ही हाथ लगती है. भयानक त्रासदी से सामना सभी का होता है, मेरा भी कई-कई बार हुआ. मौत को कई बार चक़मा भी दिया ! २००१ के भूकंप का गहरा असर पड़ा मुझ पर, भुगता जो था ! उन क्षणों ने जैसे एक ही पल में जीवन की सच्चाई से रूबरू करा दिया था, कि 'जान है तो, जहान है'. तब से लेकर आज तक हर पल की क़ीमत का अंदाज़ा रहने लगा है, मुझे ! जितना कुछ बन पड़ा, समाज के लिए भी करती गई. पर एक सवाल फिर भी मन में था, मेरे जाने के बाद क्या ?

२ वर्ष पूर्व अचानक ही 'शतायु' का पता चला. शायद अक्तूबर २०१२ की ही बात है. यह संस्था, जीवन के बाद भी जीवन देने को संकल्पित है. यानी आपकी मृत्यु के बाद, आपके शरीर के अंगों को किसी और के जीवन के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ! हम चाहते हैं, आप सभी हमेशा स्वस्थ, प्रसन्न रहें, शतायु हों....पर मृत्यु की सच्चाई को भी स्वीकारना ही होगा. तो क्यूँ न खोखली आस्थाओं के भ्रम में न पड़ा जाए और अपने Organs, Donate कर दिए जाएँ..क्यूँ न हम ज़िंदा रहें कहीं, हमारे जाने के बाद भी....क्यूँ न हमारी साँसों के टूटते ही, कोई 'जी' उठे कहीं. क्यूँ न प्लास्टिक और पेपर की तरह ही खुद को भी recycle कर दिया जाए. हर शहर, हर हॉस्पिटल में इस बारे में जानकारी ज़रूर मिलेगी. कितनी खुशी की बात है, जीते हुए भले ही किसी का भला न कर सके पर जाते हुए 'कमाल कर जाना' ! कैसा अहसास होगा, हमारे अपनों के आँसुओं के बीच, कहीं 'एक बुझती लौ का जल जाना' ! शतायु भव:!
                DONATE ORGANS
           :)  LET'S RECYCLE LIFE ! :)

- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

'स्वतंत्रता'.... महसूस क्यों नही होती ?

चित्र - गूगल से साभार
सोमवार से लेकर शनिवार तक, हम सभी की दिनचर्या कितनी नियमितता से चला करती है. वही समय पर उठना, रोजमर्रा की दौड़-भाग भरी ज़िंदगी, काम पर जाना, तय समय पर लौटना और सुकून भरे कुछ पलों की तलाश करते हुए एक और सप्ताह का गुजर जाना ! लेकिन शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है ! बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं. उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं ! 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो. पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं ! 'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है'. पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है ? आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नही, पर एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी ?

स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या 'कर' पाते हैं ? वो तो दूसरों के हिसाब से करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हुमारे नियम, हुमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहाँ अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत ? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है. क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है ? ध्यान रहे, यहाँ एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊँचे पदों पर आसीन शाही लोगों की नहीं ! इसी 'आम नागरिक' की तरफ से कुछ सवाल हैं, मेरे -

* अगर मैं स्वतंत्र हूँ तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती ? कहीं पढ़ा था कि "स्वतंत्रता, स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव को कहते हैं, ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच समझकर सब काम करने का अधिकार होता है".
* तो फिर, किसने छीन ली है मेरी आज़ादी ?, मुझे मेरे कर्तव्य तो हमेशा से दिखते आए हैं, पर मेरे अधिकारों का क्या हुआ ? उन्हें पा लेना मेरी स्वतंत्रता नही ? स्त्री और पुरुष के बीच अधिकार और कर्तव्य का ये कैसा बँटवारा, कि स्त्री के हिस्से में कर्तव्य आए और पुरुषों के में अधिकार? किसने तय की है स्वतंत्रता की ये परिभाषा ? क्या संविधान ऐसा कहता है ?
* मैं रोज ही देखा करती हूँ उसे, कभी कचरे में से सामान बीनते हुए, कभी सर पर स्वयं से भी अधिक बोझा ढोते हुए, कभी  वो किसी होटल में मेहमानों का कमरा साफ करते हुए अपनी 'टिप' के इंतज़ार में दिखता है तो कभी किसी रेस्टौरेंट में बर्तन मांजते हुए चुपके-से एक नज़र दूर चलते हुए टी. वी. पर डाल लिया करता है. मंदिर की सीढ़ियों पर उसे रोते-सूबकते उन्हीं उदार इंसानों की डाँट खाते हुए भी देखा है, जो अपने नाम का पत्थर लगवाने के हज़ारों रुपये दान देकर उसके पास से गुजरा करते हैं, इन सेठों के जूते-चप्पल की रखवाली करता बचपन अपनी स्वतंत्रता किसमें ढूँढे ?
* इन मासूम बाल श्रमिको और आम नागरिकों में बस इतना ही अंतर है, कि हमें अपने अधिकारों का बखूबी ज्ञान है. पढ़े-लिखे जो हैं, क़ानून जानते हैं, सुरक्षा के नियम भी बचपन में ही घोंट लिए थे, तभी दुर्भाग्य से समानता के बारे में भी पढ़ बैठे थे कहीं ! ये तो मूलभूत अधिकार था....बरसों से है ! आख़िर ये समानता इतने बरस बीत जाने पर भी दिखती क्यूँ नहीं ? सब धर्मों को समान अधिकार है, तो कोई दंभ में भर, खुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इतना लालायित क्यों रहता है ? सब वर्ग समान ही हैं, तो हमारे आसपास रोज ही कोई युवा बेरोज़गार, आरक्षण से इतना निराश क्यों दिखाई देता है ? सुरक्षा का अधिकार है तो अकेले निकलने में डर क्यों लगता है ?
* क़ानून है तो न्याय के इंतज़ार में जीवन कैसे गुजर जाता है? सरेआम अपराध करने पर भी, अपराधी बच क्यों जाता है ?. ये समाज और इसके दकियानूसी क़ानून, कुछ स्थानों की सड़ी-गली मान्यताएँ और उनका पालन करने को उत्सुक पंचायती लोग जो, कर्तव्य-पालन से चूक जाने पर सज़ा देना कभी नही भूलते पर स्त्री के अधिकारों की माँग पर कायरॉं से भाग खड़े होते हैं, सवाल करने पर इन्हें अचानक साँप कैसे सूंघ जाता है? इनके बनाए नियम, ये कभी खुद पर क्यों नहीं आजमाते ?
* कौन है, जिसने स्त्री की स्वतंत्रता को छीनकर कर्तव्य की गठरी और तालाबंद अधिकारों की एक जंग लगी संदूकची उसके दरवाजे रख दी है. वो जब-जब उस संदूकची को खोलने का दुस्साहस करे, तो उसके सर और दिल का बोझ दोगुना कैसे हो जाता है ? अगले ही दिन वो टुकड़ों में पड़ी क्यों मिलती है ?
* कौन सी सरकार है, जो स्त्रियों के आत्म-सम्मान को वापिस देगी ? कौन सा दल है जो चुनाव के वादों के बाद सिर्फ़ 'अपनी' नही सोचेगा ? कौन सी अदालत है, जो निर्भया को निर्भय हो जीना सिखा पाएगी ? 
* कौन से अख़बार या टीवी चैनल हैं, जो निष्पक्ष हो खबरें बताएँगे ? 
.ये सब तो फिर भी परिभाषित हो सकेगा पर मानसिक स्वतंत्रता ? उसे पाने के लिए किस युग में जाना होगा ?

मेरी स्वतंत्रता मेरे पास नहीं, मेरे अधिकार मेरे पास नहीं ! मेरे पास भय है..कि मुझे हर हाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, भय है सुरक्षा का, अपने धर्म, संस्कारों के पूर्ण-निर्वहन का...क्योंकि उनको 'ना' कहने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं. मैं विश्वास रखती हूँ हर धर्म में..पर यदि कोई किसी धर्म विशेष के बारे में बुरा बोल रहा है, तो उसे रोकने की स्वतंत्रता मेरे पास नही, मेरे पास उस वक़्त भय होता है, अधर्मी कहलाने का, सांप्रदायिकता फैलाने का ! बाज़ार से गुज़रते हुए मैं सरे-राह क़त्ल होते देख सकती हूँ, शायद कुछ पल ठिठक भी जाऊं, पर संभावना यही है कि मैं डर से छुपकर या अनदेखा कर आगे बढ़ जाऊं ; उस अपराधी को रोकने की स्वतंत्रता नही है मेरे पास ! सिखाया गया है इसी समाज में, कि दूसरे के पचड़ों में न पड़ना ही बेहतर, वरना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा ! मुझे जान प्यारी है, अपना घर, परिवार, दोस्त सभी प्यारे हैं.....इसलिए मैं दंगों में खिड़कियाँ बंद कर लेती हूँ, हिंसा आगज़नी के दौरान घर से निकलना छोड़ देती हूँ..मैं बलात्कार की खबरें देख सिहर उठती हूँ..और घबराकर बहते हुए पसीने को पोंछ, अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचा करती हूँ..जो मिली तो थी, कई बरस पहले ! हाँ, वर्ष याद है मुझे, सबको याद है. क़िताबें भी इसकी पुष्टि करती हैं ! पर कोई ये नही बताता कि तब जो स्वतंत्रता मिली थी, वो अब कहाँ खो गई ? किसने छीन ली, हमारी आज़ादी ? क्या उन स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान व्यर्थ गया, जिन्होंनें इसके लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ? मुझे संशय है कि दूर-दराज आदिवासी इलाक़ों में उस 'आज़ादी' की खबर अब तक पहुँची ही नहीं ? उनके हालात तो यही बयाँ करते हैं ! पर फिर भी लगता है कि वे ज़्यादा स्वतन्त्र हैं, अपनी मर्ज़ी का खाते-पहनते हैं, इन्हें लुट जाने का भय नहीं, ये धर्म के लिए लड़ते नहीं, शिक्षा का अधिकार इन्होंने सुना ही नहीं !

जो मिली थी कभी, उस 'आज़ादी' का 'खून' तो हम भारतीयों की आपसी लड़ाई ने स्वयं ही कर दिया है ! स्वीकारना मुश्किल है, क्योंकि हमारी मानसिकता दोषारोपण की रही है और इसमें विदेशी ताक़तों का हाथ कैसे बताएँ ?
सच तो ये है कि आम भारतीय के लिए आज का दिन आज़ादी के अहसास से भावविभोर होने से कहीं ज़्यादा, 'छुट्टी का एक और दिन' होना है. जिसके रविवार को पड़ने पर बेहद अफ़सोस हुआ करता है !
आज रविवार नहीं, इसलिए मुबारक हो !
आज के दिन अपने स्वतंत्र होने के भाव को दिल खोलकर जी लीजिए ! देशभक्ति के गीत, लहराता तिरंगा, स्कूलों से मिठाई ले प्रसन्न हो घर लौटते बच्चे, परिवार के साथ समय गुज़ारते हुए कुछ लोगों को देख हृदय बरबस कह ही उठता है - 
स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएँ !
नमन उन शहीदों को, सभी वीर-वीरांगनाओं को ! जिनका त्याग और समर्पण हम संभाल न सके ! 
अब भी वक़्त है, आइए अब बेहतर राष्ट्र-निर्माण के लिए एक प्रयत्न हमारी ओर से भी हो ! सच्चे राष्ट्रभक्तों के बलिदानों को हम यूँ व्यर्थ नहीं जाने दे सकते ! एक सफल प्रशासनिक ढाँचा ही हमें सच्ची स्वतंत्रता दिलवा सकता है और इस ढाँचे को बनाने में सभी भारतवासियों का योगदान अत्यावश्यक है ! पहला क़दम उठाना ही होगा ! ईश्वर हम सभी को इस लक्ष्य प्राप्ति में विजयी बनाए, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ, जय हिंद !
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

'माँ' जैसी

माँ अक़्सर ही अपनी रोटियाँ जल्दी में बनाया करतीं थीं. सबको गरमागरम, मुलायम, घी लगी रोटियाँ परोसने के बाद कभी अधसिकी, कभी जली हुई, कभी दो तो कभी उतने ही आटे से बनी एक मोटी रोटी पास ही तश्तरी में रख दी जाती. उसके बाद चूल्हा साफ किया जाता, फिर प्लेटफॉर्म. उसके बाद आँचल से हाथ पोंछते हुए उसी तश्तरी में सब्ज़ी, चटनी, सलाद सारी घिचपिच करके और एक कटोरी में दाल ले, जैसे-तैसे खाना निबटाया जाता. पापड़ अपने लिए तो कभी सेका ही नहीं, किसी-न-किसी का बचा हुआ, ढीला, सीला खाकर ही संतुष्ट हो जातीं. बहुत चिढ़ हुआ करती थी, मुझे. कितनी बार गुस्सा भी किया, कई बार उठकर उनके लिए दूसरी रोटी बना लाती. पर वो हमेशा यही कहतीं, "अरे..मेरा तो चलता है, स्वाद तो वही है ना". मैं पलटकर कहती.."अगर स्वाद वही है, तो कल से हम सभी को भी वैसी ही रोटी बनाकर दो". वो निरुत्तर हो हँसने लगतीं. कभी-कभी मुस्कुराकर कह भी देतीं थीं, ...."जब माँ बनोगी, तब समझोगी". मैं झुंझला जाती और चिल्लाकर कहती, ..."जाओ, मैं शादी ही नहीं करूँगी कभी".

पर कहने से क्या होता है...शादी हुई, ससुराल आई. आम भारतीय नारी की तरह जीवन चलने लगा. पूज्य ससुर जी के निधन के बाद सासू-माँ के साथ हमारे शहर में रहने लगे. एक दिन अचानक ही कुछ बात चली और उन्होंनें मुझे कहा..." तू मेरे लिए कुछ स्पेशल न बनाया कर, मैं तो सुबह का बचा भी खा लेती हूँ " उस दिन बहुत जी दुखा मेरा, और मैंनें उन्हें कहा..."आप घर की सबसे बड़ी हैं, और विशिष्ट भी..आपके लिए कुछ करना मुझे अच्छा लगता है, करने दीजिए". वो हैरान हो मेरा चेहरा देख रहीं थीं, पर उन्हें ये सुनकर कहीं प्रसन्नता भी हुई थी, उनकी आँखों की नम कोरें इसका प्रमाण थीं. उन्हीं दिनों मेरी भाभी जी (जेठानी जी) के यहाँ भी जाना हुआ. वहाँ भी मिलता-जुलता दृश्य...भाभी बच्चों की प्लेट में ही अपना खाना लगा लिया करतीं और उनके बचे-खुचे के साथ थोडा और परोसकर भोजन शुरू कर देतीं. कई बार ऐसा भी होता कि कुछ बचा होता...तो बच्चों को कहतीं.."प्लेट इधर दे जाओ, मैं खा लूँगी". मुझसे रहा नहीं गया और मैंनें तुरंत ही कहा.."भाभी, आपका खाना तो हो गया था, फिर आपने क्यों लिया?" उनका जवाब था...."अरे, फिंकता, बेकार जाता, सो..खा लिया". मैंनें सवाल किया.."आप डस्ट-बिन हो, जो सबका बचा-खुचा आपको ही समेटना है, आपके स्वास्थ्य की परवाह नहीं?" वो सोच में पड़ गयीं थीं. पर एक वर्ष बाद जब हम मिले, तो उन्होने कहा कि.."मैंनें कभी ध्यान ही नहीं दिया था, इस बात पर. मेरे बढ़ते हुए वजन का एक कारण ये भी था. उन्हें खुश देख मैं और भी खुश हो गई थी. समय बीतता गया.

पर आज कुछ ऐसा हुआ, कि ये सभी यादें एक साथ ताज़ा हो गयीं. मैं खाना लेकर बैठी ही थी, बेटी ज़िद पर थी, कि आपके ही साथ खाऊंगी. मेरे आते ही उसने रोटियाँ बदल लीं. मैंनें उसके हाथों से छीनने की बहुत कोशिश की पर वो नहीं मानीं. उसके चेहरे पर वही चिढ़ थी और आँखों में वैसा ही दुख ! सच में बहुत ही बुरा लगा मुझे ! आँखें नम हैं, वक़्त के साथ पता ही नहीं चला, कि कब मेरी बेटी बड़ी हो गई और मैं 'माँ' जैसी !

- प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 19 जुलाई 2014

'मैगी' साहित्य

हम वही खाते हैं, जो परोसा जाता है. हिन्दी सिनेमा में द्विअर्थी संवाद या गानों के लिए आजकल यही तर्क़ दिया जाता रहा है. दर्शक फिल्मकारों पर सामाजिक पतन का दोष मढ़ते हैं और फिल्मकार इसे अपनी मजबूरी और 'यही चलता है', कहकर टाल देने का प्रयत्न करते हैं. ठीक यही स्थिति हिन्दी साहित्य की भी होती जा रही है. कुछ भी, कैसी भी, ऊल-जलूल भाषा में लिख देना और फिर उसका छप जाना बेहद प्रचलित हो गया है. ऐसे में भाषा के स्तर से ज़्यादा ध्यान मार्केटिंग पर दिया जाता है. जितना अच्छा प्रचार, उसी के अनुपात में बिकना तय होता है. साहित्यकार अब व्यापारी होता जा रहा है. अब पहले वह ये पता लगाता है कि मार्केट में चल क्या रहा है ? फिर उसी के हिसाब से सब तय होता है. प्रकाशक और उसके बीच गठबंधन-सा होने लगा है. भाषा, मुखपृष्ठ श्लील हो या अश्लील, इससे किसी को इतना फ़र्क़ नहीं पड़ता, बिकना प्राथमिकता है. बल्कि कुछ लोग तो इसे अपनी आधुनिक सोच का तमगा पहनाने में भी नहीं हिचकते. एक सच ये भी है कि अच्छे साहित्य के लेखकों, पाठकों और प्रकाशकों की आज भी कमी नही, कमी उन्हें पूछने वालों की है और कई तो इसी कुंठा में आलोचक बन बैठे हैं. साहित्यकार बनना अब २ मिनिट मैगी जैसा है, १ किताब बाज़ार में आई नहीं, कि सारे पुरस्कारों के साथ लेखक / लेखिका / कवि ( तथाकथित पढ़ें ), सब इठलाए घूमते हैं.

प्रेमचंद जी की 'ईदगाह' में जब हामिद, अमीना को चिमटा देते हुए अपराधी-भाव से कहता है..- "तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।"... तब कैसे हम सबका मन हामिद को सब कुछ ख़रीदकर देने का हो जाता था. बचपन में पढ़ी उस कहानी के नन्हे हामिद की यह भावना आज तक दूसरों के लिए पहले सोचने को विवश कर देती है. निराला जी की 'वह तोड़ती पत्थर' ने हमें मेहनत और लगन से काम करने की प्रेरणा स्कूल के दिनों से ही दी है. सुभद्रा कुमारी चौहान जी की 'खूब लड़ी मर्दानी' आज भी नस-नस में देशभक्ति और वीर रस का संचार कर देती है. कहने का तात्पर्य यही है कि साहित्य का हमारे चरित्र और सोच पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. हमारी इच्छा शक्ति, दृढ़ता, देश के लिए मर-मिटने की भावना और आत्म निर्माण में साहित्य गहरी भूमिका निभाता है. अच्छे विचार, अच्छा लेखन ऊर्जा-संचारक और प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में कार्य करते है. कहा ही गया है.."पुस्तक सच्ची मित्र होती है".....ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है, कि लिखी जाने वाली भाषा पठनीय व स्तरीय हो. क्योंकि अश्लील साहित्य से उत्थान संभव नहीं, हाँ ये पतन का कारण अवश्य बन सकता है.

- प्रीति 'अज्ञात'
* इस विषय पर हुई परिचर्चा के लिए इस लिंक पर जाएँ -
http://www.sahityaragini.com/rachna.php?id=444

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

जज़्बाती-संक्रमण :)

बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ, कि न्यूज़ देखने के बाद मूड और भी अच्छा हो गया ! NDTV वालों ने बताया कि FACEBOOK ने ये जो चुपचाप Research की थी ना, अब उसका परिणाम सामने आया है. और इसे 'जज़्बाती-संक्रमण' के नाम से नवाज़ा गया है ! हाईला :P ... कैसा लगेगा, जब हम लोग सरदर्द, तनाव, नींद न आना और भूख न लगने की परेशानियाँ लेकर डॉक्टर के पास जाएँगे और Report में लिखा आएगा...." आप जज़्बाती रूप से संक्रमित हैं ". :D

निदान के तरीके -
*अपने नज़दीकी सिनेमाघर में जाकर फुल्टू मस्ती-हँसी की मूवी देखें. समोसा-पॉपकॉर्न खाएँ और महँगाई को न रोएँ. भले ही यहाँ ८० रु. के २ समोसे और १२० रु. के पॉपकॉर्न आएँ पर चर्चा सिर्फ़ प्याज के बढ़ते दामों की ही करनी है. 
*रोज आधा घंटा दौड़ें, पसीने के साथ ये संक्रमण निकल जाएगा..फिर भूख भी जोरों की लगेगी.
*दिन में ४ घंटे सोना बंद करें, देखो कैसे नींद नहीं आती फिर ! :/
*कम बोलें, इससे आप ही नहीं., आपके आसपास के लोग भी सरदर्द की परेशानी से बच जाएँगे ! :)

MORAL : मुझे शक़ है,  कहीं ये 'डिप्रेशन' का ही प्यार वाला नाम तो नहीं ? :D :P
- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 27 जून 2014

'गर्व से कहो हम भारतीय हैं !'

'गर्व से कहो हम भारतीय हैं !' कहते थे, कहते हैं और आगे भी कहते ही रहेंगे. पर, अब ये कहने में वो पहले सा आत्मविश्वास नहीं रहा. बल्कि कई बार तो ग्लानि ही होती है ! हाँ, आज भी मन-मस्तिष्क में अनगिनत तरंगें उठती हैं, शरीर में फूरफ़ुरी-सी दौड़ जाती है. जब भी अपने राष्ट्र-गान की धुन सुनाई देती है ! हृदय भाव-विह्यल हो उठता है, जब विदेशी धरती पर भारतीय टीम विजय की पताका फहराती है. खुशी से आँखें नम हो उठती हैं जब ओलंपिक में हमारा देश मेडल जीतता है. सुष्मिता सेन के विश्व-सुंदरी बनते ही यूँ पगलाते हैं, जैसे हमें ही वो खिताब मिल गया हो ! अच्छा लगता है जब कोई भारत-वासी नोबल पुरस्कार, या ऑस्कर जीतता है ! यहाँ तक कि उसके भारतीय मूल का होना भी अपार प्रसन्नता दे जाता है और भी ऐसे कई पल अवश्य ही रहे हैं, जब माउंट-एवरेस्ट पर जाकर दुनिया को ठेंगा दिखाने का मन हुआ है ! लेकिन, आज़ादी से लेकर अब तक की खुशियों को गिनने बैठें, तो १०० से ज़्यादा ऐसी घटनाएँ शायद ही ढूँढ सकें !

अब आज का समाचार-पत्र उठाइए.... मात्र एक ही दिन में चोरी, आगज़नी, बलात्कार, लूटपाट, हत्या, अपहरण, यौन शोषण, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की न जाने कितनी खबरें आपको व्यथित कर देंगीं. रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएँ, अपने ही लोगों द्वारा अपनों पर अत्याचार, धर्म के नाम पर मारामारी और उस पर खेली जा रही गंदी राजनीति....कुछ इस अंदाज़ में कि अपने ही देश से घिन होने लगे ! अभी तो इसमें रोज होने वाली दुर्घटनाएँ और प्राकृतिक आपदाओं का ज़िक्र ही नहीं, जिससे समय रहते लोगों की जानें बचाई जा सकतीं थीं !! और बची-खुची क़सर बाकी लोग सब जगह गंदगी फैलाकर, पान की पीक, गुटके के गंदे बदबूदार निशान, सड़कों पर भटकते आवारा कुत्ते और गाय, और उन बेचारों के लिए हमारे ही द्वारा फेंका गया खाना और उस पर भिनकती मक्खियाँ पूरी कर देते हैं ! क्या इस पर गर्व किया जाए ????

किसी भी बात का निर्धारण अनुपात से ही होता है, न ? यदि वर्ष में १-२ अच्छी घटनाएँ और १०,००० से भी ज़्यादा बुरी हों,, तो क्या गौरवान्वित होना जायज़ है ? अफ़सोस नहीं होना चाहिए, कि इतनी अधिक आबादी वाले देश में दुष्कर्मों की संख्या ज़्यादा है ! चिंताजनक स्थिति ये भी है, कि इसके विरोध में बोलने वालों की संख्या बहुत कम है. ज़्यादातर लोग चुप बैठकर तमाशा देखना ही पसंद करते हैं, यही सोचकर कि कौन इन फालतू पचड़ों में पड़े ! कुछ लोग इसे बेमतलब का ज्ञान बाँटना कहकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं, कुछ यह कहकर बच निकलते हैं कि उन्हें ये सब बातें समझ ही नहीं आतीं और बचे-खुचों ने तो यह मान ही लिया है, कि इस देश का कुछ नहीं होने वाला ! ये वही लोग हैं, जो अपने ही राष्ट्र का मज़ाक तो उड़ाते हैं, पर उसे बदलने के लिए खुद कुछ भी नहीं करना चाहते ! पर क्या यह ज़रूरी है, कि वही व्यक्ति आवाज़ उठाए, जिस पर बीत रही हो ?? और हम सब अपनी बारी आने तक तमाशबीन बने रहें ??

सुना था, पढ़ा था और स्कूल की परीक्षाओं के दौरान हिन्दी निबंध में लिखा भी है. विषय होता था- 'अनेकता में एकता', और हम सभी इसमें वही बरसों से घोंट-घोंटकर याद की हुई बातें लिख आते थे...... "भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है, यहाँ सभी धर्मों को समान भाव से देखा जाता है. इतने धर्म, जाति, पहनावा, ख़ान-पान में विभिन्नता होते हुए भी हम सब एक हैं, वग़ैरा, वग़ैरा.." और अंत में यह लिखना कभी नहीं भूले कि....."इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारे यहाँ 'अनेकता में एकता' पाई जाती है." लो जी हो गये मार्क्स पक्के ! पर मन तब भी बहुत कचोटता था, शर्मिंदा होता था क्योंकि ये न तो तब सच था और न ही अब है ! रोज ही सुनाई दे जाते हैं, धर्मगुरुओं के दंभी स्वर....अपने-अपने धर्म के गुणगान के साथ, दूसरे को नीचा दिखाती हुई आवाज़ें ! साधु-संतों के बारे में हमेशा से यही जाना है, कि इनका सबसे प्रमुख गुण धैर्य और संयम है....पर जब इन्हें चीखते-चिल्लाते और अभद्र भाषा का प्रयोग करते देखा तो इनकी विश्वसनीयता पर और भी संदेह हुआ. अगर ये सही हैं, तो फिर इनकी परिभाषाएँ ग़लत हैं. धर्मांधता, आस्था और धर्म-भीरू होना बिल्कुल अलग हैं, पर क्या ये वैयक्तिक नहीं होना चाहिए ? गंदी सोच और घटिया मानसिकता वाले लोगों को इतना प्रचार-प्रसार देने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है ? 'प्रजातंत्र' का ये कैसा घिनौना रूप है ! लेकिन हम भारतीयों की भी एक खूबी है, हम ऐसे लोगों को पूजते बहुत हैं ! खुश भी तुरंत ही हो जाते हैं, कल तक जो १०० बुरी घटनाओं पर दहाड़ें मारकर रोते थे, कुछ अच्छा हुआ नहीं कि खिलखिला उठे !

जहाँ मुखपृष्ठ तमाम राजनीतिक और आपराधिक खबरों से पटा पड़ा है, वहीं अख़बार के किसी कोने में एक छोटा-सा समाचार दिखता है, किसी अच्छी घटना के होने का ! शीर्षक ज़्यादातर यही रहता है...... "इंसानियत आज भी ज़िंदा है !" कैसी विडंबना है, इंसानों के वेश में, इंसानों के देश में.... अपने ही होने का प्रमाणपत्र ढूँढना !
तभी अचानक पीछे से एक स्वर सुनाई देता है....... "गर्व से कहो, हम भारतीय हैं !' 
O' Yeah ! Proud Of It !! 
हमने भी तुरंत ही आंग्ल-भाषा में इसकी पुष्टि करके अपने भारतीय-बुद्धिजीवी होने का पुख़्ता सबूत दे डाला !

-प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

अनजानी सी पहचान

संभवत: दो वर्ष पूर्व की ही बात रही होगी ये ! मैं ट्रेन में सफ़र कर रही थी, दुर्भाग्य से ऊपर की बर्थ ही मिली थी मुझे. मैं उन लोगों में से हूँ, जो ट्रेन में सफ़र करते ही इसलिए हैं कि 'विंडो सीट' का भरपूर मज़ा ले सकें. बाहर के नज़ारे, रास्ते में पड़ते छोटे-छोटे गाँव, रेलवे लाइन के आसपास खेलते-कूदते बच्चे, भागते हुए पेड़, रेलवे-क्रॉसिंग के नीचे रुके लोग और जीभ दिखाते हुए खी-खी करके उन्हें चिढ़ाना मुझे अभी भी खूब भाता है. रात होते-होते ये अफ़सोस भी जाता रहा. ट्रेन में नींद अच्छे से आती नहीं कभी, अपनी और सामान दोनों की ही फ़िक्र. हालाँकि इस समय सामान की उतनी चिंता नहीं थी. ये भी अजीब ही आदत है मेरी, कि लगेज की परवाह जाते समय ही ज़्यादा रहती है, मुझे. लौटते वक़्त तो यही लगता है, कि चोरी हो भी गया तो क्या हुआ, घर ही तो जाना है, अब ! पर हाँ, सबकी गिफ्ट्स का बेग अपने सिरहाने ही रखती हूँ, अभी भी ! खैर...चलती ट्रेन में लिखाई-पढ़ाई मुझसे होती नहीं, पर कुछ विचार बुरी तरह उथल-पुथल मचा रहे थे, सो पर्स में से अपनी डायरी और पेन निकाल ही लिया. माहौल एकदम प्रतिकूल था. लिखते समय जो एकांत चाहिए उसकी उम्मीद रखना भी बेमानी था, मैं दरवाजा बंद करके और कभी-कभार तो पंखे को भी बंद करके लिखने वालों में से हूँ, ज़रा भी व्यवधान हुआ, कि किस्सा ख़त्म ! पर यहाँ ऐसा सोचना भी बेवकूफी थी !

ऐसे में उसकी आवाज़ मुझे बहुत इरिटेट कर रही थी, वो बोले ही चली जा रही थी, चुप न होने का तय करके ही बैठी हो जैसे. तभी मैंनें पूरी गर्दन ही लटका दी और ऊपर से नीचे झाँका, फिर बच्चों से पूछा..'सो गये ना ?' दोनों ने एक साथ मुस्कुराते हुए कहा, 'आपको क्या लगता है ? ' फिर आँखों-आँखों में ही हम तीनों हँस पड़े. तभी कहीं से आवाज़ आई, 'आंटी, मैं डिस्टर्ब तो नहीं कर रही ना ?' मैंनें झट से बोल दिया...'नहीं तो !' पर अचानक ही मैं एकदम असहज-सी हो गई.....आंटी ? हुहह..मेरे जानने वाले तो कहते हैं, कि मैं अभी भी कॉलेज गोइंग टाइप लगती हूँ, और इसने मुझे.......!! फिर खुद ही मन में आए विचार को झटक दिया मैंने, तो क्या हुआ, मेरे को क्या !!! पर सच तो यह है कि मैं मन में खिसिया-सी रही थी..कोई बच्चा आंटी बोले तो चलता है, पर एक शादीशुदा महिला ? यहाँ गौर करने वाली बात ये है, कि महिला शब्द का प्रयोग मैंनें जान-बूझकर ही किया है, वो एक शादीशुदा लड़की ही थी !

न चाहते हुए भी उसकी बातें मेरे कानों में पड़ रहीं थीं. वो अपने आसपास बैठे लोगों से खूब घुल-मिलकर बातें कर रही थी. अपने स्कूल, कॉलेज और दोस्तों की, पसंद-नापसंदगी की और भी जाने क्या-क्या ! अचानक उसकी बातों में मेरे शहर का नाम आया, अरे तो ये भी यहीं की है क्या ? मैंनें पूछना चाहा, पर ऊपर से चिल्लाकर पूछना जँचा नहीं, सो चुप ही रही. थोड़ी देर बाद किसी ने उससे उसका गंतव्य जानना चाहा, अब मेरे भी कान खड़े हो गये थे, एक अजीब सी फ़िक्र होने लगी थी मुझे उसकी...अकेले सफ़र कर रही थी वो, जमाना भी खराब है और मेरे दिमाग़ में ढेरों ऊल-जलूल बातों ने पल भर में ही धरना दे दिया ! जैसे ही उसने फिर से मेरे वर्तमान शहर का नाम लिया, तो मैं उछल ही पड़ी ! बिना उसके पूछे ही मैंनें कह दिया, अरे हम भी वहीं जा रहे हैं. एक तसल्ली सी हुई, कि चलो अब ये खुद को अकेला नहीं समझेगी. हालाँकि उसे देखकर ऐसा बिल्कुल भी लगता नहीं था, कि वो ऐसी तसल्लियों की मोहताज़ भी है ! उसे नींद आने लगी थी शायद, प्यार से मेरी तरफ देखकर बोली..गुड नाइट आंटी ! पता नहीं क्यों, इस बार बुरा नहीं लगा मुझे, और जवाब में हंसते हुए मैंनें भी उसे गुड नाइट कह डाला ! 

हमेशा की तरह सुबह जल्दी ही नीचे उतर आई मैं, बाथरूम भी साफ मिलते हैं और फ्रेश होकर सबसे पहले चाय वाले से चाय लेने का सुख भी अमूल्य होता है. वो भी उठ गई थी, और बातों-बातों में ही उससे अच्छी दोस्ती भी हो गई. एक-दूसरे के नंबर भी लिए हमनें. फेसबुक पर अपने होने की जानकारी भी दी गई. मैं लिखती भी हूँ, इस बात से वो बेहद प्रभावित थी. मैंनें उसे कहा भी, कि मैं इस यात्रा पर ज़रूर लिखूँगी. पर जीवन की जद्दोजहद में कितनी ही प्लान की हुई बातें फेल हो जाती हैं, यहाँ भी यही हुआ ! इस बीच एक बार उससे तभी ही फोन पर बात हुई थी और दो बार कुछ संदेशों का आदान-प्रदान ! पर इतना तो जान ही गई, कि वो बहुत प्यारी इंसान हैं, पागलपन में ठीक मेरी ही तरह, और दूसरों पर तुरंत ही विश्वास कर लेने में भी मेरे ही जैसी ! बस यही दुआ है कि ईश्वर उसके विश्वास को हमेशा बरक़रार रखे. उसे जीवन की तमाम खुशियाँ हासिल हों ! शायद मैं आज भी उसे ये सब ना कह पाती, आज अचानक ही उसके जन्मदिवस का नोटिफिकेशन आया, तो सारी यादें ताज़ा हो गईं ! वैसे भी अब एक नया नियम बना लिया है मैंनें, कि जब जो भी महसूस करो, कह डालो.... बहुत कुछ इसलिए ही पीछे छूट जाता है, कि कह सकने की हिम्मत ही नहीं होती ! पर अब जीवन के उस मोड़ पर हूँ, जहाँ न कुछ पाने की ज़्यादा खुशी होती है और न ही खोने का अफ़सोस ! ये उदासीनता ज़िंदगी का हिस्सा खुद कभी नहीं होती, पर कब शामिल हो जाती है..पता ही नहीं चलता ! जीना इसी को ही तो कहते हैं ना ! खैर....ये बातें फिर कभी !

जन्मदिवस मुबारक हो, प्रिया ! देखो, मैंनें अपना वादा निभा दिया है आज ! :)

प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

'एकालाप'


जानती हूँ, अब यहाँ आने का कोई फायदा नहीं ..फिर भी आती हूँ रोज, उसी तयशुदा समय पर ! ये भी पता है कि अब मेरी हर दस्तक़ का जवाब नहीं मिलेगा या शायद, सुनकर भी अनसुनी कर दीं जाएँगी, कुछ रुंधीं-सिसकती आवाज़ें ! फिर भी खटखटाती हूँ..रोज वही दरवाज़ा ! कई बार ये भी अहसास हुआ है, कि है कोई वहाँ, शायद मुझसे भी ज़्यादा ज़रूरी ! फिर हँस पड़ती हूँ, अपनी ही इसी सोच पर कि मैं ज़रूरी थी ही कब. बिन बुलाए हर समय उपस्थित, मैंनें तुम्हें मुझे 'मिस' करने का मौका ही नहीं दिया न ! हा-हा-हा, तुम्हें भी पता ही है, कि इसका कोई और ठौर नहीं...नाराज़ होगी या खुश, आएगी तो इधर ही ! इसी निश्चिंतता ने तुम्हें, मुझसे दूर कर दिया है...हाँ, तुमने इसे व्यस्तता का सुखद नाम देने की कोशिश बहुत बार की है. यह एक लंबी चर्चा का विषय हो सकता है, पर मैं इस सबसे बचना चाहती हूँ. तुम्हें खो देने का वही पुराना डर आज भी रह-रहकर जेहन में उभरने लगा है. यहाँ आकर मेरी सारी समझदारी मेरा साथ छोड़ देती है, याद रह जाता है, तो बस तुम्हारा नाम, हमारा नाम, मैं और तुम, सिर्फ़ हम.....!

कहा है तुमने पहले भी, समझाया भी तो है..कई दफे, कि न आया करूँ मैं यहाँ..तुम्हें पता है, कि तुम्हें न पाकर मैं उदास हो जाती हूँ, टूट-सी जाती हूँ और कितनी ही बार अवसादग्रस्त भी हो चुकी हूँ. फिर भी मैं आती हूँ, तो बस यही सोचकर, कि क्या पता तुम आओ, कभी मेरी उम्मीद लिए और मैं न मिली, तो तुम भी तो उदास हो जाओगे न फिर ! नहीं चाहती, कि तुम्हारे इस साँवले-सुंदर से चेहरे पर चिंता की एक भी लकीर हो. हाँ, ये बात अलग है..कि मैं उन परेशानियों को कभी दूर न कर सकी..कभी करना चाहा भी, तो हमारे बीच और दूरियाँ बनती चली गईं....ये हम दोनों की ही बदक़िस्मती रही है शायद !

खैर......फिक़्र न करना कोई, मैं आऊँगी, आती रहूंगी....तो बस तुम्हारे लिए ! बाकी दुनिया और उससे जुड़े सारे अहसास अब सुन्न हो चुके हैं और मैं अब उन्हें जगाना भी नहीं चाहती ! जब तक तुम हो....मैं भी हूँ. पास रहो या यूँ दूर-दूर.....अब बस 'होना' ही काफ़ी है. 
सौदामिनी
'तुम्हारी' भी लिख दूं क्या ?

*एक और अंश, सौदामिनी के कई अंशों में से... .

प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

प्रेम डगर

Disclaimer :  यह एक अच्छे मूड में लिखे गये विचार हैं, जिसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं !

प्रेम' मात्र एक शब्द ही नहीं, जीवन है पूरा ! यह वो 'शै' है, जिसे हरेक ने किसी-न-किसी रूप में पाया है, सराहा है, महसूसा है या खोया है. पर इसके अस्तित्व से कोई भी अनजान नहीं. कुछ लोग इसे 'रोग' भी कहते हैं, यदि यह सच है..तो ये ऐसा रोग है; जिससे हर कोई ग्रसित होना चाहता है. वजह ठीक वैसी ही, जैसे कि किसी रेस्टोरेंट में खाना ऑर्डर करने के बाद बगल वाली टेबल पर नज़र जाते ही लगता है, उफ्फ..हमने ये क्यूँ नहीं मँगाया ! कहते हैं न, 'दूर के ढोल सुहावने लगते हैं'...पहली दृष्टि में ही सब कुछ खूबसूरत दिखाई देता है. आसपास के नज़ारे, फूल-पत्ती, ज़मीं-आसमां, यहाँ तक की खाने की थाली में भी वही एक चेहरा प्रतिबिंब बनकर उभरता रहता है. दिलो-दिमाग़, आँखों में वही बसा हुआ...अनायास ही होठों पर वो हल्की सी मुस्कुराहट बयाँ कर ही देती है, कि जनाब / मोहतरमा इश्क़ के मरीज बन चुके हैं. ये खुद ही खोदी गई ऐसी क़ब्र है, जिस पर फूल चढ़ाने भी हमें ही आना है. इसके सुखद होने तक सब आपके साथ होते हैं, और साइड इफेक्ट्स दिखते ही दुनियादारी की तमाम बातें कानों में पड़ने लगती हैं. फिर भी यह एक ऐसी डगर है, जिस पर सब चलना चाहते हैं, मंज़िल मिले न मिले पर रास्ता तो तय करना ही है !

मुझे लगता है, इसका दोषी 'बॉलीवुड' है. फिल्मों ने हम सबके दिमाग़ में कूट-कूटकर भर दिया है, कि प्रेम से बेहतर कुछ नहीं. यही है, जो सारे दुखों का अंत करता है. वरना 'प्रेम' के हर मूड के हिसाब से हम सबके दिमाग़ में गाने क्यूँ बजने लगते हैं ? गाने न होते तो, प्रेम में क्या रह जाता..बिना घी की रोटियों सा सूखा, बेस्वाद, कड़कड़ाता-सा ! दुख में क्या गाया जाता फिर ? अगर 'तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही...' न होता तो ! गीत-संगीत की धुन पर आँसू भी तो कैसे सुर में और सूपर-फास्ट बहते हैं ! पर उनका क्या जो फिल्में देखते ही नहीं......क्या उन्हें भी 'प्रेम' होता है ??????

जो भी है..होना चाहिए. पा लिया, तो जीवन खुशी से कटेगा और न पाया तो उम्मीद में ! नहीं कोसना चाहिए इस अहसास को, भ्रम ही क्यूँ न हो, इसका होना ही काफ़ी है !

MORAL :  सॉरी, पर 'इश्क़' में काहे का मोरल ! :P 

प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

'जान'

'जान' का अर्थ उसके लिए जीवन ही हुआ करता था. जब कभी आज के जमाने के लोगों को, या यूँ कहें कि प्रेमी-प्रेमिकाओं को एक दूसरे के लिए 'जान' शब्द का प्रयोग करते देखती-सुनती. तो बहुत कोफ़्त होती थी उसे ! छी ! ये भी कोई शब्द है, जान, बेबी..उफ्फ, ये आजकल के लोग, हाउ चीप ! क्या हुआ है, इन्हें !!

पर उस दिन जब प्रियम ने उसे प्यार से देखते हुए अपनी क़ातिलाना मुस्कान के साथ एकदम से कह दिया...." love u Jaan, can't live without u ! u r really sweet " तो जैसे रोम-रोम झनझना उठा था, उसका ! रग-रग में एक अजीब-सी खुशी की लहर दौड़ गई थी, पलकें नम और मन तरंगित था. धीमे स्वर में सौदामिनी भी बोल ही उठी, " love u too, jaan " और फिर सारे दिन पगलाती-सी घूमी थी. पहली बार किसी की 'जान' बनने का अहसास कितना खूबसूरत होता है, आज पता जो चला था उसे ! उफ्फ, कितना प्यारा है, ये अहसास ! फिर कागज़ पर कई बार लिखा, टाइप भी किया...पढ़कर देखा और खुद ही हँस दी, हाय ! कित्ता प्यारा शब्द है.....'जान' ! 

कुछ शब्द, सुनने-कहने में बड़े अजीब लगते हैं..पर वो हमेशा ही बुरे हों, ज़रूरी नहीं ! एक व्यक्ति, हर शब्द के मायने बदल सकता है....चाहे वो आपकी ज़िंदगी में ठिठककर ही चला गया हो !

* 'सौदामिनी'.......पूरा हुआ तो एक उपन्यास, वरना कुछ अधूरी कहानियों का संकलन मात्र !
प्रीति 'अज्ञात'

स्कूल की घंटी



स्कूल की घंटी से ज़्यादा मधुर ध्वनि किसी भी वाद्य-यंत्र से नहीं निकल सकती, इसके संगीत से रग-रग कैसे झूमने लगती है ! मन-मस्तिष्क में प्रसन्नता की लहरें हिलोरें मारती हैं ! वातावरण संगीतमय हो उठता है, मयूर बन नाचने को जी करता है ! वो भी क्या दिन थे ! आख़िरी पीरियड के वो आख़िरी 5-10 मिनट निकालने कितने दुष्कर हो जाया करते थे ! कोहनियाँ मार के या आँखों से ही अपनी बेचैनी सभी विद्यार्थी एक-दूसरे को बताया करते . कई बार यूँ भी लगता था, कि बजाने वाले भैया भूल तो नहीं गये ! नये जमाने वालों को बता दें, उस समय लोहे का एक मोटा सा तवा टाइप हुआ करता था, उस पर लकड़ी का मोटा, सोटा मारने से जो ध्वनि उत्पन्न होती थी, उसे ही घंटी कहा जाता था. शैतान बच्चे भी उस सोटे को छूते तक नहीं थे. :)

तो फिर, क्या पता बजी हो और हमने ही नहीं सुन पाई ! फिर खुद ही अपनी इस सोच को नकार दिया करते थे. नहीं-नहीं ये तो हो ही नहीं सकता, जो आवाज़ प्राणों से भी ज़्यादा प्रिय है, वो सुनाई न दे ! ना रे ! फिर कोई बच्चा पानी पीने के बहाने चेक करने का सोचता. लेकिन तभी टीचर की गुस्से से लाल आँखें उसके इरादों पर तुरंत ही पानी फेर दिया करतीं ! " नहीं, अभी नहीं..छुट्टी होने ही वाली है " 
कुछ हमारे टाइप के स्मार्ट बच्चे तुरंत ही पूछ लेते, " कितनी देर है, मेडम "  :P

उनका जवाब सुनकर दिल को बड़ी तसल्ली मिलती थी, गोया वो न कहतीं तो जैसे उस दिन छुट्टी होती ही नहीं . उनके उत्तर के हिसाब से धीरे-धीरे चुपके से अपने सामान की पैकिंग शुरू कर देते, जिससे टन-टन सुनते ही एक सेकेंड भी वेस्ट ना हो और हम सब टनाटन सीढ़ियाँ उतर जाएँ ! :P :D
उफ्फ. काश वो घंटी की आवाज़ें फिर से सुनाई दें, फिर से पैकिंग का मौका मिले, फिर से वही खोयी चमक लौट आए और भाग जाएँ कहीं.........! 
जीवन के चार दशक पूरे करने के बाद, एक ब्रेक तो बनता है ! :D

MORAL : तंग आ चुके हैं, कशमेकशे ज़िंदगी से हम
               ठुकरा न दें, जहाँ को कहीं बेदिली से हम...... :P :D 
( इन २ पंक्तियों के लिए शुक्रिया साहिर   लुधियानवी जी, मो. रफ़ी साहब, सचिन दा और गुरुदत्त जी )

प्रीति 'अज्ञात'

लो, हम बड़े हो गये.. :P

आज किसी ने मुझे बड़े होने का अल्टीमेटम दे दिया है...उफ्फ, अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊं ? :(
हेलो, हाँ..जी आप से ही
ये समझदारी कौन सी दुकान में मिलती है ?
क्या ?? आगे जाके राइट टर्न लूँ ?
ओके, . ., भैया......पर मैं पहचानूँगी कैसे ? :/
अच्छा, वहाँ बहुत भीड़ है ! लंबी लाइन ?
कर लेंगे इंतज़ार.... हमें तो आदत है....!
मिल गई रे...राइट में ही तो थी, पहले क्यूँ नी दिखी ! :P
अपने हिसाब से भी राइट ही तो जा रहे थे, बस इस स्पीडब्रेकर पे आके लड़खड़ा गये
किसी महापुरुष ने कहा था कि , सड़क पे चलने से पहले रास्ते की पूरी जानकारी ले लेनी चाहिए
कोई नी.... भगवान के घर 'अंधेर' है, 'देर' नहीं ! ( ये उलटफेर हमने किया, नो टाइपिंग मिस्टेक ) :D
१ किलो समझदारी खरीद ही लूं
;) ग़लतियाँ तो और करूँगी ही.... अरे, सुनना दुकान वाले भैया... ज़्यादा लूँ, तो डिसकाउंट मिलेगा ? (कौन बार-बार आएगा)
कुछ लोग कित्ते दुष्ट होते हैं, न ! सुधरते ही नहीं ! :D

MORAL : उम्र ज़्यादा होने से समझदारी नहीं आ जाती... ! hey, look.. I m trying वो भी happily  :)

प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

आख़िरी ख़त (लघुकथा)

शनिवार को मैंने तुम्हें एक ख़ास बात कहने के लिए ही कॉल किया था. मन-ही-मन कितना खुश थी मैं, कि जो बोलूँगी सुनकर तुम्हें भी बहुत अच्छा लगेगा और फिर अपने exams की तैयारी और बेहतर तरीके से कर सकोगे. पर अपनी रूचि की बात सुनी तुमनें और फिर तुरंत ही व्यस्तता का कहकर फोन रख दिया, जो कि मैं वाकई समझ सकती हूँ. बुरा तब लगता है, जब तुम कहने के बाद भी कॉल रिटर्न नहीं करते. क्या हो जाएगा, यदि किसी दिन ५ मिनिट देर से चले जाओगे तो ? रोज भी तो शाम तक ही जाते हो न ? आज तो वैसे भी जल्दी ही जाना होता है. खैर.....इंतज़ार का नतीज़ा वही निकला ! रात में बात हुई, तब भी तुमने नहीं पूछा..फिर मैंने ही बेशर्म होके याद दिलाया..और वहाँ न कह पाने की विवशता भी जाहिर की ! फिर मुझे सोमवार का इंतज़ार था, तुम्हें तब भी फ़र्क नहीं था, कि मैं क्या कहना चाहती थी, इसलिए जानना भी नहीं चाहा. हारकर मैंने फिर फोन लगाया, जो निरुत्तरित रहा..दोपहर तुमने बताया कि तुम ३ दिन के लिए बाहर हो, अचानक से प्रोग्राम बन गया था. खुशी हुई मुझे, कि अच्छा वक़्त बीतेगा तुम्हारा !

पर एक बात कहीं चुभ-सी भी गई, क्योंकि यही वो तय वक़्त था..जबकि मैंने तुमसे वहाँ आकर मिलना चाहा था और तुमने छुट्टी न मिल पाने की असमर्थता जाहिर की थी. बात इतनी सी ही होती, तो भी बर्दाश्त थी..पर जब तुमने अपने मित्र को यह कहा, कि तुझे महीने भर पहले ही तो बताया था..तो सच में बहुत-बहुत बुरा लगा.....'झूठ' ??? नफ़रत हुआ करती थी न, इससे तो तुम्हें..और आज मेरे से ही...क्यों ??? महीनों पहले से ही तुम्हारा मुझे टालना, दूरी बनाना देखती आ रही हूँ, रोज मरी हूँ, अब भी मर ही रही हूँ..और मेरी फूटी क़िस्मत ने अब परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी हीं बना दीं.....कि अपने ही घर में नज़रबंद हूँ ! पर मैंनें हिम्मत नहीं हारी, तुम तक पहुँचने की हर कोशिश की और तुम ऐसे हर इरादे पर पानी फेरते चले गये. गुरुवार को फ्रस्ट्रेशन में आकर मैंने फिर एक ग़लती की..जिससे तुम मुझे कभी देख ही ना सको..खुश रहो,  हमेशा के लिए..पर तुरंत ही मुझे इसका अहसास हुआ..कि फिर मैं भी तुम्हें नहीं देख सकूँगी..कैसे रहूंगी फिर !! और फिर मेरा एक कॉल तुम तक गया....खुशी हुई कि तुमने दोस्ती स्वीकार करी !

अचानक तभी ही तुम्हें, मेरी वो बात भी याद आई..और तुमने जानना चाहा, मैंने मना किया क्योंकि अब उस बात की उपयोगिता ही नहीं रह गई थी..खैर, तुमने कहा कि तुम सुनना चाहते हो..पर मेरे यह कहते ही कि "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती" तुमने झट से फोन रख दिया, बाद मैं बात करते हैं, कहकर....वो बाद अब तक नहीं आया ! ये जानते हुए, कि अगले दिन छुट्टी है, तब भी तुमने घर जाते हुए मुझसे बात नहीं की, मैं रोती ही रही इधर....हाँ, उस दिन रात में तुम्हारी औपचारिक बात से मुझे अंदाज हो गया था, कि अब तुम्हारी दुनिया में मेरी जगह किसी और ने ले ली है ! क्योंकि तुमने तब भी नहीं बताया, कि मेरी बात पर तुम्हें क्या कहना है. लेकिन मेरी एक बात का यक़ीन ज़रूर करना कि मैंने तुम्हें कभी कुछ न भी  दिया हो पर तुम तक पहुँचने के लिए सब कुछ छोड़ा है...

मैं हमेशा से ही Giver रही हूँ, पर ऐसी तक़लीफ़ कभी नहीं हुई, पहली बार कुछ पाना चाहा था..ज़्यादा नहीं, बस थोड़ा ही ! ये अलग बात है, कि तुम्हें मेरा थोड़ा भी ज़्यादा लगा. यदि तुम्हारा झुकाव किसी की ओर बढ़ रहा है, तो कमी मेरे प्यार में ही रही होगी...पर इससे ज़्यादा करना या कहना मुझे आता ही नहीं. मैं तुम्हारे लायक भी नहीं, किसी के भी लायक नहीं..वरना इतनी उम्र बीत जाने पर भी कोई तो होता, जिसने मुझे चाहा होता..जो मेरे लिए यूँ ही व्याकुल होता, यूँ ही मुझसे मिलने को तड़पता..मैं सच में दिन में ख्वाब देखने लगी थी..दोष तुम्हारा नहीं, मेरी इन अधूरी आँखों का है.....पर अब कोई ग़म नहीं, वरना हमेशा यही सोचा करती थी कि मुझे कुछ हो गया, तो कैसे रहोगे तुम, कौन ख्याल रखेगा, कौन बेवजह समझाएगा..कि अपने खाने-पीने का ध्यान रखना, टाइम टेबल फॉलो करना, exercise करना, पढ़ने को भी वक़्त निकालो, पीठ-दर्द का इलाज कराओ, acidity की प्राब्लम बार-बार क्यूँ हो रही है..अच्छे डॉक्टर को दिखाओ.......पर अब मरी तो इस तरह की फ़िक्र न हो शायद..'शायद' इसलिए क्योंकि मुझे खुद मेरा भरोसा नहीं रहा, हो सकता है कभी ना सुधर सकूँ.......पर जहाँ हो, जैसे हो, जिसके साथ हो..स्वतंत्र हो तुम ! मैं अब तुम्हारा पीछा नहीं करूँगी, मुश्किल है, लगभग नामुमकिन सा ही.....तुमने कहा भी था एक बार कि 'उम्र ज़्यादा होने से समझदारी ज़्यादा नहीं आ जाती' सच है, मैं अब समझदार होना भी नहीं चाहती........पर उस दिन जब तुमने ही कह दिया....."पहले भी जी रही थी ना" सो जी ही लूँगी..अच्छी रहूं या बुरी...अब तो बस मेरा 'होना' ही काफ़ी है......!

तुम्हारी भी नहीं कह सकती...ये हक़ तो अब तुमने......लेकिन 'मैं' आज भी 'तुम्हारी' हूँ......रहूंगी, जब मिलो तो 'जान' कहकर ही पुकारना..जीवित होने का एक वही अहसास आज भी सलामत है, इस शब्द से जुड़ा हुआ...

सिर्फ़ सौदामिनी

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ULLU BANAAVING


१ अप्रैल, २०१४
'मूर्ख-दिवस' , ह्म्‍म्म्मम...... !  कित्ता बुरा लगता है न, जब कोई अपने को उल्लू बनाए ! थोड़ी सी शर्म भी आती है, कि हाए राम, हम तो खुद को इत्ता हुसियार समझते हैं और इसने कैसे ठग लिया ! फिर मन-ही-मन उससे बदला लेने का प्लान करते हैं, पर सेम टाइम होने की वजह से अपुन का प्लान तुरंत ही फेल हो जाता है ! और तब खिसियाते हुए अपनी बत्तीसी निपोरना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है ! :)

हुन्ह, हामी भरने की कोई ज़रूरत नहीं !  :/ बुरा लगता है, तो इतने सालों से इन भ्रष्ट, झूठे लोगों को ( सिर्फ़ नेता ही हों, ज़रूरी नहीं, झूठ तो हर तबके के लोग बोलते हैं, ये तो बस Expert हो गये हैं) बर्दाश्त क्यूँ कर रहे हो ?? ये सब बड़े खुश होंगे आज तो, कि हम बरसों से सब को कैसे ' ULLU BANAAVING ', वो भी बिना IDEA Network के !  :D

आज तो मातम का दिन है,  हिन्दी में बोले तो - "विश्वास टूटन दिवस" !    :P :D

प्रीति 'अज्ञात'

काश !

काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता, फिर न कुचले जाते ये इस तरह, हर बार, हर जन्म में ! एक जीवन में पलकों तले पलते हुए अनगिनत स्वप्न जोड़ लेते हैं, खुद ही उछलकर, उम्मीदों का ताना-बाना ! ये अक़्सर एकतरफ़ा ही हुआ करते हैं, फिर भी घसीट लाते हैं दूसरे पक्ष को जबरन अपने साथ कि पूरे न होने पर दोषारोपण के लिए कोई तो हो ! गुज़रते हैं जीवन के तमाम झंझावातों के बीच से और दो पल साँस लेने को ज्यों-ही ठहरते हैं कहीं, समय आकर बेरहमी से उनका गला घोंट दिया करता है; नोच लेता है बोटी-बोटी उनकी कि कराहने की ताक़त भी बाक़ी न रहे उनमें और वो ध्वस्त हो जाएँ हमेशा-हमेशा के लिए !
" काश ! सपनों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता"
काश, हर सपना अपनी मौत मरता ! सुनिश्चित अवधि पूरी होने पर, कुछ पल और जी लेने के बाद ही !
* एक आधी-अधूरी कहानी के कुछ अंश ( Unedited )

प्रीति 'अज्ञात'

:(

सत्य अक़्सर ही कोने में छुपा अकेला सूबकता है, लोग झूठ की तलाश में व्यस्त जो रहते हैं ! सत्य कायर तो नहीं है ,ये ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही आशावादी हैं , तभी तो चुप हो बैठ जाता है, और झूठ की प्रतिरोधक-क्षमता इससे कहीं ज़्यादा दिखाई पड़ती है. जो दिखता है, उसे ही दुनिया भी सच मान लेती है, क्योंकि असली मज़ा तो उन्हें झूठ ही देता है. 
एक जीवन सरल सा.......ज़िंदगी बेहद मुश्किल !

प्रीति 'अज्ञात' —

शनिवार, 29 मार्च 2014

स्वप्न की दहलीज़ पर (लघु-कथा)



वो बरसों तक उसी दहलीज़ पर ही थी. भरे हुए नयनों से बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर शब्द गले तक आकर ही अपना दम घोंट लिया करते थे. कभी दो-चार अक्षर सकपकाकर बाहर आए भी, तो तिरस्कार ने तुरंत ही बेरहमी से उनका दमन किया. कहते हैं उसकी मुस्कान सबका दिल जीत लेती थी, लेकिन उसके दिल पर क्या बीत रही है, ये जानने की ज़हमत किसी ने कभी नहीं उठाई. सबकी अपनी एक दुनिया है और उससे जुड़ी ख्वाहिशें ! पलटकर देखने का वक़्त किसके पास होता है ?

पता नहीं क्यूँ और कैसे उस एक इंसान से उसने अपना जीवन जोड़ लिया, दहलीज़ के भीतर से ही ! उसका आना, हँसना-हंसाना अब खूब भाता था, इसे. दोनों घंटों बातें किया करते, सुख-दुख साझा करते, एक-दूसरे के आँसू पोंछते तो कभी साथ ठहाका लगाकर हंसते, जी लेते थे मिलती-जुलती सी अपनी ज़िंदगी में. क्या अपनी खुशी से जीना जुर्म था ? वो इंसान जो उम्र-भर दूसरों के लिए जिया, क्या अपने लिए कुछ अपने-से पल नहीं सहेज सकता ? 

शायद नहीं....समाज में रहकर तो बिल्कुल भी नहीं ! 'समाज' जो विडंबनाओं से पटा पड़ा है, जो अपने ही नियम-क़ानून की अपनी सुविधा से रोज धज्जियाँ उड़ाता है, जहाँ जुर्म की आँधियाँ हर गली-मोहल्ले में खुले-आम चलती हैं, जहाँ एक कुत्ते के भौंकने पर गोली मार देने का हुक़्म दिया जाता है और इंसानों के क़ातिल सीना-ताने घूमते हैं, जहाँ ज़मीन-जायदाद की रखवाली के लिए लोग सारी रात जगा करते हैं, और वहीं कहीं कोने में किसी की अस्मत तार-तार होती है, जिसकी चीखें-चिल्लाहटें कर्त्तव्यों का रुमाल ठूँसकर दबा दी जाती हैं ! हाँ, यही स्वार्थी समाज...जीते-जागते लोगों के मरे हुए वज़ूद की दुनिया ! ये कुछ कमजोर और डरपोक-से सपनों को पल में ही मसल देती है, चींटी की तरह !

वो समझदार था, दुनियादारी से वाक़िफ़ भी. उससे इसकी ये हालत देखी न गई....सो, चला गया; अपने विकल्प के साथ ! 
वो भी चली गई, डूबती साँसों और अपने इस छोटे और अधूरे स्वप्न के साथ ! आज घर की दहलीज़ पर लाश है,उसकी. खुली हुई आँखें इंतज़ार की गवाह हैं, पर पैर घर के भीतर की ही तरफ.....उस पार न तो जा सकी और न ही जाना चाहा था उसने ! दोषी भी वही थी, स्वीकार लिया था उसने बुझे मन से. और हाँ, आज अपना 'समाज' भी हितैषी की तरह मौज़ूद है वहाँ, चुपचाप नये किस्से-कहानियाँ बुनता हुआ. कोई मीडिया को देख उदासी का ढोंग रच रहा है, तो कोई अकेलेपन से उभरी इसकी मायूसी को लाचारी का नाम देने में लगा है. किसी ने इसे राष्ट्रीय क्षति बताकर जाते-जाते इज़्ज़त देने की कोशिश भी की. वहीं अंदर गहनों का हिसाब-किताब चालू है. कुछ बच्चे बेतरह रो रहे हैं, उन्हें ढाँढस बंधाने के लिए किसी ने उनकी खाने की थाली में एक चॉकलेट रखकर सरका दी है. सुना है, कोई वकील भी आया है, मृत्यु के प्रमाण-पत्र का काग़ज़ लेकर.....!
काश ! उसकी आँखें कभी कोई सपना न बुनतीं...काश! नींदों में ख़्वाब शामिल न होते...काश  सपनों और ख़्वाहिशों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता ! काश ! ये काश न होता !

प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 23 मार्च 2014

'एक राष्ट्र, एक सोच....एक दल'

राजनीति और इससे जुड़ी बातें मुझे आज तक समझ नहीं आईं. जितना ही समझने की कोशिश की और उलझती चली गई. एक तरफ तो सभी पार्टियाँ राष्ट्रीय-एकता और राष्ट्र-हित की भावनाओं का समर्थन करतीं हैं, वहीं दूसरी और उन्हें आपस में ही लड़ते और व्यक्तिगत हितों के लिए आम जनता को हर संभव तरीके से बेवकूफ़ बनाते हुए भी देखा जा सकता है.
न जाने कितने करोड़ रुपये तो चुनाव प्रचार के नाम पर ही पचा लिए जाते हैं. मीडिया और हम सबका समय व्यर्थ गया, सो अलग ! और परिणाम ???? वही चुने गये लोगों के प्रति आक्रोश जताती जनता !

कितना अच्छा हो, अगर इतने सारे दल ही न हों. हमारे नेता भी 'दल-बदलू' के ठप्पे से बच जाएँगे. बस एक ही पार्टी हो - 'राष्ट्र-हित पार्टी' ! हर राज्य में एक ही तरह की सकारात्मक सोच वाले लोगों की सत्ता ! इनमें गाँधी जी की सच्चाई हो, भगत सिंह सी देश-भक्ति और मंगल पांडे सा जुनून ! बहुत से उदाहरण हैं, गर लिखने बैठे तो ! पर आज के सन्दर्भ में एक ऐसी पार्टी की कल्पना नहीं की जा सकती क्या , जिसमें अटल जी जैसी संवेदनशीलता, अब्दुल कलाम जी जैसी दूरदर्शिता, मोदी जी सी कर्मठता, केजरीवाल जी की तरह परिवर्तन की ललक, राहुल गाँधी की युवा सोच और अन्ना जी की सहनशीलता वाली विचारधारा के लोग शामिल हों ! ये सभी लोग ही अपना-अपना राग, धर्म और आपसी द्वेष छोड़कर क्यूँ नहीं 'एक' हो सकते ??? अगर वाक़ई देश की फ़िक्र है, तो इस सन्दर्भ में सोचना ही होगा...... "एक राष्ट्र, एक सोच, एक दल" और इसका मक़सद - शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधाएँ सभी देशवासियों के लिए उपलब्ध कराना और भारत को एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार-मुक्त राष्ट्र बनाना ! ग़रीबी अपने आप ही दूर हो जाएगी !

* शायद आप सभी को यह एक सपना ही लगे, पर जो सोचा जा सकता है....उसे पूरा भी किया जा सकता है ! वर्षों पहले कौन इस बात पर यक़ीन करता, कि घर बैठे-बैठे ही हम दूसरे शहर, देश में रहने वाले प्रियजनों को देख सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं ! बात सिर्फ़ 'सोचने' की ही है, संभव सब है !

प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 16 मार्च 2014

'ज़िंदगी'....जीने के लिए ही तो बनी है !

'आत्महत्या' एक प्रकार की हत्या ही है. फ़र्क बस इतना ही है, कि इसमें इंसान अपने मरने के तरीके खुद चुनता है; माहौल तो दूसरे या उसके अपने ही तैयार कर देते हैं. 'हत्या' में, हत्यारे को उस व्यक्ति की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं; इसलिए वो उसे मार डालता है. 'आत्महत्या' में, ख़ुद ही पता होता है; कि उपस्थिति के कोई मायने ही नहीं ! एक नज़र से, यही ज़्यादा समझदार सा लगता है या फिर कोई बहुत ही बड़ा बेवकूफ़ !

मैं हमेशा से ही 'आत्महत्या' करने वालों से नफ़रत करने वाली और इस कृत्य की घोर विरोधी रही हूँ, क्योंकि मुझे लगता आया है; कि उन्हें उन अपनों की परवाह ही नहीं, इसीलिए ये कायरता भरा कदम उठाते हैं. लेकिन कभी-कभी एक अप्रत्याशित सी सहानुभूति भी होती है, उनसे ! हो सकता है, उन्हें भी यही महसूस होता हो; कि अपनों को ही उनकी फिक़्र नहीं ! अगर मरने से पहले, कोई उन्हें ये अहसास करा देता कि उनकी मौजूदगी कितनी अहं है..तो वो शायद कभी ऐसा करते ही नहीं ! काश, कोई किसी को कभी ऐसा करने को मजबूर न करे ! दिल से न सही, एक 'भ्रम' की तरह भी कोई, किसी का हमेशा के लिए हो सके....तो कुछ ज़िंदगियाँ, कुछ वर्ष और जी सकें ! अकेलापन भी मार ही देता है, इंसान को ! ये 'मौत' भीतर ही होती है, हर रोज ! कभी समाज का भय, तो कभी व्यक्ति-विशेष से बिछोह का. कभी किसी की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाना बुरा लगता है, तो कभी अपने ही उत्तरदायित्वों के निर्वाह में कमी सी लगती है. 'अपेक्षा' और 'उपेक्षा' दोनों ही हर रूप में घातक हैं. इनसे बच गये, तो भाग्यशाली हैं. वैसे ऐसा हो पाना भी मुश्किल सा ही है.

'एकला चलो रे.....' सुनने में अच्छा ज़रूर लगता है, पर कौन, कब तक, कितनी दूर तक अकेला चल पाया है..इसका हिसाब-किताब कहीं नहीं ! हाँ, जिसने भी इस मंत्र को समझ लिया, वही जी गया.... ! कतरा-कतरा ज़िंदगी तो रोज ही बिखरती है, और रोज ही उसे समेटना भी ज़रूरी है. बहुत रहस्यवादी है, ये दुनिया और इसमें बसे सभी लोग. क़िस्मत वाले हैं, वो .......जो इसमें खुलकर हँस लेते हैं ! कौन जाने, उस हँसी की तहों में, कितने दर्द दफ़न हैं !
खैर....ख़ुदा करे, आपके सभी अपने, आपके करीब और हमेशा सलामत रहें ! 'ज़िंदगी'....जीने के लिए ही तो बनी है! इससे कैसी नाराज़गी !


प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 10 मार्च 2014

लत लग गई...... :P

लोग कहते हैं, कि लड़के हमेशा लड़कियों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाया करते हैं. पर मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि ये प्रथा तो हमारी पृथ्वी जी ने शुरू की है. :P देखो तो ज़रा, बरसों से सूरज के चारों तरफ चक्कर लगाए ही जा रही है और अब तक हार नहीं मानी. लेकिन इस दुष्ट 'सूरज' को आजतक ये बात समझ नहीं आई दिखती है, जब देखो तब लाल-पीला हुए आएगा और जाते समय भी वही अकड़! दिन में भी तमतमाया ही घूमता है! :/ हद है, इत्ती ऐंठ किस बात की ? कभी तो 'Down To Earth' हो जाओ रे! :) तेरा कित्ता इलाज करवाया, गॉगल्स (बादल) भी लगवाए. पर तेरा कुछ नहीं हो सकता, दूर रहकर जलाया ही कर बस! ध्यान रख, मेरे बिना तू भी बहुत बोर होगा, क्या करेगा वहाँ अकेला आसमान में टॅंगकर! खैर, जा अभी तो; शाम के ७ बजने को हैं, अब कहीं जाके डूब ही मर ! हाँ, नहीं तो.....! :P :D

Moral : ओये, आ जइयो कल फिर से... Same time, Same satellite. , उफ्फ्फतेरी आदत जो पड़ गई है. :)

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

होता है, जी....

कई बार ऐसा होता है न, कि कोई इन्सान हमें अपने-आप से भी ज़्यादा ज़रूरी लगने लगता है, हर-वक़्त जेहन में वही एक नाम घूमता रहता है और जो कहीं वो नाम लिखा भी दिख जाए, तो दिल की धड़कनें अचानक बढ़ जाती हैं, चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान छा जाती है और फिर हम अचानक सामान्य दिखने की भरसक कोशिश भी करते हैं. डर जो लगता है कि कोई हाल-ए-दिल पढ़ न ले. उफ्फ...ऐसे FATTU बनने की क्या ज़रूरत है? जिस प्रेम को पाने में लोगों की उमर बीत जाती है, आप उसके बेहद करीब हैं, बस उस एक शख़्स से कहना ही तो शेष है.....जाओ, कह दो आज ही जाकर उसे; "मुख्तसर सी बात है......." और हाँ, फिर थामे रखना उस हाथ को, विश्वास कभी टूटने न देना !
Trust Me , करूण रस के कवि बनने से बेहतर विकल्प है ये ! बाकी आपकी क़िस्मत, खुल गई तो हमारी दुआएँ आपके साथ और न खुली तो बद्दुआएँ क़बूल हैं हमें, पर कोशिश करने में क्या हर्ज़ है ! 
"एक जीवन: आधा बीत चुका दुनिया के हिसाब से.... अब तो जी लो बचा-खुचा, अपनी ख़्वाबों की किताब से"
प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

लौट आओ तुम (लघु-कथा)

नहीं मालूम, कि आज मैं ये सब क्यों लिख रही हूँ. मैं चाहती भी हूँ, कि तुम इसे पढ़ो और डर भी है..कहीं पढ़ न लो ! इसीलिए पत्र नहीं लिखा, सब कुछ किस्मत पे ही छोड़ दिया है. जीवन की इस भागा-दौड़ी ने हमें एक-दूसरे से बहुत दूर कर दिया है. न बातें होती हैं, न मिलना ही, पत्र लिखने की आदत तुम्हारी कभी थी ही नहीं...और जवाब न मिलने से निराश होकर अब तो मुझे भी बरसों हुए, चिट्ठी लिखे ! शायद 'जवाब न मिलना' ही मेरी नियति बन चुकी है. सब आकर हज़ारों प्रश्न करते हैं, मैं सहज भाव से उत्तर देने की कोशिश करती हूँ. पर फिर भी न जाने क्यों मेरे सवालों के आते ही वो उकताकर चले जाते हैं.

बचपन में तुम सही कहा करते थे, कि कम बकबक किया कर. मैं बोलती थी, कि सिर्फ़ तुम्हें ही तो कहती हूँ. कई बार इस फालतू सी बात पर ही हमारी मारा-पीटी हो जाया करती थी. मैं पर्दे के पीछे छिपकर या कई बार बेड के नीचे जाकर रोया करती थी. तुम मनाने नहीं आते थे, हंसते थे.. ये कहकर ' गईं फुल्लो रानी, कोप-भवन में'. न जाने कितने अजीब-अजीब से नाम रखे थे, तुमने मेरे. मुझे तो याद ही नहीं आता, कि तुमने मुझे मेरे नाम से कब बुलाया था !
हम कितनी ही चीज़ें शेअर किया करते थे. पढ़ाई की मेज़ भी हमने स्केल से बाँट रखी थी. और मेरा एक सेंटीमीटर भी तुम्हारे क्षेत्र में आना भयानक युद्ध का विषय हुआ करता था. कभी चोटी खींचना, कभी मेरा सामान गायब कर देना, मुझसे पहले बाथरूम में घुसके मुझे लेट कर देना और फिर जोकर की तरह हँसाना-रुलाना भी तुम्हें खूब भाता था. मुझमें हर वक़्त ऐब ही निकाला करते थे, लेकिन अपने दोस्तों के बीच बड़े गर्व से मेरी पेंटिंग दिखाते,कक्षा में सर्वोच्च अंक आने की शान मारते, और प्रतियोगिताओं में मेरे जीतने पर फूले नहीं समाते थे. लेकिन मुझे देखते ही झट से विषय बदल लेते, ये कहकर ' तू यहाँ क्या कर रही है ? जा अंदर जा, अपनी कुर्सी पे बैठ, किताबें इंतज़ार कर रहीं होंगी बेचारी', कुछ आता तो है नहीं, तेरे को. मैं खिसियाकर चली जाती थी, और गुस्सा भी होती थी, मन-ही-मन. लेकिन कुछ देर बाद तुम आकर ऐसे बात किया करते थे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. मैं और चिढ़ जाती, फिर ठान लेती थी, कि अब कभी बात ही नहीं करूँगी. पर अगले दिन ही बेशरम बनके फिर बात शुरू. तुम कुछ भी कहते-करते, पर मैं मौका पड़ने पर हमेशा तुम्हारा साथ दिया करती थी. अब तो ये बात तुम भी मानते होगे न !

इतने बरस बीत गये हैं. दोस्त भी मिले-बिछुड़े, रिश्ते बने-टूटे, किसी से लड़ती ही नहीं, अब मैं ! जिन्हें दिल से अपना मानकर कभी नाराज़गी जाहिर की भीतो उन्होंने मुझे दिल से ही निकाल दिया ! किसपे गुस्सा करूँ, हक़ जमाऊं ? सब अपनी ज़िंदगियों में व्यस्त हैं. किसी को किसी की ज़रूरत ही नहीं होती आजकल ! कोई नहीं पूछता, कि ये तरबूजे सा मुँह क्यूँ लटका है ! जा मोटी और खा ले ! 

बहुत मिस कर रही हूँ आज तुझे भाई ! वक़्त निकल जाने से पहले ही जान लो, हम सब बहुत प्यार करते हैं तुम्हें. आ जाओ अब तुम परदेश से, लड़ाई कर लेना मुझसे, जो चाहो कह देना, वैसे अब मैं बकबक भी कम ही करती हूँ, कोई मनाने वाला ही नहीं सो ,कोप-भवन में जाना भी छोड़ दिया है. चुप ही रहूंगी अब, पर तुम आँखों के सामने रहो. दो बरस में एक बार की बजाय अब एक बरस में दो बार मिलो. मेरे हिस्से की सारी मिठाइयाँ भी तुम्हारी, मैंने मीठा खाना ही छोड़ दिया है. और हाँ, मुझे चिढ़ाने के लिए बगीचे से एक-दो फूल भी तोड़ सकते हो, बस पौधा न उखाड़ना ! तुम्हें याद है, बचपन में एक बार जब मैंने तुमसे कहा था, कि भैया गुलाब में पहला फूल खिला है, तोड़ना मत ! तो तुमने पौधे को जड़ समेत उखाडकर मुझे तुरंत कहा, ओहो मतलब पूरा पौधा तो ले सकते हैं, ना ! फिर मैंने भी रो-रोकर कैसा कोहराम मचा दिया था. खैर..मैं और मेरी नौटंकी तो जग-जाहिर है. अब सुधरने की कोशिश कर रही हूँ, जानती हूँ तुम कहोगे, 'जिस दिन तू सुधर गई, देश सुधर जाएगा. मदर टेरेसा न बन' ! नहीं बन रही अब मैं कुछ भी. एक अच्छा इंसान बनने की जद्दोजहद ने बहुत कुछ सिखा दिया है....सिर्फ़ दोषी ही बन पाई हूँ, अब तक..सबकी नज़रों में !

ये कैसा सच है जीवन का, भाई-बहिन हमेशा साथ क्यों नहीं रह सकते ? सिर्फ़ कहने की बातें हैं, दूर रहकर भी सब साथ होते हैं. नहीं होते हैं, बिल्कुल नहीं होते, कभी नहीं होते..........! मिलना ज़रूरी है.....हर रिश्ते में !

प्रीति 'अज्ञात'